इस समय दुनिया भर में पहले विश्व-युद्ध की शताब्दी मनाई जा रही है। इस मौके पर चंपारण के किसान सत्याग्रह की याद आ रही है, जिसके सौ बरस 2017 में पूरे होंगे। हालांकि किसानों पर जुल्म की शुरुआत इसके तीन साल पहले साल 1914 में ही शुरू हो गई थी, जब ब्रिटिश सरकार ने देश किसानों पर नील की खेती के लिए दबाव बढ़ाना शुरू किया था। वह चंपारण सत्याग्रह ही था, जिसने गांधी को महात्मा बनाया और अपने अधिकार हासिल करने का सत्याग्रह जैसा हथियार दुनिया को दिया। वैसे तो सत्याग्रह का पहला प्रयोग गांधी दक्षिण अफ्रीका में ही कर चुके थे, लेकिन सत्याग्रह जवान हुआ 1917 में चंपारण के संघर्ष में। ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के बाद नील की मांग बढ़ गई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने नीलहे साहबों को जन्म दिया, जिनके अत्याचार और शोषण की कहानी से न सिर्फ चंपारण, बल्कि संपूर्ण देश का इतिहास कलंकित हुआ। वर्ष 1914 में जर्मनी से युद्ध छिड़ जाने के बाद नील की आपूर्ति के लिए चंपारण के किसानों का शोषण दोगुना हो गया।
एक आंकड़े के मुताबिक, 1916 में लगभग 21,900 एकड़ जमीन पर आसामीवार, जिरात और तिनकठिया प्रथा लागू थी। चंपारण के रैयतों से 46 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसमें से मड़वन, फगुआही, दशहरी, सिंगराहट, घोड़ावन, लटियावन, दस्तूरी इत्यादि कर बर्बरता पूर्वक वसूले जाते थे। निलहों के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ल ने की, तो उन्हें महसूस हुआ कि यह काम मोहनदास करमचंद गांधी की सहायता के बगैर पूरा नहीं हो सकता। कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में राजेंद्र प्रसाद, ब्रज किशोर प्रसाद, राजकुमार शुक्ल और अन्य लोगों ने मिलकर चंपारण का दुखड़ा गांधी को सुनाया और नौ अप्रैल 1917 को गांधी राजकुमार शुक्ल के साथ चंपारण रवाना हुए और यह बयान दिया कि ‘एक अनपढ़, दृढ़ निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया।’ गांधी के मोतिहारी आगमन के बाद किसानों में आत्म-विश्वास पैदा हुआ और भारत की राजनीति में एक नई सुबह का संकेत मिला।
गांधीजी को धारा 144 के तहत सार्वजानिक शांति भंग करने की नोटिस भेजी गई। गांधीजी ने नोटिस का जवाब दिया, अदालत में उपस्थित हुए और रैयतों के शांतिपूर्ण सहयोग से सविनय सत्याग्रह का दौर शुरू हुआ। इस संघर्ष के सहयात्रियों में राजेंद्र बाबू, अनुग्रह नारायण सिंह, आचार्य कृपलानी ने सजग सिपाही की भूमिका निभाई। इस सत्याग्रह का ही दबाव था कि मार्च 1918 में चंपारण एग्रेरियन बिल पास हुआ और तिनकठिया सहित सारे अवैध कानून चंपारण से हटा लिए गए। चंपारण सत्याग्रह की विजय के बाद गांधीजी ने पूरी दुनिया को मुक्ति का नया मार्ग दिया। 1917 अब बहुत दूर नहीं है, हमें, और खासकर देश के किसानों को चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी मनाने की तैयारियां अभी से शुरू कर देनी चाहिए।
एक आंकड़े के मुताबिक, 1916 में लगभग 21,900 एकड़ जमीन पर आसामीवार, जिरात और तिनकठिया प्रथा लागू थी। चंपारण के रैयतों से 46 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसमें से मड़वन, फगुआही, दशहरी, सिंगराहट, घोड़ावन, लटियावन, दस्तूरी इत्यादि कर बर्बरता पूर्वक वसूले जाते थे। निलहों के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ल ने की, तो उन्हें महसूस हुआ कि यह काम मोहनदास करमचंद गांधी की सहायता के बगैर पूरा नहीं हो सकता। कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में राजेंद्र प्रसाद, ब्रज किशोर प्रसाद, राजकुमार शुक्ल और अन्य लोगों ने मिलकर चंपारण का दुखड़ा गांधी को सुनाया और नौ अप्रैल 1917 को गांधी राजकुमार शुक्ल के साथ चंपारण रवाना हुए और यह बयान दिया कि ‘एक अनपढ़, दृढ़ निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया।’ गांधी के मोतिहारी आगमन के बाद किसानों में आत्म-विश्वास पैदा हुआ और भारत की राजनीति में एक नई सुबह का संकेत मिला।
गांधीजी को धारा 144 के तहत सार्वजानिक शांति भंग करने की नोटिस भेजी गई। गांधीजी ने नोटिस का जवाब दिया, अदालत में उपस्थित हुए और रैयतों के शांतिपूर्ण सहयोग से सविनय सत्याग्रह का दौर शुरू हुआ। इस संघर्ष के सहयात्रियों में राजेंद्र बाबू, अनुग्रह नारायण सिंह, आचार्य कृपलानी ने सजग सिपाही की भूमिका निभाई। इस सत्याग्रह का ही दबाव था कि मार्च 1918 में चंपारण एग्रेरियन बिल पास हुआ और तिनकठिया सहित सारे अवैध कानून चंपारण से हटा लिए गए। चंपारण सत्याग्रह की विजय के बाद गांधीजी ने पूरी दुनिया को मुक्ति का नया मार्ग दिया। 1917 अब बहुत दूर नहीं है, हमें, और खासकर देश के किसानों को चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी मनाने की तैयारियां अभी से शुरू कर देनी चाहिए।
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