Wednesday, 22 July 2015

गांधी और नौरोजी @रामचन्द्र गुहा

ब्रिटेन के विदेश और वित्त मंत्री ने ‌पिछले महीने भारत की यात्रा की। इसी दौरान अपने मेजबान को खुश करने के लिए उन्होंने लंदन में संसद के सदन के बाहर महात्मा गांधी की एक प्रतिमा की स्‍थापना किए जाने की घोषणा की। मगर इससे मेरे जैसे तमाम भारतीयों को कोई खास खुशी नहीं हुई। क्योंकि सभी को पता है कि इस घोषणा के पीछे कहीं न कहीं मेहमानों की अपने लड़ाकू विमानों के विक्रय की मंशा ‌छिपी हुई है। हालांकि ब्रिटेन में भी लोगों का एक बड़ा वर्ग इससे नाखुश है। गौरतलब है कि टाइम्स ऑफ लंदन में छपे अपने एक लेख के जरिये मशहूर इतिहासकार कुसुम वदगामा बताती है कि वेस्टमिंस्टर में गांधी की प्रतिमा का कोई औचित्य नहीं है। दरअसल उनके मुताबिक इसकी वजह है क‌ि गांधी के महिलाओं के प्रति रवैये को लेकर सवाल खड़े किया जा सकते हैं। उनके मुताबिक गांधी में सेक्स को लेकर एक सनक थी। इतना ही नहीं, उनमें निर्वस्‍त्र होकर महिलाओं के साथ सोने की भी आदत थी। इसी वजह से कुसुम मानती हैं कि गांधी की जगह संसद में दादाभाई नौरोजी की प्रतिमा होनी चाहिए, जो कि 1892 में फिन्सबरी पार्क क्षेत्र से निर्वाचित हाउस ऑफ कामंस के पहले भारतीय सदस्य थे। 


कुसुम वदगामा एक डॉक्टर हैं, जिन्होंने ब्रिटेन में रहने वाले दक्षिण एशियाईयों पर दो उत्कृष्ट किताबें लिखी हैं। हालांकि मैं मानता हूं कि गांधी को लेकर उनकी निंदा कुछ ज्यादा ही है। महिलाओं के साथ निर्वस्‍त्र सोना उनकी आदत नहीं थी। उनकी जिंदगी के आखिरी वर्षों में, जब पूरा भारत सांप्रदायिक दंगों की चपेट में था, गांधी ने सोचा कि कहीं न कहीं इसका जुड़ाव खुद उनके भीतर नैतिक शुद्धता के अभाव से है। इसीलिए उन्होंने अपने ब्रह्मचर्य को परखने का यह प्रयोग अपनी दो भतीजियों के साथ किया। इसमें संदेह नहीं कि उनका यह प्रयोग अजीब था। मगर यह भी सच है कि 1947 के कई हफ्तों के दौरान यह एक बार ही हुआ, और वह भी प्रयोग में शामिल होने वालों की सहमति से। और हम इसके बारे में केवल इस वजह से जान पाए, क्योंकि गांधी ने अपनी जिंदगी खुली किताब की तरह रखी। उनके ‌दो सहयोगियों प्यारेलाल और निर्मल कुमार बोस ने इस पर किताब प्रकाशित की। मुमकिन है कि गांधी ने दोनों युवा लड़कियों को प्रयोग में शामिल करने के लिए मजबूर किया हो। यह भी संभव है कि प्रयोग के दौरान उनको नुकसान भी पहुंचा हो। मगर गांधी पर अपने प्रयोग के ‌जरिये महिलाओं के अधिकारों का एकबारगी हनन करने के आरोप पर चर्चा करते वक्त महिलाओं की मुक्ति के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों का उल्लेख भी होना चाहिए। उन्होंने सती और बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ आंदोलन किए। उन्होंने महिलाओं को पर्दे से बाहर निकलकर शिक्षा प्राप्‍त करने का आह्वान भी किया। इसके अलावा दक्षिण अफ्रीका और भारत में उन्होंने महिलाओं को राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरि‌त किया। 1940 और 1950 के दशक में इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस या जर्मनी जैसे देशों तक में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की सहभागिता बेहद कम थी। इसकी तुलना अगर आजादी के बाद भारत के शुरुआती वर्षों से करें, तो हमारी महिलाएं राज्यों की राज्यपाल, मुख्यमंत्री, उपकुलपति और राजदूत भी बनीं। सरोजिनी नायडू, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, राजकुमारी अमृत कौर, विजयलक्ष्मी पंडित, अनुसूया व मृदुला साराभाई, अनीस किदवई और हंसा मेहता जैसी नेत्रियों ने बढ़-चढ़कर स्वतंत्रता के आंदोलन में हिस्सा लिया और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बगैर किसी अपवाद के ये सभी गांधी से प्रेरित थीं। चाहे वह माओ हों या लेनिन, चर्चिल या डि गॉल, 20वीं सदी के किसी भी राजनीतिज्ञ की तुलना में गांधी ने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ने के लिए ज्यादा प्रेरणा दी। ऐसे में, गांधी पर महिलाओं के दमन का कुसुम वदगामा का आरोप निराधार ही प्रतीत होता है। 


आज दादाभाई नौरोजी तकरीबन भुला दिए गए हैं। हारवर्ड के इतिहासकार दिनयार पटेल उनकी जीवनी लिख रहे हैं, जिससे उम्मीद बंधती है कि लोग एक बार फिर उनके योगदान से परिचित हो पाएंगे। तमाम स्रोतों को खंगालते हुए दिनयार ने एक व्यापारी, शिक्षक, देशभक्त, राजनीतिज्ञ और एक परोपकारी हस्ती के तौर पर नौरोजी की शख्सियत के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण किया है। 1892 में जब इंग्लैंड की संसद में वह निर्वाचित हुए मद्रास के एक संपादक ने लिखा, 'अगर भारत एक गणराज्य होता और उसे अपने राष्ट्राध्यक्ष को चुनने की आजादी होती तो पूरा देश एक आवाज से दादाभाई नौरोजी को ही चुनता। पूरे भारत में शायद ही ऐसा कोई हो, जो देशवासियों के उतने प्यार और सम्मान का पात्र हो, जितना कि नौरोजी। '


दिनयार पटेल के मुताबिक नौरोजी एक प्रगतिशील और यथार्थवादी विचारक थे, जिन्होंने भारत की स्वराज की मांग को सार्वभौमिक अधिकारों की व्यापक अवधारणा के साथ जोड़ा। उन्होंने समाजवाद और मजदूरों के हित की बात की, और साम्राज्यवाद का विरोध किया। उनके विचार इंग्लैंड के मजदूर संघों, धार्मिक तौर पर पृथकतावादी और महिलाओं के सशक्तिकरण की वकालत करने वाले संगठनों से मेल खाते थे। इसके अलावा नौरोजी एक गजब के लेखक भी थे। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब 'पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया' थी, जिसमें उन्होंने औपनिवेशिक शासन के आर्थिक दुष्परिणामों का विश्लेषण किया था। गांधी की नौरोजी से पहली मुलाकात तब हुई, जब वह लंदन में कानून की पढ़ाई कर र‌हे ‌‌‌थे। दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान अपने कमरे में भी उन्होंने नौरोजी की एक तस्वीर लगाई हुई थी। युवा वकील और कार्यकर्ता (गांधी) समय-समय पर सलाह और मार्गदर्शन के लिए नौरोजी को खत लिखा करते थे। 1894 में नटाल प्रांत में भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए चलाए गए आंदोलन के दौरान उन्होंने नौरोजी को एक लंबा पत्र लिखा। उन्होंने नौरोजी को बताया, 'जो दायित्व अपने कंधों पर मैंने लिया है, वह मेरी क्षमता से कहीं ज्यादा है। मुझे ऐसे मामलों का अनुभव नहीं है। ऐसे में गलतियां होना स्वाभाविक है। ' गांधी ने यह भी लिखा कि नौरोजी की सलाह उनके लिए वैसी ही है, जैसे पिता की पुत्र को कही गई कोई बात। �


गांधी के मुताबिक किसी भारतीय देशभक्त का आदर्श रूप दादाभाई नौरोजी में दिखता है। अपनी पत्रिका 'इंडियन ओपीनियन' में उन्होंने दादाभाई पर तमाम लेख लिखे। नवंबर, 1903 में उन्होंने नौरोजी के 78वें जन्मदिन पर अपना सम्मान प्रकट करते हुए कहा, ''‌हिंदूकुश से केप कोमोरिन तक और कराची से कलकत्ता तक किसी से भी लोग उतना प्यार नहीं करते, जितना कि इस बुजुर्ग पारसी से करते हैं। ''तीन वर्ष बाद 'इंडियन ओपीनियन' में हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में नौरोजी को जन्म दिन की बधाई प्रकाशित की गई। इसमें उन्हें जी (ग्रांड), ओ (ओल्ड), एम (मैन) ऑफ इंडिया की उपाधि दी गई। हिंदी में यह शीर्षक था, 'हिंद के दादा'। दादाभाई नौरोजी के सार्वजनिक जीवन में योगदान को दो देशों के संदर्भ में देखा जा सकता है। जहां इंग्लैंड में उन्होंने लोकतंत्र की जड़ें गहरी करने में मदद की, वहीं भारत में राष्ट्रवाद की भावना के विकास में उन्होंने योगदान दिया। ऐसे में, वेस्टमिंस्टर में उनकी प्रतिमा इंग्लैंड में एशियाई लोगों के लंबे इतिहास (हमेशा सौहार्द्रपूर्ण नहीं) को बेहतर ढंग से सम्मानित करने का एक जरिया बन सकती है। मैं सोचता हूं कि गांधी भी इससे खुश ही होते।

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