वर्ष 2002 में अटल बिहार वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में एक बहुत बड़ा प्रश्न था कि अगला राष्ट्रपति कौन होगा? मैं उस वक्त पीएमओ में मंत्री था। अटलजी से अनौपचारिक बातचीत में जो नाम उभर रहे थे, उनमें महाराष्ट्र के गर्वनर पीसी एलेक्जेंडर का नाम प्रमुख था। वह एक विद्वान व्यक्ति थे। राजग के लगभग सभी घटक उनके नाम पर सहमत थे। इन सबके चलते यह लगा कि कांग्रेस को भी उनके नाम पर आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि वह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रधान सचिव रह चुके थे तथा कांग्रेस सरकार के चलते ही महाराष्ट्र के गर्वनर नियुक्त हुए थे। राजग सरकार ने उनकी योग्यता और कार्यकुशलता को देखकर राज्यपाल पद पर उनकी पुन: नियुक्ति की थी।
मैं जब उनसे मिलने गया तो वह बहुत उत्साहित थे और उन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव का गणित भी जोड़ रखा था। उनसे मिलने के बाद मैंने अपनी और एलेक्जेंडर की बातचीत का ब्यौरा प्रधानमंत्री वाजपेयी को दिया। प्रधानमंत्री ने कहा कि स्वयं कांग्रेस उनके नाम का विरोध कर रही है। बाद में पता चला कि कांग्रेस उनका विरोध इसलिए कर रही थी कि एलेक्जेंडर ने बिना उनसे पूछे राज्यपाल के पद पर राजग सरकार के कहने पर अपनी नियुक्ति पर सहमति क्यों दी?
वाजपेयी चाहते थे कि राष्ट्रपति का चुनाव आम सहमति से होना चाहिए। ऐसे में डॉ. कलाम का नाम हम लोगों के सामने आया। शुरू में सबको ऐसा लगा कि क्या ये व्यक्ति राष्ट्रपति पद जैसे दायित्व को निभा पाएगा? या देश उनको नए अवतार में स्वीकार कर पाएगा? सच पूछिए तो वाजपेयीजी उनकी वैज्ञानिक क्षमता, उनकी लोकप्रियता, विद्वता से प्रभावित थे। फिर वह मुस्लिम समुदाय से भी आते थे, इसका भी एक 'संदेश" था। ऐसे में वह वाजपेयी की पहली पसंद बने। इस फैसले पर लोगों के भिन्न्-भिन्न् मत थे, जिनसे मैं वाजपेयी को अवगत कराता रहता था। पर वाजपेयी वाजपेयी थे। जब एक बार फैसला कर लेते थे तो उस पर अडिग रहते थे।
10 जून, 2002 को अटलजी ने कलाम साहब से उनकी सहमति के लिए औपचारिक बात की, जिसमें उन्होंने दो घंटे का समय लिया और अपनी सहमति दे दी। प्रधानमंत्री ने मुझे चेन्न्ई में अब्दुल कलाम से मिलने के लिए भेजा। मैं जब 15 जून, 2002 को चेन्न्ई में अन्ना यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में पहुंचा तो बड़ी प्रसन्नता से वह मुझसे मिले। हमने देर तक बातचीत की। मैंने देखा कि वह सिर्फ एक वैज्ञानिक, मिसाइलमैन या एक नीरस व्यक्ति न होकर एक ऐसे व्यक्ति थे, जो देश के लिए सपने देखते थे, युवाओं और गरीबों के लिए कुछ करना चाहते थे। उन्होंने कहा कि वह अपनी रिसर्च और पढ़ाने के शौक को राष्ट्रपति बनने के बाद भी जारी रखना चाहेंगे। वह कहते थे कि देश को 'रोल मॉडल्स" की जरूरत है, जिनमें रचनात्मक समझ हो और ऐसा नेतृत्व जो युवाओं को प्रेरित कर सके।
मैंने जब उनसे पूछा कि राष्ट्रपति जैसे बड़े पद की इतनी जिम्मेदारियों को वह कैसे निभा पाएंगे तो वह बोले कि उनको दिन में 18 घंटे काम करने की आदत है। मेरी 40 मिनट की मीटिंग में कलाम साहब ने कहा कि देश के निर्माताओं के दो विजन थे। पहला, देश को विदेशियों के चंगुल से निकालना और दूसरा, उसके बाद देश का विकास। हमारे देश में संसाधनों व प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है, पर जिसकी आवश्यकता है, वह है ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक एवं सृजनात्मक काम।
डॉ. कलाम वाजपेयी के पहले से ही प्रशंसकों में रहे थे। विशेषकर 1998 में परमाणु शस्त्रों के विस्फोट के निर्णय लेने पर वह उनके और ज्यादा प्रशंसक बने। राष्ट्रपति बनने से पहले कलाम प्रधानमंत्री वाजपेयी से मिलने 17 जून, 2002 को दिल्ली आए। मैंने देखा कि प्रधानमंत्री शिष्टाचार के नाते उनके स्वागत के लिए अपने कमरे से बाहर आए। ये मीटिंग काफी देर तक चली। प्रधानमंत्री ने मुझे उनका नामांकन पत्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। इस नए काम से मैं बहुत प्र्रफुल्लित था। यह तय हुआ कि यह नामांकन पत्र मेरे तत्कालीन निवास महादेव रोड पर तैयार होगा। प्रमुख रूप से जिन नेताओं को इस काम में लगाया गया था, उनमें प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू, डॉ. मुरली मनोहर जोशी इत्यादि थे। प्रमोद महाजन इस सारे काम का संयोजन कर रहे थे।
18 जून, 2002 को नामांकन भरने के बाद उन्होंने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस की थी, जिसमें बड़ी बेबाकी से गुजरात, अयोध्या, परमाणु विस्फोट इत्यादि विषयों पर जवाब दिए। उन्होंने कहा कि भारत को एक ऐसा शिक्षित राजनीतिक वर्ग चाहिए, जो सही और सार्थक निर्णय लेने में सक्षम हो। अयोध्या के संदर्भ में उन्होंने कहा कि जरूरत है शिक्षा, आर्थिक विकास और मनुष्यों के एक-दूसरे के प्रति सम्मान की।
18 जुलाई, 2002 को राष्ट्रपति चुने जाने के बाद मैं समय-समय पर उनसे मिलता रहा। एक मुलाकात में जब मैंने उनको बताया कि चांदनी चौक से सांसद होने के नाते किस तरीके से मैंने एमसीडी स्कूलों का सुधार किया है तो उन्होंने वहां आने की इच्छा व्यक्त की और प्रशंसा की कि ये बहुत अच्छा काम है। इसके बाद उन्होंने चिट्ठी भी भेजी। यह और बात है कि सुरक्षा कारणों से वहां आने का उनका कार्यक्रम नहीं बन पाया। वह दिनोंदिन लोकप्रिय होते जा रहे थे। राष्ट्रपति भवन में भी वह अपने पढ़ाने के क्रम को जारी रखे हुए थे। जो वह कहते थे, उन्होंने कर दिखाया और वह पूरे देश के 'रोल मॉडल" बन गए।
मुझे याद है कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के मेरे पुराने कॉलेज - श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में आए थे। श्रीराम कॉलेज का पुराना स्टूडेंट होने के नाते मुझे भी निमंत्रित किया गया था। हॉल खचाखच भरा था। छात्र-छात्राओं में उनकी एक झलक पाने की होड़ लगी हुई थी। 'मिसाइलमैन" आया। बहुत समय तक वह विद्यार्थियों के प्रश्नों के जवाब देते रहे। कार्यक्रम खत्म होने के बाद उनके प्रति जो 'क्रेज" मैंने वहां देखा, वह अविस्मरणीय था।
प्रोटोकॉल के चलते राष्ट्रपति बनने के बाद वह प्रधानमंत्री के यहां नहीं आ सकते थे। प्रधानमंत्री समय-समय पर उनसे मिलते।
जो लोग ये सोचते थे कि कलाम को कोई भी अपने हिसाब से चला लेगा, वे गलत थे। किसी भी संवैधानिक मतभेद पर वह कानूनी राय लेते थे और उसके बाद ही वह संबंधित पार्टियों के नेताओं से बड़े विश्वास से बात करते थे। एक राष्ट्रपति के रूप में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है। ऐसे कितने नेता बचे हैं, जिनके चित्र गांधी, सुभाष, पटेल की तरह अपने घर में लगाने का लोगों का मन करता है तो मैं कहूंगा कि डॉ. कलाम ऐसे ही हैं।
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