इस बात का पर्याप्त साहित्य मौजूद है कि दूसरे देशों से आए अप्रवासियों ने आधुनिक शहरों के सांस्कृतिक विकास में क्या भूमिका निभाई है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे और रिचर्ड राइट से लेकर जेम्स बाल्डविन और एडमंड व्हाइट जैसे अमेरिकी लेखकों ने जिस तरह से पेरिस में अपना कुछ सर्वश्रेष्ठ काम किया, इस पर भी तमाम किताबें लिखी जा चुकी हैं। वहीं कुछ दूसरी किताबें बताती हैं कि आज जो लंदन दिखता है, उसके पीछे ऑर्थर कोएस्टलर, सेबेस्टियन हाफनर और जॉर्ज माइक्स जैसे लेखक, ई एच गोम्ब्रिच और एरिक हॉब्सबाम जैसे इतिहासकार और आंद्रे ड्यूश व जॉर्ज वीडेनफेल्ड जैसे वे प्रकाशक हैं, जिनकी प्रतिभा की बदौलत हिटलर और स्टालिन के प्रभाव पर अंकुश लगाना मुमकिन हो सका। मगर मुझे महसूस होता है कि अभी उन भारतीयों पर एक बेहतरीन किताब लिखी जानी बाकी है, जिन्होंने न्यूयॉर्क के साहित्यिक और कलात्मक जीवन को समृद्ध बनाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी।
पिछली बार जब मैं इस शहर में था, तब मुझे रानीखेत के एक प्रकाशक रुकुन आडवाणी का ई-मेल मिला, जो पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के दीवाने हैं। आडवाणी ने बताया कि उसके लिए न्यूयॉर्क की पहचान वहां रहने वाली दो शख्सियतों से जुड़ी है। इनमें से एक तो संपादक हैं, आडवाणी जिनके प्रशंसक हैं, और दूसरे एक संगीतकार हैं, जिनकी वह काफी इज्जत करते हैं। इतना ही नहीं, वह आगे बताते हैं कि दोनों का उपनाम 'मेहता' है, हालांकि इनमें से एक पंजाबी हैं, तो दूसरे पारसी। पारसी मेहता का नाम है जुबिन, जोकि मूल रूप से मुंबई के हैं, और आज भी उन्हें भारतीय नागरिक का दर्जा मिला हुआ है। संगीत की दुनिया में इन्होंने एक खास मुकाम बनाया हुआ है। न्यूयॉर्क के अलावा तेल अवीव, बर्लिन और वियना में इनकी आर्केस्ट्रा का आयोजन होता रहता है। दूसरी ओर पंजाबी मेहता का नाम है, अजय, हालांकि वह 'सोनी' नाम से ज्यादा चर्चित हैं। अमेरिका में प्रकाशन की दुनिया के सर्वाधिक सम्मानित लोगों में उन्हें शुमार किया जाता है। कई दशकों तक वह अल्फ्रेड ए नॉफ जूनियर के प्रतिष्ठित प्रकाशन का कार्यभार भी संभाल चुके हैं।
प्रशासन की दृष्टि से पांच इकाईयों में बंटे न्यूयॉर्क की टेलीफोन डाइरेक्टरी में सैकड़ों मेहता होंगे। इनमें से कुछ वॉल स्ट्रीट में ट्रेडिंग करते होंगे,तो कुछ सॉफ्टवेयर इंजीनियर होंगे, और कुछ फुटकर व्यापारी भी होंगे। जाहिर है कि कुछ मेहता लेखक भी होंगे। वेद मेहता, जुबिन और सोनी से काफी पहले मैनहट्टन पहुंचे। कई वर्षों तक उन्होंने 'द न्यूयॉर्कर' मैगजीन के लिए काम किया। इस दौरान उन्होंने राजनीति और साहित्य पर काफी लोकप्रिय किताबें भी लिखीं। 1934 में जन्में वेद, गीता मेहता से नौ वर्ष बड़े हैं, जो खुद लेखिका हैं, और काफी समय से मैनहट्टन में रह रही हैं। जिस अंतिम मेहता का मैं जिक्र करना चाहूंगा, वह गीता से बीस वर्ष छोटा है। यह सुकेतु मेहता हैं, जो शायद ब्रूकलिन में रहते हैं, और जिन्होंने मुम्बई/बॉम्बे पर एक बेहद दिलचस्प किताब 'मैक्सिमम सिटी' लिखी है।
ऐसे ही, एक दूसरे प्रतिभावान लेखक अमिताव घोष हैं, जिनका ब्रूकलीन में काफी वर्षों से आशियाना रहा है, और जिनके कई उपन्यास बर्मा, मिस्र, चीन और सुंदरबन की पृष्ठभूमि में लिखे गए हैं। इसके अलावा विविधतापूर्ण काम करने वाली फिल्म निर्माता मीरा नायर भी हैं, जिनकी फिल्मों की पृष्ठभूमि अलग-अलग महाद्वीप और कालखंड बने। फिलहाल न्यूयॉर्क में बस चुकी मीरा नायर बतौर विद्यार्थी दिल्ली यूनिवर्सिटी में घोष की समकालीन थीं। घोष जहां सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ते थे, वहीं मीरा मिरांडा हाउस में।
इससे पिछली पीढ़ी की बात करें तो मैनहट्टन और मिरांडा हाउस से ताल्लुक रखने वाली एक हर दम जवां दिखने वाली शख्सियत मधुर जाफरी भी हैं। जाफरी एक ऐसे शख्स के तौर पर जानी जाती हैं, जिन्होंने टेलीविजन और किताबों के जरिये खासकर उत्तर भारतीय पाक कला (कुकिंग) को पश्चिम में ख्याति दिलाई। दिलचस्प यह है कि मशहूर शेफ और व्यंजनों पर लिखने से पहले वह थिएटर और फिल्मों की एक कामयाब अभिनेत्री थीं। तब उन्होंने न्यूयॉर्क में रहने वाली (मूल रूप से मुंबई के) एक दूसरी हस्ती इस्माइल मर्चेंट के साथ काम किया था, जो 'रिमेंस ऑफ दि डे' और 'हॉवर्ड्स एंड' के अलावा तमाम दूसरी फिल्मों के भी प्रोड्यूसर रहे।
विकीपीडिया में कुछ न्यूयॉर्क की 140 यूनिवर्सिटी और कॉलेजों की सूची मिलती है। इनमें से ज्यादातर की फैकल्टी में भारतीय जरूर शामिल हैं। हालांकि इनमें से अपनी शैक्षिक विशेषज्ञता के क्षेत्र से बाहर जिन लोगों ने प्रसिद्धि पाई, उनमें से तीन नाम खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। ये तीनों कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। ये हैं, साहित्यिक विचारक गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक, इतिहासकार पार्थ चटर्जी और अर्थशास्त्री जगदीश भगवती। इनमें से पहले दो नाम बंगाली हैं, और शायद यह संयोग नहीं है कि दोनों का ही झुकाव वामपंथ की ओर है। तीसरे शख्स गुजराती हैं, आजकल जिन पर दक्षिणपंथ का दावा बढ़ता जा रहा है। हालांकि उन्हें एक शास्त्रीय उदारवादी माना जाता है, जो कि मुक्त व्यापार और बौद्धिक स्वतंत्रता के घोर समर्थक हैं। इनके अलावा मैनहट्टन में रहने वाले ई एस रेड्डी भी हैं, जिन्होंने राजनीति और विद्वता के क्षेत्र में काफी नाम कमाया है।
संयुक्त राष्ट्र के पदाधिकारी के तौर पर इन्होंने रंगभेद के खात्मे के अभियान में शानदार भूमिका निभाई। सेवानिवृत्ति के बाद इन्होंने गांधी से जुड़ी दुर्लभ चीजों को एकत्र करना शुरू किया, जिसको निःस्वार्थ भाव से वह सभी आयुवर्ग और राष्ट्रीयता के लोगों के सामने प्रदर्शित करते हैं। अंत में उल्लेख करने के लिए मैंने उस व्यक्ति का नाम छोड़ा है, जिसे न्यूयॉर्क में रहने वाला सबसे असरदार भारतीय भले न माना जाए, मगर उसे सबसे विवादित जरूर कहा जा सकता है। ये सलमान रश्दी हैं। इसे उनकी अच्छी किस्मत कहें, या बेहतर चुनाव, कि उन्हें लंबे अंतरालों के लिए दुनिया के सबसे दिलचस्प शहरों में (मेरे ख्याल से) रहने का मौका मिला। वह बॉम्बे में पले-बढ़े, लंदन में उन्होंने अपना पहला उपन्यास लिखा, और फिलहाल वह न्यूयॉर्क में रह रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि दशकों से न्यूयॉर्क में रहने वाले भारतीयों ने साहित्य, विद्वता, ड्रामा, फिल्म और संगीत की दुनिया को समृद्ध बनाया है। इसके अलावा कला और नृत्य के क्षेत्र में क्रमशः फ्रांसिस न्यूटन डिसूजा और इंद्राणी रहमान जैसे नाम हैं, जो कई वर्षों तक इस शहर में रहे। न्यूयॉर्क के इन भारतीय अप्रवासियों ने अलग-अलग क्षेत्रों में काम भले किया हो, मगर इनकी दुनिया एक-दूसरे से जुड़ी थी। एक दोस्त, सहयोगी, साथी या प्रतिद्वंद्वी के तौर पर ये एक-दूसरे को जानते थे। इन पर जो किताब लिखी जाए, वह पांडुलिपियों, पत्रों, पुराने अखबारों जैसे प्राथमिक स्रोतों और साक्षात्कारों व लोक साहित्य से जुटाई गई जानकारी पर किए गए गंभीर शोध पर आधारित होनी चाहिए। अगर ऐसा मुमकिन हो सका, तो सांस्कृतिक इतिहास के क्षेत्र में यह अद्भुत योगदान होगा। उम्मीद करता हूं कि कोई इसे जरूर लिखेगा, क्योंकि मैं इसे पढ़ने के लिए और सब्र नहीं कर सकता।
पिछली बार जब मैं इस शहर में था, तब मुझे रानीखेत के एक प्रकाशक रुकुन आडवाणी का ई-मेल मिला, जो पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के दीवाने हैं। आडवाणी ने बताया कि उसके लिए न्यूयॉर्क की पहचान वहां रहने वाली दो शख्सियतों से जुड़ी है। इनमें से एक तो संपादक हैं, आडवाणी जिनके प्रशंसक हैं, और दूसरे एक संगीतकार हैं, जिनकी वह काफी इज्जत करते हैं। इतना ही नहीं, वह आगे बताते हैं कि दोनों का उपनाम 'मेहता' है, हालांकि इनमें से एक पंजाबी हैं, तो दूसरे पारसी। पारसी मेहता का नाम है जुबिन, जोकि मूल रूप से मुंबई के हैं, और आज भी उन्हें भारतीय नागरिक का दर्जा मिला हुआ है। संगीत की दुनिया में इन्होंने एक खास मुकाम बनाया हुआ है। न्यूयॉर्क के अलावा तेल अवीव, बर्लिन और वियना में इनकी आर्केस्ट्रा का आयोजन होता रहता है। दूसरी ओर पंजाबी मेहता का नाम है, अजय, हालांकि वह 'सोनी' नाम से ज्यादा चर्चित हैं। अमेरिका में प्रकाशन की दुनिया के सर्वाधिक सम्मानित लोगों में उन्हें शुमार किया जाता है। कई दशकों तक वह अल्फ्रेड ए नॉफ जूनियर के प्रतिष्ठित प्रकाशन का कार्यभार भी संभाल चुके हैं।
प्रशासन की दृष्टि से पांच इकाईयों में बंटे न्यूयॉर्क की टेलीफोन डाइरेक्टरी में सैकड़ों मेहता होंगे। इनमें से कुछ वॉल स्ट्रीट में ट्रेडिंग करते होंगे,तो कुछ सॉफ्टवेयर इंजीनियर होंगे, और कुछ फुटकर व्यापारी भी होंगे। जाहिर है कि कुछ मेहता लेखक भी होंगे। वेद मेहता, जुबिन और सोनी से काफी पहले मैनहट्टन पहुंचे। कई वर्षों तक उन्होंने 'द न्यूयॉर्कर' मैगजीन के लिए काम किया। इस दौरान उन्होंने राजनीति और साहित्य पर काफी लोकप्रिय किताबें भी लिखीं। 1934 में जन्में वेद, गीता मेहता से नौ वर्ष बड़े हैं, जो खुद लेखिका हैं, और काफी समय से मैनहट्टन में रह रही हैं। जिस अंतिम मेहता का मैं जिक्र करना चाहूंगा, वह गीता से बीस वर्ष छोटा है। यह सुकेतु मेहता हैं, जो शायद ब्रूकलिन में रहते हैं, और जिन्होंने मुम्बई/बॉम्बे पर एक बेहद दिलचस्प किताब 'मैक्सिमम सिटी' लिखी है।
ऐसे ही, एक दूसरे प्रतिभावान लेखक अमिताव घोष हैं, जिनका ब्रूकलीन में काफी वर्षों से आशियाना रहा है, और जिनके कई उपन्यास बर्मा, मिस्र, चीन और सुंदरबन की पृष्ठभूमि में लिखे गए हैं। इसके अलावा विविधतापूर्ण काम करने वाली फिल्म निर्माता मीरा नायर भी हैं, जिनकी फिल्मों की पृष्ठभूमि अलग-अलग महाद्वीप और कालखंड बने। फिलहाल न्यूयॉर्क में बस चुकी मीरा नायर बतौर विद्यार्थी दिल्ली यूनिवर्सिटी में घोष की समकालीन थीं। घोष जहां सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ते थे, वहीं मीरा मिरांडा हाउस में।
इससे पिछली पीढ़ी की बात करें तो मैनहट्टन और मिरांडा हाउस से ताल्लुक रखने वाली एक हर दम जवां दिखने वाली शख्सियत मधुर जाफरी भी हैं। जाफरी एक ऐसे शख्स के तौर पर जानी जाती हैं, जिन्होंने टेलीविजन और किताबों के जरिये खासकर उत्तर भारतीय पाक कला (कुकिंग) को पश्चिम में ख्याति दिलाई। दिलचस्प यह है कि मशहूर शेफ और व्यंजनों पर लिखने से पहले वह थिएटर और फिल्मों की एक कामयाब अभिनेत्री थीं। तब उन्होंने न्यूयॉर्क में रहने वाली (मूल रूप से मुंबई के) एक दूसरी हस्ती इस्माइल मर्चेंट के साथ काम किया था, जो 'रिमेंस ऑफ दि डे' और 'हॉवर्ड्स एंड' के अलावा तमाम दूसरी फिल्मों के भी प्रोड्यूसर रहे।
विकीपीडिया में कुछ न्यूयॉर्क की 140 यूनिवर्सिटी और कॉलेजों की सूची मिलती है। इनमें से ज्यादातर की फैकल्टी में भारतीय जरूर शामिल हैं। हालांकि इनमें से अपनी शैक्षिक विशेषज्ञता के क्षेत्र से बाहर जिन लोगों ने प्रसिद्धि पाई, उनमें से तीन नाम खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। ये तीनों कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। ये हैं, साहित्यिक विचारक गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक, इतिहासकार पार्थ चटर्जी और अर्थशास्त्री जगदीश भगवती। इनमें से पहले दो नाम बंगाली हैं, और शायद यह संयोग नहीं है कि दोनों का ही झुकाव वामपंथ की ओर है। तीसरे शख्स गुजराती हैं, आजकल जिन पर दक्षिणपंथ का दावा बढ़ता जा रहा है। हालांकि उन्हें एक शास्त्रीय उदारवादी माना जाता है, जो कि मुक्त व्यापार और बौद्धिक स्वतंत्रता के घोर समर्थक हैं। इनके अलावा मैनहट्टन में रहने वाले ई एस रेड्डी भी हैं, जिन्होंने राजनीति और विद्वता के क्षेत्र में काफी नाम कमाया है।
संयुक्त राष्ट्र के पदाधिकारी के तौर पर इन्होंने रंगभेद के खात्मे के अभियान में शानदार भूमिका निभाई। सेवानिवृत्ति के बाद इन्होंने गांधी से जुड़ी दुर्लभ चीजों को एकत्र करना शुरू किया, जिसको निःस्वार्थ भाव से वह सभी आयुवर्ग और राष्ट्रीयता के लोगों के सामने प्रदर्शित करते हैं। अंत में उल्लेख करने के लिए मैंने उस व्यक्ति का नाम छोड़ा है, जिसे न्यूयॉर्क में रहने वाला सबसे असरदार भारतीय भले न माना जाए, मगर उसे सबसे विवादित जरूर कहा जा सकता है। ये सलमान रश्दी हैं। इसे उनकी अच्छी किस्मत कहें, या बेहतर चुनाव, कि उन्हें लंबे अंतरालों के लिए दुनिया के सबसे दिलचस्प शहरों में (मेरे ख्याल से) रहने का मौका मिला। वह बॉम्बे में पले-बढ़े, लंदन में उन्होंने अपना पहला उपन्यास लिखा, और फिलहाल वह न्यूयॉर्क में रह रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि दशकों से न्यूयॉर्क में रहने वाले भारतीयों ने साहित्य, विद्वता, ड्रामा, फिल्म और संगीत की दुनिया को समृद्ध बनाया है। इसके अलावा कला और नृत्य के क्षेत्र में क्रमशः फ्रांसिस न्यूटन डिसूजा और इंद्राणी रहमान जैसे नाम हैं, जो कई वर्षों तक इस शहर में रहे। न्यूयॉर्क के इन भारतीय अप्रवासियों ने अलग-अलग क्षेत्रों में काम भले किया हो, मगर इनकी दुनिया एक-दूसरे से जुड़ी थी। एक दोस्त, सहयोगी, साथी या प्रतिद्वंद्वी के तौर पर ये एक-दूसरे को जानते थे। इन पर जो किताब लिखी जाए, वह पांडुलिपियों, पत्रों, पुराने अखबारों जैसे प्राथमिक स्रोतों और साक्षात्कारों व लोक साहित्य से जुटाई गई जानकारी पर किए गए गंभीर शोध पर आधारित होनी चाहिए। अगर ऐसा मुमकिन हो सका, तो सांस्कृतिक इतिहास के क्षेत्र में यह अद्भुत योगदान होगा। उम्मीद करता हूं कि कोई इसे जरूर लिखेगा, क्योंकि मैं इसे पढ़ने के लिए और सब्र नहीं कर सकता।
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