जगह– गारकॉन गांव, करगिल का बटालिक सेक्टर. साल 1999, मई के शुरुआती दिन थे.
ताशि नामग्याल अपने घर से थोड़ी दूर गुम हो गई याक को ढूंढने निकले थे कि उनकी नज़र काले कपड़े पहने हुए छह बंदूकधारियों पर पड़ी जो पत्थरों को हटा कर रहने की जगह बना रहे थे.
उन्होंने ये बात स्थानीय भारतीय सैनिकों तक पहुंचाई. जल्द ही सेना की ओर से एक दल को जांच के लिए भेजा गया. और इस तरह करगिल में घुसपैठ का पता चला.
भारतीय सेना को घुसपैठियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और शुरुआत में भारत की ओर से कहा गया कि चरमपंथियों को जल्द ही निकाल दिया जाएगा.
लेकिन जल्द साफ़ हो गया कि भारतीय सेना का सामना पाकिस्तानी सैनिकों से था.
भारतीय टेलीविज़न के इतिहास में करगिल भारत-पाकिस्तान के संघर्ष की पहली लड़ाई थी जिसकी तस्वीरें देश के घर-घर में पहुंचीं.
इस बारे में पत्रकार बरखा दत्त ने कुछ साल पहले बीबीसी से बातचीत में याद दिलाया था कि उस ज़माने में ओबी वैंस नहीं हुआ करती थीं.
उन्होंने कहा था, “जो हेलीकॉप्टर सैनिकों के शव वापस ले जाते थे, उनसे हम कहते थे कि हमारे टेप्स ले जाइए.”
घुसपैठियों ने उन भारतीय चौकियों पर कब्ज़ा किया था जिन्हें भारतीय सेना सर्दियों में खाली कर देती थी.
पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ की ख़बर भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की फरवरी 1999 की लाहौर यात्रा के चंद महीनों के बाद ही आई थी.
पाकिस्तान आखिर क्या हासिल करना चाहता था?
पाकिस्तानी सेना के पूर्व चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टॉफ़ लेफ़्टिनेंट जनरल (रिटॉयर्ड) शाहिद अज़ीज़ ने अपनी किताब 'ये खामोशी कहां तक' में करगिल में पाकिस्तानी सेना की भूमिका के बारे में विस्तार से लिखा है.
'आईएसआई को पता था?'
लेफ़्टिनेंट जनरल (रिटॉयर्ड) शाहिद अज़ीज़ ने बीबीसी से बातचीत करने से मना कर दिया.
लेकिन पाकिस्तान के जियो टीवी से बातचीत में उन्होंने कहा था, “जनरल मुशर्रफ़ ने जो मक़सद ऐलान किया था, वो ये था कि करगिल की वजह से सियाचिन की सप्लाई लाइन कट जाएगी और हिंदुस्तान की फ़ौज को हम सियाचिन से निकलने पर मजबूर कर देंगे. फिर इसकी वजह से उस पर इतना अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ेगा कि इस किस्म की जंग दो परमाणु शक्ति देशों में फैल सकती है. उस दबाव की वजह से भारत कश्मीर पर बात करने के लिए राज़ी हो जाएगा.”
हमले के वक्त लेफ़्टिनेंट जनरल शाहिद अज़ीज़ पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई में ऊंचे पद पर थे. लेकिन उन्हें भी लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर चल रही घुसपैठ पर कोई जानकारी नहीं थी.
उनके मुताबिक़, भारतीय चौकियों पर कब्ज़ा करने की योजना में मुख्य रूप से चार लोग शामिल थे- तब के सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ़, चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टॉफ़ लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अज़ीज़, लेफ़्टिनेंट जनरल जावेद हसन और लेफ़्टिनेंट जनरल महमूद अहमद.
उनके अनुसार ज़्यादातर कोर कमांडरों को भी इसके बारे में कुछ पता नहीं था.
हवाई बमबारी
लेफ़्टिनेंट जनरल शाहिद अज़ीज़ कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि आईएसआई को इस बारे में पता नहीं था. मेरा अंदाज़ा है कि गिलगित में इतनी फौज की हरकत, इतने सिपाहियों को लाना, ले जाना, आईएसआई की नज़रों से छिपा नहीं रह सकता था. मैं खुद हैरान हूं कि भारतीय इंटेलिजेंस की ये इतना बड़ी विफलता थी कि उन्हें कैसे पता नहीं चला."
भारतीय जवानों के लिए स्थिति कठिन थी. घुसपैठिए ऊंची पहाड़ियों पर भारी हथियार, गोला बारूद लेकर बैठे थे और भारतीय जवानों के लिए गोलियों की बौछार के बीच में पहाड़ियों की चोटियों पर पहुंचना बेहद चुनौतीपूर्ण था.
उस वक्त के भारतीय सेना के डॉयरेक्टर जनरल ऑफ़ मिलिट्री इंटेलीजेंस लेफ़्टिनेंट जनरल आरके साहनी बताते हैं, “अगर आज भी आप किसी को वहां लेकर जाएं तो वो अचंभा करते हैं कि क्या इतनी ऊंची पहाड़ियों पर हमला करना मुमकिन था? इस ऑपरेशन में बहुत जवान मारे गए. आप सोचिए कि एक कंपनी चल रही है जिसके अंदर 70 या 80 आदमी हों, उनमें से 30 या 40 लोग या तो मारे जाएं या घायल हो जाएं, ये संख्या बहुत ज़्यादा है. घायलों और मृत जवानों की जगह नए लोगों ने ली. उनमें ऐसा जोश था कि उन्होंने दिमाग में ठान ली है कि ऊपर जाकर रहेंगे.”
लड़ाई का दायरा फैलना शुरू हो गया था. मृत भारतीय सैनिकों की बढ़ती संख्या ने सरकार को कोई ठोस निर्णय लेने पर विवश किया. 25 मई को दिल्ली में सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति में 30 साल में पहली बार पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों के खिलाफ़ हवाई हमले का निर्णय लिया.
लेफ़्टिनेंट जनरल साहनी याद करते हैं, “विमानों की बमबारी अचूक थी. जिस तरह उन्होंने पहाड़ों पर लॉजिस्टिक बेसों को बरबाद किया उससे भारतीय सेना को बहुत फ़ायदा पहुंचा. अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीति नेतृत्व अपने आप में बेमिसाल है. मैंने उनके चेहरे पर कभी कोई शिकन नहीं देखी. मैंने उनके साथ कई मीटिंगें अटेंड की थीं. मैंने ऐसा दृढ़ विचार का नेता नहीं देखा.”
पाकिस्तान ने भारतीय हवाई हमलों को बेहद गंभीर बताया. इस दौरान दो भारतीय सैन्य विमानों को गिराया गया. परमाणु हथियारों से लैस दो देशों के बीच चल रही गोलाबारी के कारण अंतरराष्ट्रीय चिंताएं बढ़ने लगीं.
मुशर्रफ़ की महत्वाकांक्षाएं
पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर इश्तियाक़ अहमद कहते हैं, “चिंता उस वक्त ये थी कि कहीं ये इलाका न्यूक्लियर फ़्लैशप्वाइंट न बन जाए. पाकिस्तान में लोकतंत्र को देखने वाले तबके में चिंता थी. उन्हें लगता था कि अगर पाकिस्तान की तरफ़ से इस लड़ाई की शुरुआत की गई है तो ये बहुत ग़ैर-ज़िम्मेदाराना क़दम है.”
प्रोफ़ेसर अहमद के अनुसार, “जनरल मुशर्ऱफ़ की अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं. उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा 1999 के तख़्तापलट में पूरी की. नौ साल उन्होंने पाकिस्तान में शासन किया. ऐसा व्यक्ति जो ऐसे वाकये को अंजाम देता है, जिसके कारण पाकिस्तान को सैनिकों, संसाधनों का और कूटनीतिक नुक़सान पहुंचा, वही व्यक्ति जब सत्ता में आता है तो शांति वार्ता के लिए आगरा पहुंच जाता है.”
आख़िरकार भारत और पाकिस्तान बिगड़ती स्थिति को संभालने के लिए बातचीत पर सहमत हुए.
भारतीय सेना के हमलों के कारण उसकी स्थिति मज़बूत होनी शुरू हुई. भारतीय सैनिकों ने ज़बरदस्त लड़ाई के बाद घुसपैठियों को भगाते हुए तोलोलिंग, टाइगर हिल जैसी महत्वपूर्ण चोटियों पर कब्ज़ा किया.
भारतीय सैनिकों के लौटते शवों ने करगिल की लड़ाई को देश के कोने-कोने में पहुंचा दिया. जुलाई में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने वापस जाना शुरू किया. इस दौरान भारत की ओर से चीन में मौजूद जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ और लेफ़्टिनेंट जनरल अज़ीज़ खान की बातचीत के क्लिप को सबूत के तौर पर पेश किया कि पाकिस्तानी सेना इस लड़ाई में शामिल थी.
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मदद की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा न हुआ.
युद्ध का अंत
आख़िरकार 26 जुलाई को करगिल युद्ध का अंत हुआ. करगिल युद्ध का पाकिस्तान की राजनीति पर क्या असर हुआ.
प्रोफ़ेसर इश्तियाक अहमद बताते हैं, “करगिल का नतीजा पाकिस्तान के लिए शर्मनाक था. नवाज़ शरीफ़ सरकार ने भारत के साथ बेहद महत्वपूर्ण बातचीत शुरू की थी. विदेश सचिवों की बात हो रही थी. अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर आए. मीनार-ए-पाकिस्तान पर खड़े होकर उन्होंने पाकिस्तान के साथ दोस्ती की बात की. अब हम चाहते हैं कि जो उस वक्त हुआ, अब भी वही हो. अगर जनरल मुशर्रफ़ की कोई भूमिका बनती है तो कोई जवाबदेही होनी चाहिए.”
भारत में भी करगिल रिव्यू कमेटी बनी और कई सुझाव दिए गए.
लेफ़्टिनेंट जनरल साहनी कहते हैं, “समिति में सीडीएस (चीफ़ आफ़ डिफ़ेंस स्टॉफ़) की बात बोली गई थी. उसके ऊपर किसी किस्म का काम नहीं किया गया. सीडीएस की कमी का ख़ामियाज़ा भारत को भुगतना पड़ेगा.”
करगिल में मारे गए जवानों की प्रतिमाएं, उनके नाम पर पार्क आपको भारत के कोने-कोने में मिलेंगे. जब करगिल युद्ध चरम पर था तो हज़ारों गोले रोज़ दागे जाते थे.
रेड क्रॉस के मुताबिक़, इस युद्ध के कारण पाकिस्तान प्रशासित इलाकों में करीब 30,000 लोगों को अपने घर छोड़कर भागना पड़ा और भारत प्रशासित इलाकों में करीब 20,000 लोगों पर असर पड़ा.
उनमें से कई लोग आज भी करगिल युद्ध को भय और दहशत के साथ याद करते हैं.
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