Friday, 31 July 2015

थरूर में कुछ है तो जरूर @विकास बहुगुणा

महज छह साल के राजनीतिक जीवन में जितने विवाद शशि थरूर के साथ जुड़े उनके बाद तो किसी भी राजनेता का करियर रसातल में जा सकता था. लेकिन थरूर आज भी मजबूती से खड़े हैं.
1977 की बात है. अमेरिका में पढ़ रहा 21 साल का एक छात्र इंदिरा गांधी से मिलने अमेरिका से दिल्ली आया. टफ्ट यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे इस छात्र को इंदिरा गांधी के शासनकाल पर एक थीसिस लिखनी थी. उसकी किस्मत अच्छी थी. पूर्व प्रधानमंत्री के पास अचानक कुछ फुरसत हो गई थी क्योंकि आपातकाल विरोधी लहर ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था. इस छात्र को इंदिरा गांधी के साथ कई घंटे बिताने और उनसे लंबी बात करने का मौका मिला.
इंदिरा गांधी को भारत में अब तक हुए सबसे बड़े राजनेताओं में से एक माना जाता है. उन्होंने राजनीति के सबक महात्मा गांधी और अपने पिता जवाहरलाल नेहरू जैसे दिग्गजों से सीखे थे. 1977 में इंदिरा गांधी के साथ घंटों बिताने वाले उस छात्र का अगले 38 साल का सफर देखा जाए तो लगता है कि उसने भी अपनी लंबी मुलाकात के दौरान इस हस्ती से कुछ सबक सीख लिए थे. उस छात्र का नाम शशि थरूर था.
1977 में इंदिरा गांधी के साथ घंटों बिताने वाले उस छात्र का अगले 38 साल का सफर देखा जाए तो लगता है कि उसने भी अपनी लंबी मुलाकात के दौरान इस हस्ती से कुछ सबक सीख लिए थे
कई मानते हैं कि इनमें सबसे अहम सबक तो नेतृत्व का ही रहा होगा. इसका इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि 1978 में एक साधारण स्टाफ मेंबर के तौर पर संयुक्त राष्ट्र से जुड़ने वाले थरूर महज 23 साल में ही इस प्रतिष्ठित संस्था में अंडर सेक्रेटरी जनरल जैसे शीर्ष पद तक जा पहुंचे. यही नहीं, 2006 में जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पद का चुनाव हुआ तो सबको चौंकाते हुए भारत ने उन्हें अपना आधिकारिक उम्मीदवार घोषित किया. हालांकि थरूर जीत से कुछ कदम दूर रह गए. अगर वे जीत जाते तो उनके नाम संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में सबसे कम उम्र का महासचिव बनने का रिकॉर्ड होता.
वैसे शशि थरूर के बारे में उपलब्ध जानकारियां खंगाली जाएं तो उनके व्यक्तिव की एक दिलचस्प तस्वीर उभरती है. उनमें एक तरफ ऐसी बहुत सी खासियतें हैं जो उन्हें मौजूदा दौर की राजनीति के लिए बेहद अनुकूल नेताओं की जमात में खड़ा करती हैं. दूसरी तरफ उनकी शख्सियत के कई पहलू ऐसे भी हैं जो इससे ठीक उलट निष्कर्ष देते दिखते हैं.
2006 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव का चुनाव हारने के बाद शशि थरूर ने संयुक्त राष्ट्र को अलविदा कहने का मन बना लिया था. हालांकि नए महासचिव बान की मून ने उन्हें संयुक्त राष्ट्र से जोड़े रखने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को अलविदा कहने का मन बना लिया था. 2007 में उन्होंने ऐसा ही किया. इसके बाद एक साल तक उन्होंने अध्ययन-अध्यापन और कुछ अन्य कार्य किए और फिर हमेशा के लिए भारत आ गए. तब तक अटकलें लगने लगी थीं कि वे कांग्रेस में आ सकते हैं. ये अटकलें तब सही साबित हुईं जब कांग्रेस ने उन्हें 2009 में तिरुवनंतपुरम से लोकसभा का टिकट दिया. इस तरह 53 साल की उम्र में थरूर ने भारतीय राजनीति में अपनी नई पारी की शुरुआत की. यह शानदार रही. उन्होंने न सिर्फ अपना पहला ही चुनाव करीब एक लाख वोटों से जीता बल्कि यूपीए-2 में विदेश राज्य मंत्री भी बन गए.
संयुक्त राष्ट्र में उनके शुरुआती दिनों के कई साथी याद करते हैं कि कैसे दफ्तर की बैठकों से लेकर महत्वपूर्ण लोगों से भरी पार्टियों तक वे हर जगह दिख जाते थे और इस दौरान वे हमेशा किसी न किसी से बात कर रहे होते थे
शशि थरूर और बान की मून
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के साथ
एक नए राजनेता के लिहाज से देखा जाए तो यह एक असाधारण बात थी. लेकिन थरूर लंबे समय से इसकी तैयारी कर रहे थे. उनके बारे में कहा जाता है कि वे संपर्क बनाने में माहिर हैं. संयुक्त राष्ट्र में उनके शुरुआती दिनों के कई साथी याद करते हैं कि कैसे दफ्तर की बैठकों से लेकर महत्वपूर्ण लोगों से भरी पार्टियों तक वे हर जगह दिख जाते थे और इस दौरान वे हमेशा किसी न किसी से बात कर रहे होते थे. कहा जाता है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था में एक अहम पद के रसूख के चलते थरूर ने दिल्ली की सत्ता के गलियारों में भी खूब संपर्क विकसित किए थे जिनका फायदा उन्हें हमेशा मिलता रहा. यूपीए-2 के दौरान उन्हें मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का नजदीकी माना जाता था. कई मौकों पर यह बात दिखी भी. उदाहरण के लिए जब 2012 में संसद ने अपनी स्थापना के 60 साल पूरे किए और इस मौके पर एक विशेष परिचर्चा आयोजित हुई तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सदन में सत्ता पक्ष के नेता प्रणब मुखर्जी के अलावा कांग्रेस से सिर्फ थरूर ही थे जिन्हें लोकसभा को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था.
भारतीय राजनीति के महासागर में बड़ा गोता लगाने के लिए थरूर और एक दूसरे मोर्चे पर भी समीकरण साध रहे थे. 2001 से भारत के बड़े-बड़े अखबारों में उनके लेख छपने शुरू हो गए थे. इन अखबारों में द हिंदू से लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे नाम शामिल थे. कुशल वक्ता तो वे थे ही. इन सब बातों के चलते धीरे-धीरे उनका एक बौद्धिक आभामंडल भी बन गया. चूंकि उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी और बहुदेशीय संस्था में काम किया था इसलिए भी राजनीति और विदेश मंत्रालय की उनकी भूमिकाओं को लेकर उनकी पार्टी और देश को उनसे काफी उम्मीदें थीं.
लेकिन जल्द ही इन उम्मीदों को झटके लगने शुरू हो गए. सरकार बनने के कुछ ही समय बाद जुलाई 2009 में शशि थरूर के एक बयान ने विवाद खड़ा कर दिया. दरअसल मिश्र के शर्म-अल-शेख में भारत-पाक के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और युसूफ रजा गिलानी के बीच बातचीत हुई थी. परंपरा के मुताबिक इसके बाद एक संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ. इस वक्तव्य के कुछ बिंदुओं पर जब देश में हंगामा हुआ तो थरूर ने जो कहा उसका मजमून यह था कि यह बस कागज का एक टुकड़ा है जिसका कोई खास महत्व नहीं है. उनकी इस टिप्पणी पर एक नया हंगामा खड़ा हो गया. पाकिस्तान ने भी इस पर ऐतराज जताया. थरूर को सफाई देनी पड़ी. यह विवाद ठंडा पड़ा ही था कि सितंबर 2009 में थरूर को लेकर एक और विवाद खड़ा हो गया. खबरें आईं कि थरूर काफी समय से अपने आधिकारिक निवास की जगह फाइव स्टार होटल में रह रहे हैं. थरूर ने यह कहकर अपना बचाव किया कि उन्हें आधिकारिक निवास मिलने में देर हो रही है और फाइव स्टार होटल में रहने का खर्च – करीब 40 हजार रुपये प्रतिदिन – वे अपनी जेब से दे रहे हैं. हालांकि प्रणब मुखर्जी के कहने के बाद उन्होंने होटल का अपना सुइट छोड़ दिया.
आज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सोशल मीडिया मैनेजमेंट की तारीफ होती हो, लेकिन थरूर उनके काफी पहले ही सोशल मीडिया को साध चुके थे
इसके तुरंत बाद थरूर ने एक और विवाद को जन्म दिया. उन दिनों दुनिया मंदी से जूझ रही थी. सरकारी खर्च में कटौती के मकसद से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी नेताओं से फ्लाइट की इकॉनॉमी क्लास में सफर करने की अपील की. सोनिया गांधी और पार्टी के कई बड़े नेताओं ने ख़ुद ऐसा किया लेकिन थरूर ने इस पर व्यंग्य करते हुए इसे कैटल क्लास यानी ‘भेड़ बकरियों’ की क्लास कह दिया. इस बयान के बाद अशोक गहलोत जैसे बड़े नेताओं ने थरूर के ख़िलाफ कार्रवाई की मांग की. उधर, थरूर ने सफाई दी कि उन्होंने इकॉनॉमी क्लास में चलने वाले आम आदमी पर नहीं बल्कि एयरलाइंस पर कटाक्ष किया था.
थरूर और विवादों का यह सिलसिला लगातार जारी है. गांधी जयंती पर छुट्टी का विरोध, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आलोचना, अपने पद के प्रभाव का इस्तेमाल कर आईपीएल की एक फ्रेंचाइजी में अपनी मित्र (जो बाद में उनकी पत्नी बनीं) सुनंदा पुष्कर को हिस्सेदारी दिलाने का आरोप, पूर्व पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के साथ अफेयर की खबरें, सुनंदा पुष्कर की मौत, नरेंद्र मोदी की प्रशंसा और संसद को न चलने देने के कांग्रेस के रुख से असहमति की खबरों तक यह सूची खासी लंबी है.
कोई भी कह सकता है कि कांग्रेस की फजीहत करवाने वाले इतने सारे विवादों के बाद तो थरूर के राजनीतिक करियर को रसातल में चला जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ज्यादातर विवाद ऐसे रहे जिनमें थरूर की सफाई के बाद मामला खत्म हो गया. आईपीएल फ्रेंचाइजी विवाद के चलते उन्हें विदेश राज्य मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन दो साल बाद ही वे मानव संसाधन विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री के रूप में कैबिनेट में वापस आ गए. 2014 के आम चुनाव में जब कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गई तब भी उन्होंने लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीत लिया. बीते साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने के बाद कांग्रेस ने उन्हें प्रवक्ता के पद से हटा दिया था. लेकिन ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उनके जोरदार भाषण ने उन्हें फिर से एक हीरो के तौर पर स्थापित कर दिया. अब याकूब मेनन की फांसी से असहमति जताते अपने एक ट्वीट से वे फिर से एक वर्ग के बीच आलोचना के पात्र बन गए हैं.
कुछ यह भी कहते हैं कि वे राजनेताओं के उस कुलीन वर्ग का हिस्सा हैं जो कभी आम जनता से सीधे नहीं जुड़ सकता. उनके कैटल क्लास जैसे ट्वीट आलोचकों के इस आरोप को वजन देते दिखते हैं
यह भी दिलचस्प है कि कुछ दिन पहले ही अपनी पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी से उन्हें झिड़की मिली तो विरोधी पार्टी से ताल्लुक रखने वाले नरेंद्र मोदी से तारीफ. दरअसल सोनिया गांधी उन खबरों से नाराज थीं जिनमें कहा गया था कि थरूर की राय कांग्रेस के उस रुख से अलग है जिसके तहत पार्टी ने ऐलान कर रखा है कि ललित मोदी प्रकरण पर सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे का इस्तीफा होने तक वह संसद नहीं चलने देगी. उधर, मोदी ने थरूर की तारीफ ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दिए गए उनके उस भाषण के लिए की जिसमें उन्होंने प्रभावशाली तर्कों के साथ कहा था कि ब्रिटिश राज ने भारत का काफी नुकसान किया और ब्रिटेन को इसकी भरपाई करनी चाहिए. मोदी का कहना था कि थरूर के शब्द भारतीयों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस तारीफ के बाद थरूर ने मोदी का धन्यवाद तो किया लेकिन सचेत रहते हुए बाद में यह कहना नहीं भूले कि कांग्रेस अब भी इस्तीफे की मांग पर कायम है.
दरअसल थरूर एक ऐसे राजनेता हैं जो अपने समय के सांचों में जितना फिट है उतना ही मिसफिट भी. संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में शरणार्थी समस्या से लेकर शांति अभियानों से जुड़ी संस्था की कई गतिविधियों का नेतृत्व किया है इसलिए वे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की पेचीदगियों को अच्छे से समझते हैं. इसके चलते कई मानते हैं कि तेजी से ग्लोबल विलेज में तब्दील हो रही दुनिया में थरूर भारत के लिए एक जरूरी राजनेता हैं.
थरूर समय के साथ चलने में भी माहिर हैं. आज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सोशल मीडिया मैनेजमेंट की तारीफ होती हो, लेकिन थरूर उनके काफी पहले ही सोशल मीडिया को साध चुके थे. कुछ समय पहले तक ट्विटर पर सबसे ज्यादा फॉलोअर्स रखने वाली राजनीतिक हस्तियों की सूची में वे पहले नंबर पर थे. बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही उन्हें पीछे छोड़ा. इसके अलावा वे दर्जन भर किताबें लिख चुके हैं जिनमें से कई खासी चर्चित रही हैं. कुल मिलाकर उनकी बौद्धिक मेधा, वाकपटुता और दोस्त बनाने की कला के चलते कई मानते हैं कि वे आज की राजनीति की जरूरत हैं. शायद यही वजह है कि उनके फेसबुक पन्ने पर ऐसी कई टिप्पणियां दिख जाती हैं जिनमें उन्हें कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने की सलाह दी जाती है जहां उनका ज्यादा सम्मान हो सकता है.
लेकिन यही शशि थरूर आज की उस राजनीति में मिसफिट भी दिखते हैं जिसमें संतुलन या असहमति की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है. यही वजह है कि वे नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान की तारीफ करते हैं तो उनकी पार्टी की केरल इकाई हाईकमान से उनकी शिकायत करती है और उन्हें प्रवक्ता पद से हटा दिया जाता है. वे संसद न चलने देने के कांग्रेस के रूख से असहमति जताते हैं और उनके अपनी पार्टी की अध्यक्ष से झिड़की सुनने की खबर आती है. याकूब मेमन की फांसी पर उनके ट्वीट के बाद थरूर के आलोचक जमीनी राजनीति के अनुभव की कमी को भी उनकी खामी के तौर पर गिनाते हैं. कुछ यह भी कहते हैं कि वे राजनेताओं के उस कुलीन वर्ग का हिस्सा हैं जो कभी आम जनता से सीधे नहीं जुड़ सकता. उनके कैटल क्लास जैसे ट्वीट आलोचकों के इस आरोप को वजन देते दिखते हैं.
फिर भी थरूर खुद को लगातार प्रासंगिक बनाए हुए हैं तो आखिर में यही कहा जा सकता है कि उनमें कुछ खूबियां हैं जरूर जो उनकी खामियों पर भारी पड़ जाती हैं.

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