भारत हमेशा से महान फिरकी गेंदबाजों का गढ़ रहा है। पहले वीनू मांकड़ और सुभाष गुप्ते, फिर बेदी, चंद्रशेखर और प्रसन्ना, और फिर आया अनिल कुंबले का दौर। मगर हमेशा से ऐसा नहीं था। 1932 के जून महीने में लार्ड्स की एक दोपहर में जब हमने पहला टेस्ट मैच खेला, तो टीम की गेंदबाजी की कमान तेज गेंदबाज मोहम्मद निसार और स्विंग के मास्टर कहे जाने वाले एल अमर सिंह के हाथों में थी। और उनका साथ दे रहे थे, मध्यम गति के गेंदबाज जहांगीर खान और सी के नायडू। 1930 के दशक में भारत में अच्छे स्पिन गेंदबाजों का अकाल था। पटियाला के महाराजा से, जो न सिर्फ अच्छे बैट्समैन थे, बल्कि क्रिकेट को काफी बढ़ावा भी देते थे, इसकी वजह पूछी गई, तो उनका जवाब था कि भारतीयों को खुद का मखौल उड़वाना बिल्कुल पसंद नहीं होता, और अमूमन उनकी सोच होती है कि फिरकी पर छक्का मारना आसान होता है, जबकि तेज या मध्यम तेज गेंदबाजों पर छक्का उड़ाना मुश्किल। इसीलिए वे धीमी गेंदों का अभ्यास ही नहीं करते।
पटियाला के महाराजा निसार और अमर सिंह का कहर झेल चुके थे। फिर जितने भी सिख युवाओं को वह जानते थे, वे सभी अपनी दिलेर परंपरा को बढ़ाने वाले उदीयमान तेज गेंदबाज थे। मगर जल्दी ही हालात बदलने लगे। 1937-38 में बाएं हाथ के फिरकी गेंदबाज वीनू मांकड़ पहली बार भारत की तरफ से खेले। भारत ने वह अनाधिकारिक मैच लॉर्ड टेनीसन की टीम के खिलाफ खेला था। उसके पंद्रह वर्ष बाद मांकड़ ने मद्रास में इंग्लैंड के खिलाफ बारह विकेट चटकाते हुए भारत को पहली आधिकारिक टेस्ट जीत का स्वाद चखाया। 1940 से 70 के दशक तक भारत के सर्वश्रेष्ठ गेंदबाजों में सभी फिरकी थे। हालांकि इस दौरान नई गेंद से शुरुआती विकेट चटकाने का जिम्मा संभालने वाले दत्तू फड़कर, रमाकांत देसाई, आर सुरेंद्र नाथ और करसन घावरी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। मगर मैचों को जिताने का सेहरा धीमे गेंदबाजों के सिर ही बंधता था। फिर चाहे वे मांकड़, गुप्ते और गुलाम अहमद हों, या बोर्डे और दुर्रानी, या बेदी, प्रसन्ना, चंद्रशेखर और वेंकट। महान ऑलराउंडर कपिल देव निखंज के उदय से चीजें बदलनी शुरू हुईं। अपनी आत्मकथा में कपिल उल्लेख करते हैं कि एक मशहूर कोच ने कैसे उनको हतोत्साहित करते हुए कहा था कि भारत में कोई तेज गेंदबाज पैदा ही नहीं हो सकता। उसके ठीक पचास वर्ष पहले पटियाला के महाराजा की सोच थी कि कोई भारतीय फिरकी गेंदबाज बनने की नहीं सोचता। मगर यही वह समय था, जब परंपरागत सोच उलटने लगी थी। कपिल को सलाम कि उन्होंने कोच की अनसुनी की, और इसी वजह से कपिल की गेंदबाजी की यादें अंतिम समय तक मेरे जेहन में सजी रहेंगी।
उनका सहज रन-अप, उछलकर गेंदबाजी करने की मुद्रा, स्लिप की ओर जाती उनकी आउट स्विंग (दाएं हाथ के बल्लेबाज के बल्ले का बाहरी कोना छूते हुए) गेंदे, धीमी गति से अंदर की ओर आने वाली उनकी शातिर गेंदे, जिन्होंने कई बल्लेबाजों को पगबाधा किया-ये यादें कभी भुलाई नहीं जा सकतीं। कपिल ने इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में, और तेज गेंदबाजों को मदद न देने वाली भारत की पिचों पर भी टेस्ट मैचों में भारत को जीत दिलवाई। कुछ अक्खड़-सा बोलने वाले हरियाणा के इस खिलाड़ी के बाद भारत की तेज गेंदबाजी की बागडोर संभाली दक्षिण के एक शर्मीले इंजीनियरिंग विद्यार्थी ने। यह थे जवागल श्रीनाथ। देश में तेज गेंदबाजी को लेकर कपिल ने जो जमीन तैयार की थी, उसकी बदौलत युवा श्रीनाथ को हतोत्साहित करने का किसी में साहस नहीं था।
उनके कोच की बस यही सलाह थी कि अगर तेज गेंद फेंकना चाहते हो, तो शाकाहारी बने रहने से काम नहीं चलेगा। कपिल के उलट श्रीनाथ की गेंदे दाएं हत्था बल्लेबाज के अंदर की ओर (इनस्विंग) आती थीं। हालांकि बाद में उन्होंने बाहर जाती गेंदे (आउटस्विंग) फेंकना भी शुरू किया। बावजूद इसके कि उनका रन-अप छोटा था, उनकी गेंदों में इतनी तेजी और उछाल था कि अपने पहले ऑस्ट्रेलिया दौरे में उन्होंने महान बल्लेबाज एलन बॉर्डर को खासा तंग किया। फिर तो चाहे ब्रायन लारा हों या इंग्लैंड के ओपनर (पारी की शुरुआत करने वाले) बल्लेबाज माइकल अर्थटन, सभी उनसे परेशान रहे। जैसे कपिल के कैरियर के अंत में श्रीनाथ्ा टीम में आए, वैसे ही, श्रीनाथ के कैरियर के अंतिम दौर में उनका साथ्ा देने उतरे बाएं हाथ से तेज गेंदबाजी करने वाले वड़ोदरा के जहीर खान। कैरियर के शुरुआती दौर में जहीर विशुद्ध तेज गेंदबाज थे, मगर लगातार चोटों ने उन्हें अपनी गति और शैली बदलने पर मजबूर कर दिया।
अक्तूबर, 2009 में सेंचुरियन में भारत और पाकिस्तान के मैच के दौरान मैं पवेलियन में मौजूद था। चोटिल होने की वजह से जहीर भी पास ही बैठे थे। एकाएक जहीर उठे और निकास के दरवाजे की ओर बढ़े। मैंने मुड़कर देखा कि वह बाएं हाथ के महानतम तेज गेंदबाज वसीम अकरम के साथ बैठे थे। दरअसल जहीर ऐसे खिलाड़ी हैं, जो सीखने को हरदम तैयार रहते हैं। वसीम की सलाहों और खुद की गलतियों से सीखते हुए जहीर ने खुद को मांजते हुए वह गेंद ईजाद की, जो उनकी सामान्य गेंदों की तुलना में तेज होती है। इसके अलावा उन्हें विकेट की दूसरी ओर से (राउंड द विकेट) गेंदबाजी करना, और रिवर्स स्विंग की कला भी सीखी। कपिल और श्रीनाथ की तरह उन्होंने भी दुनिया के दिग्गज बल्लेबाजों की रातों की नींद उड़ाई।
2011 का विश्व कप जीतने में उनकी अहम भूमिका थी। उन्होंने न सिर्फ किफायती गेंदबाजी की, बल्कि पूरे टूर्नामेंट के दौरान मौकों पर विकेट भी चटकाए। मगर अब जब कि इंग्लैंड दौरे के लिए उन्हें टीम में जगह नहीं दी गई है, मुझे लगता है कि उनका कैरियर लगभग खत्म है। हालांकि सर्वश्रेष्ठ ग्यारह खिलाड़ियों वाली सर्वकालिक भारतीय टीम में कपिल के साथ गेंदबाजी की बागडोर संभालने में श्रीनाथ के साथ उनकी दावेदारी भी मजबूत है। मोहम्मद निसार कहते थे, 'एक मुंह पर दूंगा, फिर स्टंप उखाड़ दूंगा।' हालांकि भारत में उनके बाद हुए तेज गेंदबाजों ने बाउंसर और यॉर्कर गेंदों पर विकेट जरूर लिए, मगर उनका ज्यादा जोर स्विंग और बॉल की गति में चतुराई दिखाने पर ही रहा। फिर भी यह स्वीकारने में मुझे संकोच नहीं कि बावजूद इसके मुझे धीमी गेंदबाजी ज्यादा भाती है, फिर भी मैं कपिल, श्रीनाथ और जहीर का शुक्रगुजार हूं, जिनकी बदौलत वर्षों तक मुझे मनोरंजन के पल मिलते रहे।
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