Wednesday, 22 July 2015

खुफिया इतिहासकार क्रिस्टोफर एंड्रयू और वासिली मित्रोखिन @बलबीर पुंज

खुफिया इतिहासकार क्रिस्टोफर एंड्रयू और वासिली मित्रोखिन के संयुक्त प्रयास से दुनिया भर के देशों में केजीबी द्वारा चलाए गए खुफिया अभियानों का खुलासा 2005 में प्रकाशित पुस्तक-मित्रोखिन आर्काइव में किया गया था। बाद में इसका दूसरा खंड भी प्रकाशित हुआ। वासिली मित्रोखिन केजीबी के अभिलेखागार में वरिष्ठ संग्राहक थे। 1972 से 1984 के बीच प्राय: प्रतिदिन केजीबी के अत्यंत गोपनीय दस्तावेजों को वह अपने साथ चोरी-छिपे बाहर लाते रहे। सेवानिवृत्तिके बाद उन्होंने ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी एसआइएस से डील कर दस्तावेजों के बदले में लंदन में शरण ले ली। शीत युद्ध के दौरान केजीबी की सक्रियता भारत में सर्वाधिक थी। स्टालिन भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पिट्ठू समझते थे। स्टालिन ने गांधीजी को स्वतंत्रता सेनानी के भेस में लोगों से विश्वासघात करने वाला बताया था। वह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के भी मुखर आलोचक थे। स्टालिन के विरोधी रवैये के बावजूद पंडित नेहरू का अटूट विश्वास था कि सोवियत क्रांति ने मानवता की बड़ी सेवा की है। किंतु कटु सत्य यह है कि 1950 के प्रारंभिक वषरें तक इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी के लिए मास्को से जो भी आदेश-निर्देश आता था उसमें नेहरू सरकार को यथाशीघ्र उखाड़ फेंकने की बात होती थी।

एक ओर पंडित नेहरू आश्वस्त थे, वहीं मित्रोखिन के अनुसार मास्को स्थित भारतीय दूतावास में केजीबी के गुप्तचरों की पैठ बढ़ती ही जा रही थी। सुरा और सुंदरियों के मायाजाल में दूतावासकर्मी केजीबी के मोहरे बन रहे थे। मास्को ने नेहरू के विश्वासपात्र सलाहकार और विचारधारा से कम्युनिस्ट कृष्ण मेनन को प्रोत्साहित करना शुरू किया, जो साल 1957 में देश के रक्षा मंत्री बने। कृष्ण मेनन के दौर में ही देश के रक्षा उपकरणों की खरीद नीति पश्चिम से हटकर सोवियत संघ पर केंद्रित हुई। अक्टूबर, 1962 में चीन के हाथों भारत को शर्मनाक पराजय का मुंह देखना पड़ा। नेहरू और कम्युनिस्ट मेनन चीन की विस्तारवादी कुटिलता के मूकदर्शक बने रहे। मेनन ने खुफिया सूचनाओं के बावजूद सेना को साधनविहीन रखा। भारी दबाव में नेहरू को मेनन को हटाना पड़ा। सोवियत संघ ने मेनन को दोबारा बहाल करने के लिए उनके पक्ष में प्रचार अभियान छेड़ा। अखबार वालों को धन देकर मेनन की तारीफ में लेख प्रकाशित कराए गए। मित्रोखिन के अनुसार भारत के दस बड़े प्रकाशन समूह केजीबी के पेरोल पर थे, जो केजीबी के हितों के अनुकूल लेख प्रकाशित करते थे। जनवरी, 1966 में लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। कांग्रेस ने नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री के लिए आगे किया, जिसे केजीबी ने 'वानो' का छद्म नाम दिया था। केजीबी को विश्वास था कि 'वानो' को अपनी शतरें पर काम करने के लिए तैयार कर लेगा। नवंबर, 1969 में कांग्रेस दोफाड़ हुई और कांग्रेस अस्तित्व में आई। मित्रोखिन लिखते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अब 'दरबार संस्कृति' पैदा होने लगी। पार्टी का एक धड़ा मानता था कि इंदिरा गांधी देश को सोवियत संघ के हाथों बेचने पर आमादा हैं और मास्को और सोवियत दूतावास के बीच संपर्क सूत्र के रूप में अपने मुख्य सचिव परमेश्वर नारायण हकसर का उपयोग कर रही हैं।

1970 के दशक के प्रारंभ में ही भारत के सत्ता अधिष्ठान में केजीबी का पूरा दबदबा कायम हो चुका था। ओलेग कालूजिन जो बाद में काउंटर इंटेलिजेंस का मुखिया बना, तत्कालीन भारत को याद करते हुए कहता है कि तब सरकार, खुफिया विभाग, रक्षा, विदेश मंत्रालय और पुलिस में उसके सैकड़ों विश्वस्त संपर्क सूत्र काम कर रहे थे। एक मंत्री ने 50,000 डॉलर के बदले में अहम जानकारी देने का वादा किया था। कालूजिन के अनुसार ऐसा लगता था कि पूरा देश बिकने को तैयार है। उसके मुताबिक स्वयं इंदिरा गांधी के यहां नियमित रूप से नोटों से भरे सूटकेस भेजे जाते थे। केजीबी पर विश्वास का यह नतीजा था कि इंदिरा भारत में होने वाली किसी भी गड़बड़ी के लिए सीआइए को कसूरवार बताती थीं। इस मानसिकता के विरोध में पीलू मोदी 'मैं सीआइए एजेंट हूं' की तख्ती लगाकर संसद पहुंचे थे।

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