Monday, 6 July 2015

कांग्रेस क्या अतीत से कुछ सीखेगी @रामचंद्र गुहा

हाल ही में इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में छपे एक निबंध में राजनीति विज्ञानी सुहास पल्शीकर ने स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस पार्टी के करियर में तीन अलग-अलग चरणों की पहचान की। पहला चरण 1947 से 1967 तक का था। यह पार्टी के प्रभुत्व का दौर था। इन 20 वर्षों में कांग्रेस केंद्र में और वस्तुतः देश के सभी राज्यों में सत्ता में रही। इस समय तक कांग्रेस में स्वतंत्रता आंदोलन वाली चमक इस कदर बाकी थी, कि पूरे देश में समाज के सभी वर्ग उसे ही सबसे भरोसेमंद और असरदार पार्टी मानते थे।

दूसरे चरण की शुरुआत 1967 के आम चुनावों के साथ हुई। पार्टी ने केंद्र में तो अपनी सत्ता बचा ली, मगर कई राज्यों में उसे हार का सामना करना पड़ा। हालत यह हो गई थी कि यदि कोई दिल्ली से वाया ट्रेन हावड़ा तक की यात्रा करे, तो उसे किसी कांग्रेस की सत्ता वाले राज्य से गुजरना नहीं पड़ता था। 1967 से 1989 के बीच के समय को पल्शीकर कांग्रेस के लिए 'चुनौती' का समय कहते हैं। 1977 से 1980 के बीच कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता खो दी। राज्यों में तो कांग्रेस को और भी ज्यादा समय के लिए सत्ता से हाथ धोना पड़ा। राजनीतिक तौर पर कांग्रेस को अब वह जगह दूसरे राजनीतिक दलों के साथ बांटनी पड़ रही थी, जिस पर कभी केवल उसका आधिपत्य हुआ करता था।

1989 के बाद तो कांग्रेस की हालत और भी खस्‍ता हुई। तब से लेकर आज तक कांग्रेस कभी लोकसभा में तो बहुमत हासिल नहीं ही कर पाई है, 1989-91, 1996-2004 और अभी पिछले वर्ष से तो उसे लोकसभा में विपक्ष में बैठना पड़ रहा है। विधानसभा चुनावों में भी इसकी स्थिति में लगातार गिरावट आई है।

1989 से अब तक चल रहा अंतिम चरण कांग्रेस के लिए 'अस्तित्व को बचाने' का चरण रहा है। एक आंकड़ा स्थिति की गंभीरता को दर्शाने के लिए काफी है। 1989 में सत्ता गंवाने के बावजूद 39.5 प्रतिशत वोट पार्टी के हिस्से में आए थे, जबकि 2014 में इसके आधे से भी कम 19.3 प्रतिशत वोट ही उसे मिले। पल्शीकर कांग्रेस की इस गिरावट की वजहों की पड़ताल करते हैं। वह इसके लिए 1969-70 में इंदिरा गांधी ने पार्टी की संरचना में जिस तरह के बदलाव किए, उन्हें जिम्मेदार मानते हैं। इन बदलावों के चलते प्रधानमंत्री और मतदाताओं के बीच का संगठनात्मक जुड़ाव कमजोर हुआ, कभी बेहद जोश के साथ काम करने वाली जिला स्तरीय समितियां पंगु बन गईं और पहले काफी ताकतवर रहे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष या राज्यों के मुख्यमंत्री सर्वोच्च कमान के सहायक बन कर रह गए।

1970 और 80 के दशक के दौरान कांग्रेस लगातार सामाजिक समूहों का समर्थन खोती गई, जो कभी इसके वफादार मतदाता माने जाते थे। पहले मध्यवर्गी व समृद्ध कृषक वर्ग ने पार्टी का साथ छोड़ा, और उसके बाद ऊंची जातियों ने भी इससे पल्ला झाड़ लिया। लंबे समय से कांग्रेस का ठोस वोटबैंक माने जाने वाले आदिवासियों और दलितों ने भी 1990 के दशक से दूसरी पार्टियों का रुख करना शुरू कर दिया, ताकि उनके हितों को बेहतर ढंग से प्रतिनिधित्व मिल सके। सबसे अंत में साथ छोड़ने वालों में धार्मिक अल्पसंख्यक थे। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के समय से पार्टी के साथ खड़ा यह वर्ग अब खुद को उपेक्षित और ठगा महसूस करने लगा था।

कभी कांग्रेस का चुनावी गढ़ रहे निर्वाचन क्षेत्रों और राज्यों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। कामराज के तमिलनाडु में 1967 से यह सिफर बनी हुई है। बी सी रॉय के पश्चिम बंगाल में 1977 से कांग्रेस नगण्य बनी हुई है। 1990 के दशक से मंडल और मंदिर के फेर में यह लाल बहादुर शास्‍त्री के उत्तर प्रदेश और राजेंद्र प्रसाद के बिहार में महत्वहीन बनकर रह गई है। वल्लभभाई पटेल के गुजरात में भी उसकी यही हालत है। और, अगर हालिया लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजों को संकेत माना जाए, तो वाई बी चव्हाण के महाराष्ट्र और बंसीलाल के हरियाणा में भी कदाचित कांग्रेस की दुर्दशा ही दिख रही है। कुछ ऐसी ही हालत कांग्रेस की नंदिनी सत्पथी के ओडिशा और अर्जुन सिंह के मध्य प्रदेश में भी दिख रही है।

पल्शीकर की यह टिप्पणी गौर करने लायक है, 'किसी राज्य को खोने पर कांग्रेस उसकी भरपाई शायद ही कर पाती है।' अब तक चार बड़े राज्यों- तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार के संदर्भ में उनकी टिप्पणी बिल्कुल सटीक बैठती है। संगठनात्मक स्‍तर पर आज कांग्रेस में कोई गहराई नहीं दिखती, और न ही साथ छोड़ गए समूहों को वापिस लाने के लिए किसी राजनीतिक योजना पर बात हो रही है।
दिलचस्प बात यह है कि इंदिरा गांधी का सरसरी तौर पर जिक्र करने के अलावा पल्शीकर पार्टी के नेतृत्व पर कुछ नहीं कहते। नाम लेकर न तो वह सोनिया गांधी और न ही राहुल गांधी के बारे में कुछ कहते हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि एक राजनीति विज्ञानी होने के चलते वह किसी व्यक्ति विशेष के बजाय संस्‍थानों पर और किसी खास नेता की कामयाबियों और गलतियों के बजाय सामाजिक प्रक्रियाओं में होने वाले बदलाव पर ज्यादा फोकस करते हों। मेरे विचार से किसी पार्टी की कामयाबी या नाकामयाबी का सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक होता है नेतृत्व की शैली। यह कारक उतना ही महत्वपूर्ण है, जितनी संगठनात्मक मजबूती या विचारधारात्मक अनुकूलता। कांग्रेस के मामले में यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इसके नेतृत्व की गुणवत्ता में लगातार गिरावट आई है।

राजीव गांधी के पास देश और उसकी सामाजिक विविधता का वैसा ज्ञान नहीं था, जैसा उनकी माता इंदिरा गांधी को था। हालांकि वह युवा और आकर्षक थे और उनका नजरिया आधुनिक तकनीकी वाला था। दूसरी ओर, अपने पति के विपरीत सोनिया गांधी के पास नए विचार नहीं थे। मगर, कड़ी मेहनत करने में उनका कोई सानी नहीं है। राहुल गांधी को राजनीति में आए एक दशक से ज्यादा समय हो गया है। नेतृत्व की उनकी क्षमता के आकलन के लिए इतना वक्त पर्याप्‍त है। तुलनात्मक तौर पर देखें, तो उनके भीतर न तो इंदिरा गांधी जैसी सामाजिक समझ है, न तकनीकी की ताकत से बदलाव लाने का राजीव गांधी सरीखा भरोसा और न ही सोनिया गांधी जैसी शारीरिक ताकत। यह बिल्कुल सच है कि हर अगली पीढ़ी के साथ इस परिवार का करिश्मा कम ही हुआ है। गौरतलब है कि कांग्रेस अध्यक्ष के सबसे नजदीकी टीम में कुछ बेहद शिक्षित राजनेता शामिल हैं। इनमें से कई इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली भी जरूर पढ़ते होंगे। कुछ तो इस जर्नल के लिए लिखते भी होंगे।

ऐसे में, दो सवाल उभरते हैं। क्या उनमें से किसी में इतना साहस होगा कि वह प्रोफेसर पल्शीकर का यह लेख कांग्रेस अध्यक्ष के संज्ञान में ला सके? अगर ऐसा होता है, तो क्या कांग्रेस अध्यक्ष इस लेख से सीख लेने की इच्छा और क्षमता दिखाएंगी? मुझे लगता है कि दूसरे की तुलना में पहले सवाल के सकारात्मक जवाब की उम्मीद ज्यादा कम है

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