Friday, 10 July 2015

खुली व्यवस्थाएं ही टिकाऊ होती हैं @फरीद ज़कारिया

सीनेट इंटेलीजेंस कमेटी द्वारा टार्चर रिपोर्ट जारी करने के समर्थक भी सहमत है कि इससे विदेशों में अमेरिकी हित प्रभावित हो सकते हैं और इसके विरोधियों को तो इसका पक्का यकीन है। सीनेटर टेड क्रूज के शब्दों में, ‘इससे जिंदगियां खतरे में पड़ेंगी, हमारे सहयोगी दूर हो जाएंगे और राष्ट्रीय सुरक्षा कमजोर होगी।’ किंतु क्या वाकई ऐसा होगा? क्या ऐसा हुआ है?
क्रूज की दलील वैसी ही है, जो हमें तत्कालीन सोवियत संघ के खिलाफ लड़े गए शीत युद्ध के दिनों में सुनाई देती थी। तब कहा जाता था कि सोवियत संघ की तुलना में अमेरिका नुकसान की स्थिति में है, क्योंकि अमेरिकी संसद, कांग्रेस की ओर से हस्तेक्षप, मीडिया में कई गोपनीय अभियानों के खुलासे और लोकतंत्र की अन्य बातों की वजह से अमेरिका को पीठ पर हाथ बांधकर लड़ना पड़ता है। दूसरी तरफ मास्को तेजी से, असरदार तरीके से और पूरी गोपनीयता के साथ घातक कार्रवाई कर सकता है। यहां तक कि शांति के पैरोकार माने जाने वाले राजनेता जॉर्ज केनन भी खेद जताते थे कि बड़े, अराजक-से लोकतंत्र में विदेश नीति चलाना कठिन ही नहीं, बहुत बड़ी बाधा है।

वास्तविकता तो यह है कि तत्कालीन साम्यवादी सोविसयत संघ ने पूरी तरह से विनाशकारी विदेश नीति चलाई। उसने इतनी निर्दयता से अपने ‘सहयोगियों’ का दमन किया कि 1980 का दशक आते-आते पूर्वी यूरोप में आस-पास के सारे देश इसके प्रति गहरा शत्रुता भाव रखने लगे। उसका कोई वास्तविक मित्र नहीं रहा। वह अमेरिका के साथ हथियारों की होड़ में लग गया, जिसमें सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 10 से 20 फीसदी लग जाता था। उसने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और ऐसे युद्ध में फंस लिया, जिसमें वह यह स्वीकार नहीं कर सकता था कि वह हार गया है। 

ये सब गलतियां ऐसी बंद व्यवस्था का नतीजा थीं, जहां कोई रोक-टोक नहीं थी। नीतियों में संतुलन लाने का कोई उपाय नहीं था। क्रेमलिन और खुफिया एजेंसी केजीबी को मनमानी करने की पूरी आज़ादी थी। उनके कामों पर कोई निगरानी नहीं रखता था।  कोई उनसे सवाल नहीं पूछ सकता था। न किसी अभियान को उजागर करने की कभी जरूरत महसूस की गई और न कोई मीडिया था, जो उनके इन कामकाजों की रिपोर्ट देता। सबकुछ चुपचाप चलता रहता था। देश को उसका क्या नतीजा भुगतना पड़ रहा है, यह देखने वाली कोई स्वतंत्र एजेंसी नहीं थी।  नतीजा यह हुआ कि गलतियां दोहराई जाती रहीं और आखिर में पूरे तंत्र की ही कमर टूट गई।

अमेरिका ने भी शीतयुद्ध में अपने हिस्से की गलतियां कीं, लेकिन चूंकि विरोध-विवाद, पारदर्शिता और अवरोध व संतुलन की लोकतांत्रिक व्यवस्था थी तो कई गलतियां समय रहते उजागर हो गईं। नया प्रशासन अपना सम्मान कायम रखते हुए नीतियों में तेजी से  बदलाव ला सका। चुनाव बाद आए नए प्रशासन के लिए गलतियां सुधारकर नीतियों को पटरियों पर लाना सामान्य प्रक्रिया की बात थी। हालांकि, कई अधिकारी पूराने मेटरनिच (ऑस्ट्रिया के राजनयिक, जो खुद ही सारे फैसले लेकर विदेश नीति चलाते थे) मॉडल के अतीत मोह में डूबे नजर आते हैं, लेकिन दुनिया में ब्रिटेन व अमेरिका जैसी बड़ी, शोर-गुल और वाद-विवाद वाली लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं ही टिकी हैं, नाजी जर्मनी, साम्राज्यवादी जापान या सोवियत संघ की नहीं।

दिवंगत सीनेटर डेनियल पैट्रिक मोयनिहान ने 1998 में इस विषय पर अपनी पुस्तक में लिखा था, ‘यह कहा जा सकता है कि....गोपनीयता तो हारने वालों के लिए होती है। खुलापन अब एकमात्र अमेरिकी फायदे की स्थिति है।’ बंद व्यवस्थाएं बहुत बुरी तरह काम करती हैं। खुली व्यवस्थाओं को फीड बैक हासिल करने का बहुत बड़ा फायदा मिलता है। आलोचना, टिप्पणियां, लेखा परीक्षण, रिपोर्ट इन सब से फीडबैक मिलता है। इससे सही-गलत की पहचान मिलती है। आगे की योजना के लिए दृष्टि साफ होती है।

सीआईए दावा करती है कि न्यूयॉर्क के ट्विन टावर्स पर हुए हमले के बाद चलाए गए कार्यक्रम बहुत अच्छे चले और उसने जताया है कि इसका सबसे अच्छा आकलन तो खुद को ही करना चाहिए। सीनेट रिपोर्ट एक वैकल्पिक दृष्टिकोण उपलब्ध कराती है, जिसमें काफी सबूत और दलीलें होती हैं। यह बहस सीआईए को बेहतर बनाएगी, खराब नहीं। नेशनल सिक्यूरिटी एजेंसी (एनएसए) की व्यापक स्तर पर की गई जासूसी उजागर होने से वह उसे बदलकर ऐसे कार्यक्रम चलाने पर बाध्य होगी, जो असरदार और औचित्यपूर्ण होंगे। ऐसा कौन सा संगठन है, जो खुद ही अपने कामकाज का एकमात्र जज होने से फायदे में रहा है? लोकतांत्रिक जवाबदेही सरकारी एजेंसी के लिए खरी परीक्षा होती है। इससे बाहर से अंकुश लगता है, जो अन्यथा लगाया नहीं जा सकता।

कांग्रेस द्वारा कोई बात उजागर किए जाने से अमेरिकी विदेश नीति को नुकसान पहुंचने के आरोप की परीक्षा करना हो तो इसके लिए आदर्श उदाहरण चर्च कमेटी का होगा। कई लोग इस बात पर पक्का यकीन करते हैं कि 1975 में वाटरगेट कांड के बाद गठित इस समिति ने सीआईए को नष्ट कर दिया और अमेरिका को कमजोर बना दिया। किंतु इसने उजागर क्या किया था? यह कि सीआईए ने तीसरी दुनिया के कई देशों के नेताओं की हत्या का प्रयत्न किया था। यही कि प्राय: इसके नाकाम अभियानों के कारण दशकों तक उलटे परिणाम भुगतने पड़े, कि इसने अपनी गलतियां छिपाईं। यह कि इस खुफिया एजेंसी ने अपने ही नागरिकों की जासूसी की।

उसके बाद जो सुधार आए उनमें हत्याओं पर रोक लगा दी गई। खुफिया एजेंसियां कांग्रेस व न्यायिक निगरानी में आईं और छद्‌म अभियानों पर भी राष्ट्रपति की मंजूरी जरूरी हो गई ( ताकि जवाबदेही तय हो सके)। एफबीआई डायरेक्टर के कार्यकाल की अवधि तय हो गई (ताकि कोई व्यक्ति जे.  एडगर हूवर की तरह चार दशकों तक अपने पद का दुरुपयोग न कर सके)। ये सारे कदम कितने समझदारीभरे थे, यह इसी से पता चलता है कि आज तक इनका किसी स्तर पर कभी विरोध नहीं हुआ। जहां तक वृहद नतीजों की बात है, चर्च कमेटी के कुछ वर्षों बाद अफगानिस्तान में विद्रोह, पूर्वी यूरोप में असंतोष और सोवियत रूस की नाकामी इन सब ने सोवियत साम्राज्य को ढहा दिया। इस सब में अमेरिकी खुफिया सेवाएं सहायक रही थीं। आज जब पारदर्शिता के खिलाफ चेतावनी सुनाई दे तो यह सब याद रखा जाना चाहिए।

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