एक विशिष्टता है वाराणसी की। यह विशिष्टता किसी पहचान की मोहताज नहीं है। यह हम देश के नागरिकों का दायित्व है कि इसे स्वीकार करें। अनादिकाल से एक मूल संस्कृति चली आती है। काशी ने उस सांस्कृतिक प्रवाह में अहम भूमिका अदा की है। उस समय विश्व में कोई और धर्म नहीं था। सभ्यता की उजास कहीं-कहीं दिखनी प्रारंभ हुई थी। तब की दुनिया में सिर्फ एक सर्वशक्तिमान ईश्वर हुआ करता था। वेदों के बाद के काल में काशी धर्म-संस्कृति का मुख्य पड़ाव बनी। काशी अलग है। इसीलिए कहा गया कि यह नगरी शिव के त्रिशूल पर बसी है। सिर्फ बनारसी साड़ी काशी की पहचान नहीं है। पर्यटन विकास की यहां असीम संभावनाएं हैं। कल्पना करें कि काशी सारनाथ सड़क मार्ग से कंबोडिया, बैंकाक से जुड़ गया है। अब सोचें कि बौद्ध यात्रियों की संख्या में कितनी अभिवृद्धि होगी? विकास के अनेक आयाम अभी सोचे भी नहीं गए हैं। शूलटंकेश्वर से गंगा अगर उत्तारमुखी होती हैं तो शिवकाशी के लिए ही। कोई और कारण नहीं था। भगीरथ चाहते तो सीधे निकल जाते। पर नहीं, वे ठिठके, रुके फिर उत्तार की दिशा में चलते हुए विश्वेश्वर के निकट क्षणमात्र को रुके, प्रणाम किया, बढ़ गए। पीछे गंगा का वेग था, लेकिन गंगा रुक गई, उन्हें शिव को स्पर्श जो करना था। कगार कटने लगे। चीख-पुकार मच गई। आर्तनाद सुनकर नए बन रहे तट पर शिव का आना हुआ। चरण-स्पर्श पाकर आह्लादित गंगा पुन: भगीरथ के पीछे चल पड़ीं। भगीरथ इसके बाद मंथर गति से चले। परिणामत: गंगा का पार चौड़ा होता गया।
आखिर हम अकिंचन किस प्रकार काशी का वैशिष्ट्य स्वीकार करें। काशी धर्म संस्कृति की नगरी सदा से रही है। तब भी थी जब 1193 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने हजारों मठ-मंदिरों को ध्वस्त किया और हजारों काशीवासियों का बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन कराया। उस गहन निराशा और अंधकार के काल में भी काशी की मूल जिजीविषा मृत नहीं हुई, संस्कृति की लौ जलती रही। विध्वंस होते मंदिरों की मूर्तियों को लिए काशीवासी भागते रहे, मरते रहे। कोई इतिहासकार उन बलिदानों की कथा नहीं कहता। वह श्यामवर्णीय ब्राह्मण जो ध्वंस हो रहे विश्वेश्वर मंदिर से शिवलिंग लेकर भागा, उसे थोड़ी ही दूर पर मुगल घुड़सवारों ने भालों से बींध दिया। रक्तरंजित शिवलिंग से ब्राह्मण का शव हटा शिवलिंग को चार बलिष्ठ अहीर युवक ले भागे। दो मारे गए। फिर तो यह बलिदानों की रिले रेस बन गई। ये घटनाएं लोककथाओं में जीवित हैं। फिरोज शाह तुगलक के जमाने में जब काशी में कोई मंदिर बचा ही नहीं था तब भी यह हमारी धर्म संस्कृति की नगरी रही है। अक्सर मुस्लिम बादशाहों ने मंदिर तोड़े, समाज को तोड़ा लेकिन जो समाज टूटा वह वापस नहीं लाया गया। कबीर उसी टूटे समाज की अभिव्यक्ति हैं जिसे कर्मकांडी ब्राह्मण समझ ही नहीं सके। उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। जहां चार्वाक तक का दर्शन स्वीकृत है वहां कबीर अस्वीकृत कर दिए गए। इसने विद्रोही कबीर को काशी का सच्चा प्रतिनिधि बनाया है। प्राय: सत्ताएं काशी की विरोधी रही हैं, अंग्रेजों ने अपने जमाने में नगर का सारा सीवर गंगा में खोल दिया। यह आस्थाओं पर परोक्ष हमला था।
काशी के कष्ट को मराठों ने महसूस किया। मुगल साम्राज्य के पराभव के बाद इंदौर के शासक मल्हारराव होल्कर के शासनकाल में काशी के धार्मिक-सांस्कृतिक वैभव को पुन: स्थापित करने की प्रक्रिया आरंभ हुई, जो महारानी अहिल्याबाई होल्कर के काल में शिखर पर पहुंची। तब तक अंग्रेजों का काल आरंभ हो जाता है। गुलामी के इस दूसरे दौर में अंग्रेजों ने मंदिरों को बख्स दिया। महारानी अहिल्याबाई का काल काशी के लिए संजीवनी बना, लेकिन बहुत कुछ करना रह गया था। वाराणसी को केंद्रशासित राज्य बनाने की मांग सदियों से हुए अन्याय के प्रतिकार के साथ-साथ काशी की विशिष्टता के स्वीकार का उद्देश्य भी लिए हुए है। कई मित्रों ने कहा कि यह असंभव है। इसके लिए न राज्य न केंद्र सरकार, कोई तैयार नहीं होगा। हो सकता है। लेकिन अन्य केंद्रशासित राज्य कैसे बने हैं, यह भी देख लिया जाए। 10 लाख आबादी का चंडीगढ़ केंद्रशासित राज्य सिर्फ इसलिए बन गया कि पंजाब हरियाणा के बीच स्वामित्व के विवाद को स्थगित किया जा सके।
पांडिचेरी जो 1947 से पहले फ्रेंच कालोनी था, अपनी फ्रेंच संस्कृति, वास्तु स्थापत्य की विशिष्टता की रक्षा के लिए केंद्रशासित बनाया गया। यदि तुलना करें तो हम पाएंगे कि वाराणसी को केंद्रशासित राज्य बनाने का तर्क इन दो राज्यों के लिए दिए गए तकरें की तुलना में कहीं अधिक सबल है। काशी तो एक सभ्यता का केंद्रबिंदु है। दुनिया के प्राचीनतम नगरों में से एक, विश्व के तीन महान धमरें का केंद्र यह गंगा व शिव का स्थान भी है। वेटिकन सिटी, मक्का शरीफ तो एक धर्म केहैं। यहां धमरें का उद्गम है। अब उम्मीदें जगी हैं कि काशी धर्म, संस्कृति, कला ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ते हुए आध्यात्मिक गुरु का स्थान ग्रहण करे। उम्मीदें तब भी जगी होंगी जब मुगलों केबाद मल्हारराव होल्कर का शासन आया था। फिर 50 वषरें तक अहिल्याबाई का शांतिपूर्ण उपलब्धि भरा शासन रहा। अंग्रेज आए फिर अंग्रेजों के बाद आजाद भारत में सब कुछ सेक्युलर हो गया। आज राजनीतिक दिशा परिवर्तन के साथ काशी पुन: हमारी आशाओं का केंद्र बन गई है। ये उम्मीदें सिर्फ नाली, सड़क, खड़ंजे व नागरिक सुविधाओं की मात्र नहीं है, बल्कि उस सांस्कृतिक वैभव के लिए है जो काशी ने गुप्तकाल के बाद फिर कभी नहीं देखा। नाना फड़नवीस ने टीपू सुलतान के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ इसलिए दिया कि विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण होने देने में अंग्रेज सहयोग दें। शिवाजी अपने राज्याभिषेक के लिए काशी से गागा भट्ट को बुला भेजते हैं। शेष भारत काशी और शिव को एकाकार एकरूप देखता है।
अगर काशी को वैशिष्ट्य प्रदान करने के लिए इसे केंद्रशासित प्रदेश का स्तर दिया गया तो यह काशी पर कोई एहसान न होगा, बल्कि काशी को उसका स्तर प्रदान करने की दिशा में एक प्रयास होगा। अगर ऐसा हुआ तो बहुत सी बातें अपने आप बदलनी आरंभ हो जाएंगी। काशी के प्रति नए सत्ता प्रतिष्ठान की सोच में परिवर्तन उस सांस्कृतिक पुनर्जागरण की दिशा को इंगित करेगा, जो राष्ट्र का भविष्य है।
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