Monday, 6 July 2015

जिल्लत के खुलासे से आगे @शशि शेखर

भारतीय लोकतंत्र में अक्सर गड़े मुर्दे कब्रों से बाहर आकर गुहार लगाने लगते हैं। 'कंधार कांड' के नए खुलासे इसकी नवीनतम मिसाल हैं। 
पहले फ्लैशबैक। वह 1999 के दिसंबर की 24 तारीख थी। उस दिन काठमांडू से नई दिल्ली आ रही इंडियन एयरलाइन्स की फ्लाइट संख्या आईसी-814 को पाकिस्तान में पले-पुसे आतंकवादियों ने कब्जे में ले लिया। खबर जंगल की आग की तरह फैली और देश को जैसे सन्निपात मार गया। जहाज में 178 यात्री और क्रू के 11 सदस्य सवार थे। दिल्ली में उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, गृह मंत्री थे लालकृष्ण आडवाणी। उनकी तुलना लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल से की जाती थी (भाजपा के लोगों को पटेल बहुत पसंद हैं, मौजूदा सरकार भी उनकी प्रशंसक है)। जाहिर है, आनन-फानन में 'क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप', यानी सीएजी के सदस्य इकट्ठा हुए और इस अचानक आ पड़ी आपदा से निपटने के लिए माथापच्ची करने लगे। देश उन्हें भरोसे से देख रहा था। ऐसा भरोसा, जो टूटने के लिए बना था। 

नई दिल्ली के सुरक्षित सरकारी कक्षों में क्या हो रहा था, इसकी भनक किसी को नहीं थी। खबरिया चैनल बहुत कम थे और जो थे, उन पर मंत्री या आधिकारिक प्रवक्ता समस्या के समाधान की दिशा में आगे बढ़ने का दावा करते नजर आते। वह 'हाई वोल्टेज ड्रामा' पूरे सात दिन चला। उन दिनों संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र, यानी भारत ने खुद को पल-पल शर्मसार होते देखा। 

सबसे पहले खबर आई कि विमान अमृतसर में उतर गया है। अकुलाए-घबराए देशवासियों को लगा कि अब हम हालात पर काबू पा लेंगे। पंजाब वह प्रदेश है, जिसने लंबे समय तक आतंकवाद के दंश को झेला है। वहां पहले से प्रशिक्षित कमांडो दस्ते मौजूद थे। फिर 'नेशनल सिक्योरिटी गार्ड्स' को गुड़गांव से वहां की उड़ान भरने में खासा वक्त नहीं लगना था। कमांडो और सशस्त्र पुलिस बल के जवानों ने अमृतसर हवाई अड्डे को घेर लिया था। बस हुक्म मिलने की देर थी।
यह क्या? समाचार मिला कि 49 मिनट के विराम के बाद जहाज ने लाहौर की ओर उड़ान भर दी है। कहने की जरूरत नहीं कि अमृतसर से पाकिस्तान की सीमा हवाई जहाज के लिए कुछ मिनट दूर है और एक बार जहाज वहां पहुुंच गया, तो समझो गई भैंस पानी में। सुरक्षा और विदेशी मामलों में रुचि रखने वालों के लिए यह दोगुने अचंभे का विषय था। उन्होंने पढ़ रखा था कि भारत ने विकसित देशों की तर्ज पर ऐसे कमांडो प्रशिक्षित किए हैं, जो ऑपरेशन शुरू होने के महज 90 सेकंड में अभागे जहाज को वापस अपने कब्जे में लेने की क्षमता रखते हैं। कहां गए वे कमांडो? सवाल उभरा और आगे जन्मे हादसों की शृंखला का शिकार हो गया।

आतंकवादियों को लाहौर में रुकने की इजाजत नहीं मिली, लिहाजा उन्होंने दुबई का रुख किया। दुबई हवाई अड्डे पर उन्होंने गुड़गांव के नौजवान रूपेन कत्याल का शव रनवे पर उछाल दिया। उनकी कुछ दिनों पहले शादी हुई थी। वह नवविवाहिता के साथ हनीमून के बाद काठमांडू से लौट रहे थे। दहशत फैलाने के लिए हत्यारों ने उन्हें चुना। रूपेन को चाकू गोद-गोदकर मारा गया। हत्या का यह सबसे पीड़ादायी तरीका है। आतंकवादी इसका इस्तेमाल लोगों को अधिक से अधिक डराने के लिए करते हैं। टेलीविजन स्क्रीन पर जब हम लोगों ने परदेसी भूमि पर पड़ा रूपेन का शव देखा, तो लगा कि हमारी संप्रभुता का कत्ल कर दिया गया है। यह दर्द की शुरुआत भर थी।  बाद के दिन और जिल्लत भरे थे। 

दुबई एयरपोर्ट पर इन आतंकवादियों को शरण नहीं मिली और कुछ घंटों बाद उन्होंने फिर उड़ान भरी। भारत की हवाओं में आशंका भरा विष सनसनाने लगा। वे कहां जा रहे हैं? उनका आखिरी पड़ाव था कंधार। इन विमान अपहर्ताओं के पीछे आईएसआई के शातिर दिमाग काम कर रहे थे। उन्होंने कंधार का चयन इसलिए किया, ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। काबुल में उसकी कठपुतली तालिबान सरकार मौजूद थी। तालिबान प्रकृति से भारत विरोधी हैं और इस्लाम के नाम पर बर्बरता का ठेका उन्होंने ले रखा है। लिहाजा तात्कालिक प्रतिक्रिया का खतरा नहीं था। भारत की सीमा भी अफगानिस्तान से नहीं मिलती। अगर भारतीय वायु सेना 'एंटेबी' जैसा कोई ऑपरेशन करना चाहती, तो इसके लिए उसे पाकिस्तान, ईरान या मध्य एशिया के देशों की मदद लेनी पड़ती, जो आसान नहीं था। 9/11 के हमले से पहले दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई का माहौल नहीं था और पाकिस्तान को छोड़ भी दें, तो ईरान अथवा दुशांबे की हुकूमत भी भारत का साथ नहीं देने जा रही थी। ऐसा ही हुआ। दूसरी वजह यह थी कि रावलपिंडी के आकाओं को मालूम था कि भारत में इजरायल जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं है। दुर्भाग्य से वे सही थे। 

इस दौरान एक तमाशा और हुआ। कंधार हवाई अड्डे के तथाकथित हवाई यातायात नियंत्रण कक्ष से एक ऐसा शख्स सामने आया, जो तालिबान प्रवक्ता के तौर पर खबरिया चैनल को हिंदी में 'फोन इन' देता था। कभी धमकाता, कभी डराता, तो कभी थपकियाता वह व्यक्ति कौन था? किसने उसे 'प्रोजेक्ट' किया था? तमाम रहस्यों में एक अनसुलझा तिलिस्म यह भी है।

हम सभी जानते हैं कि 31 दिसंबर, 1999 को जब हिन्दुस्तानी जेलों में बंद तीन आतंकवादियों और तथाकथित रूप से बहुत-सारा धन लेकर तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह कंधार के लिए उड़े, तो अपहृत लोगों के परिवारों में भले ही खुशी की लहर दौड़ गई हो, पर शेष देश ने खुद के चेहरे पर स्याही पुती हुई पाई। हम शर्मसार थे, और भयभीत भी कि जब हुकूमत अतीत के अनुभवों को नजरअंदाज कर अपने नागरिकों की सुरक्षा में असमर्थ हो, तो यकीनन हमारा भविष्य अंधकारमय है। यह सुकून की बात है कि नई दिल्ली की सरकारों ने इससे सबक लिया और पिछले 15 बरस में हम अपने जहाजों को महफूज रखने में कामयाब हो सके हैं। 

इसके बावजूद तय है कि बहुत कुछ दबा-ढका और अनकहा रह गया है। गुजरे हफ्ते देश के आला खुफिया अधिकारी रहे ए एस दुलत ने यह कहकर तमाम प्रश्नों को पुनर्जन्म दे दिया कि आईसी-814 के बचाव अभियान में हमसे बड़ी गड़बडि़यां हुईं। दुलत ने सिर्फ इशारा किया है, पर यह सच है कि देश को तमाम सवालों के जवाब चाहिए। मसलन, क्या वजह थी कि सीएमजी की पांच घंटे तक बैठक चलती रही और आतंकवादी जहाज को अमृतसर से उड़ा ले गए? क्या यह सच है कि पंजाब पुलिस के तत्कालीन मुखिया सरबजीत सिंह दिल्ली और चंडीगढ़ से आदेश मांगते रह गए, पर उन्हें कार्रवाई का मौका नहीं दिया गया? क्या यह सच है कि विभिन्न सरकारी विभागों और एजेंसियों में तालमेल का अभाव था? क्या यह सच है कि विदेश मंत्रालय के अधिकारी दुबई को मनाने में नाकाम रहे कि वह अमृतसर जैसी गलती न दोहराए? क्या यह सच है कि सरकार और अन्य सियासी दलों में आवश्यक इच्छाशक्ति का अभाव था? सवाल यह भी उठता है कि क्या हमने वाकई अपनी उड़ानों को सदा-सर्वदा के लिए सुरक्षित कर लिया है? 

अफसोस! पूरे भरोसे से हम या हमारी सरकार एक छोटा-सा लफ्ज बोलने में असमर्थ हैं और वह शब्द है- हां

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