इस वर्ष के अप्रैल महीने की बात है, मैं अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में था, जहां भारतीय समुदाय के लोगों की तादाद काफी है। इन्हीं लोगों के साथ एक डिनर के दौरान भारत के सोलहवें आम चुनाव पर चर्चा होने लगी। मुझे पता चला कि चुनाव अभियान के दौरान अकेले ह्यूस्टन शहर से ही कॉलेजों के करीब सौ छात्र और पेशेवर भारत पहुंचे थे। यह पूछने पर, कि इनमें से कितने लोग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रचार के लिए गए थे, मेरे मेजबानों का जवाब था, कम से कम 'नब्बे', या शायद 'निन्यानबे'। गौरतलब है कि भाजपा और इससे जुड़े संगठन पिछले दो दशकों से उत्तर अमेरिका में बसे भारतीयों के बीच सक्रिय हैं। वहां बसे भारतीय विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को आर्थिक मदद देते रहे हैं। एक अध्ययन बताता है कि 1999 से 2001 के बीच इन भारतीयों ने संघ और विहिप से जुड़े समूहों के लिए तकरीबन 25 लाख डॉलर भारत भेजे थे। इतना ही नहीं, बात चाहे भारतीयों से सहानुभूति रखने वाले प्रतिनिधियों को चुनने की हो, या स्कूलों के पाठ्यक्रम से हिंदुओं या उनकी आस्थाओं का तिरस्कार करने वाले हिस्सों में संशोधन की, अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोग तमाम अभियानों के जरिये अपनी आवाज उठाते आए हैं।
जब मैंने विदेशों में बसे भाजपा के मित्रों की गूगल पर खोज की, तो 22,500 नतीजे मेरे सामने थे। सबसे पहले तो मुझे बाकायदा इसी उद्देश्य से बनी एक व्यवस्थित वेबसाइट के दर्शन हुए, फिर मुझे इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में बसी इसकी इकाइयों की जानकारी मिली। इसके अलावा मुझे इससे जुड़े तमाम लेख भी मिले, जिसमें फरवरी, 2014 में प्रकाशित एक दिलचस्प लेख भी शामिल था, जिसके शीर्षक में भारतीय मूल के लोगों को भाजपा के लिए सबसे बड़ा दानकर्ता बताया गया है। दूसरी ओर जब मैंने विदेशों में बसे कांग्रेस के मित्रों की खोज की, मुझे केवल एक इंट्री मिली, जिसके जरिये मैं एक ऐसे फेसबुक पेज पर पहुंचा, जिसे केवल दो लाइक मिली हुई थीं। मुझे 1969 में स्थापित एक संगठन 'इंडियन ओवरसीज कांग्रेस' की जानकारी मिली, जो हालिया वर्षों में निष्क्रिय ही ज्यादा लगता है। इसके अलावा एक 'इंडियन नेशनल ओवरसीज कांग्रेस' भी है, जिसका उद्घाटन सोनिया गांधी ने 2001 में न्यूयॉर्क में किया था, मगर इसकी वेबसाइट से ही पता चलता है कि फिलहाल यह ज्यादा सक्रिय नहीं है। मुझे ऐसी कोई प्रेस रिपोर्ट भी नहीं मिली, जिससे 2014 के चुनाव में कांग्रेस के लिए काम कर रहे आप्रवासी भारतीयों का उल्लेख हो। हां, कुछ ह्यूस्टनवासियों के भाजपा के अभियानों में हिस्सा लेने के बजाय आम आदमी पार्टी का साथ देने का जिक्र कहीं-कहीं जरूर मिला।
अमेरिका से लौटने के कुछ समय बाद जब मैं दिल्ली के लेखागारों में कुछ काम कर रहा था, तब मुझे एक राजनीतिक दल की एक रिपोर्ट दिखी, जिसका शीर्षक था, 'पब्लिसिटी वर्क इन अमेरिकाः ए न्यू बट परमानेंट प्लान'। यह 1922 की रिपोर्ट थी, और राजनीतिक दल का नाम था, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस। इस दस्तावेज को हुबली शहर के राष्ट्रवादी एन एस हार्दिकर ने तैयार किया था। अमेरिका और कनाडा जाकर स्थायी या अस्थायी तौर पर रह रहे भारतीयों से मुलाकात करने के लिए कांग्रेस ने महात्मा गांधी के विशेष आग्रह पर हार्दिकर की नियुक्ति की थी। गौरतलब है कि अपनी यात्रा के बाद हार्दिकर ने पांच सिफारिशें की थीं। पहली, भारत को अपने खर्चे पर दूसरे देशों में जनमत को बनाने और नियंत्रित करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि न केवल उसके पुत्र और पुत्रियों के हितों की सुरक्षा हो सके, साथ ही, पूरी दुनिया भारतीय मूल्यों को जान सके। दूसरी, इस पूरे तंत्र की व्यवस्था का दारोमदार आप्रवासी भारतीयों के हाथों में होना चाहिए, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सीधे नियंत्रण में होंगे। तीसरी, कांग्रेस को हर हफ्ते विदेशों में प्रसार के लिए प्रामाणिक सामाजिक और राजनीतिक खबरों की व्यवस्था करनी चाहिए। चौथी, राजनीतिक कार्यों के चलते जब कांग्रेस नेता विदेश के दौरे पर हों, तो वहां बसे भारतीयों को उनकी मदद करनी चाहिए। पांचवीं, आप्रवासी बच्चों में जो मेधावी हों, उन्हें खास तौर पर प्रचार कार्य के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
दरअसल ऐसी रिपोर्ट तैयार कराने के पीछे महात्मा गांधी की सोची-समझी रणनीति थी। संवाद करने में उनका सानी नहीं था, और अपने संदेशों का वह ज्यादा से ज्यादा प्रसार करना चाहते थे। पहले विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका एक वैश्विक ताकत बनकर उभर चुका था। ऐसे में भारत के लिए उसकी सहानुभूति राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के मद्देनजर फायदेमंद थी। फिर वह जानते थे कि दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के पक्ष में आवाज उठाने के बाद राजनीतिक तौर पर वहां से ज्यादा उम्मीदें नहीं की जा सकती थीं। ऐसे में, उनका उत्तर अमेरिका में समर्थन जुटाने की कोशिश करना तर्कसंगत भी था।
1930 और 40 के दशक में अगर कांग्रेस को अपने इन उद्देश्यों को पूरा करने में कामयाबी मिली, तो इसके पीछे अमेरिका में बसे कृष्णालाल श्रीधरानी, तारकनाथ दास और खासकर जे जे सिंह जैसे आप्रवासियों का उल्लेखनीय योगदान था, जिनकी 'इंडिया लीग' ने औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति की जरूरत के मद्देनजर लोगों में जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आजादी के बाद शीतयुद्ध के दौर में जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी को अमेरिका पर ज्यादा भरोसा नहीं था। दूसरी ओर अमेरिका के राजनीतिज्ञ भी भारतीय नेताओं को संदेह की नजर से देखते थे। यही वह समय था जब कई पेशेवरों ने भारत छोड़कर अमेरिका का रुख किया। यह पेशेवरों की वह पहली पीढ़ी थी, जो अपनी मातृभूमि को भुलाकर जल्द से जल्द अमेरिकी बन जाना चाहती थी।
1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के उड़ान भरना शुरू करने के बाद से आप्रवासी भारतीयों में घर लौटने की चाह बलवती होने लगी। मगर इस बार कांग्रेस नहीं, बल्कि भाजपा उन तक पहुंची है। मगर इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम के दिनों की अपनी स्थिति से कांग्रेस काफी दूर जा चुकी है। महात्मा गांधी की कांग्रेस के पास कल्पनाशीलता, ऊर्जा और प्रभावी नेतृत्व के वे गुण मौजूद थे, जो आज उसी नाम को धारण करने वाली पार्टी में आश्चर्यजनक ढंग से नदारद दिखते हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि अपने आप्रवासी मित्रों में पैठ जमाने के लिए भाजपा ने उसी पंचमार्गीय तरीके को अपनाया, जो 1922 में एन एस हार्दिकर ने कांग्रेस को सुझाया था।
इसके तहत अमेरिकियों में भारत समर्थक जनमत का निर्माण, आप्रवासी भारतीयों पर भारत में बसी पैतृक संस्था के सीधे नियंत्रण की व्यवस्था, विदेश में प्रसार के लिए पार्टी की ओर से प्रामाणिक खबरों की व्यवस्था, विदेश यात्रा के दौरान पार्टी के नेताओं की मदद करने की जिम्मेदारी आप्रवासियों को सौंपकर और वहां के मेधावियों को प्रचार की भूमिका देकर, भाजपा ने हार्दिकर के सुझावों पर ही अमल किया है। मगर इस संदर्भ में भाजपा की स्थिति दो मायनों में अलग है। दरअसल भाजपा की आज की व्यवस्था के ठीक उलट स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस को आप्रवासियों से उतना फंड नहीं मिल पाता था। और दूसरा, औपनिवेशिक समय के आप्रवासी राष्ट्रवादी भारतीयों के प्रतिनिधित्व को लेकर किसी धर्म या नस्ल विशेष के आधार पर भेदभाव नहीं करते थे। अफसोस इस बात का है कि फिलहाल भाजपा के जो आप्रवासी मित्र हैं, उनके लिए 'भारतीयों' का मतलब महज 'हिंदुओं' से है।
जब मैंने विदेशों में बसे भाजपा के मित्रों की गूगल पर खोज की, तो 22,500 नतीजे मेरे सामने थे। सबसे पहले तो मुझे बाकायदा इसी उद्देश्य से बनी एक व्यवस्थित वेबसाइट के दर्शन हुए, फिर मुझे इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में बसी इसकी इकाइयों की जानकारी मिली। इसके अलावा मुझे इससे जुड़े तमाम लेख भी मिले, जिसमें फरवरी, 2014 में प्रकाशित एक दिलचस्प लेख भी शामिल था, जिसके शीर्षक में भारतीय मूल के लोगों को भाजपा के लिए सबसे बड़ा दानकर्ता बताया गया है। दूसरी ओर जब मैंने विदेशों में बसे कांग्रेस के मित्रों की खोज की, मुझे केवल एक इंट्री मिली, जिसके जरिये मैं एक ऐसे फेसबुक पेज पर पहुंचा, जिसे केवल दो लाइक मिली हुई थीं। मुझे 1969 में स्थापित एक संगठन 'इंडियन ओवरसीज कांग्रेस' की जानकारी मिली, जो हालिया वर्षों में निष्क्रिय ही ज्यादा लगता है। इसके अलावा एक 'इंडियन नेशनल ओवरसीज कांग्रेस' भी है, जिसका उद्घाटन सोनिया गांधी ने 2001 में न्यूयॉर्क में किया था, मगर इसकी वेबसाइट से ही पता चलता है कि फिलहाल यह ज्यादा सक्रिय नहीं है। मुझे ऐसी कोई प्रेस रिपोर्ट भी नहीं मिली, जिससे 2014 के चुनाव में कांग्रेस के लिए काम कर रहे आप्रवासी भारतीयों का उल्लेख हो। हां, कुछ ह्यूस्टनवासियों के भाजपा के अभियानों में हिस्सा लेने के बजाय आम आदमी पार्टी का साथ देने का जिक्र कहीं-कहीं जरूर मिला।
अमेरिका से लौटने के कुछ समय बाद जब मैं दिल्ली के लेखागारों में कुछ काम कर रहा था, तब मुझे एक राजनीतिक दल की एक रिपोर्ट दिखी, जिसका शीर्षक था, 'पब्लिसिटी वर्क इन अमेरिकाः ए न्यू बट परमानेंट प्लान'। यह 1922 की रिपोर्ट थी, और राजनीतिक दल का नाम था, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस। इस दस्तावेज को हुबली शहर के राष्ट्रवादी एन एस हार्दिकर ने तैयार किया था। अमेरिका और कनाडा जाकर स्थायी या अस्थायी तौर पर रह रहे भारतीयों से मुलाकात करने के लिए कांग्रेस ने महात्मा गांधी के विशेष आग्रह पर हार्दिकर की नियुक्ति की थी। गौरतलब है कि अपनी यात्रा के बाद हार्दिकर ने पांच सिफारिशें की थीं। पहली, भारत को अपने खर्चे पर दूसरे देशों में जनमत को बनाने और नियंत्रित करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि न केवल उसके पुत्र और पुत्रियों के हितों की सुरक्षा हो सके, साथ ही, पूरी दुनिया भारतीय मूल्यों को जान सके। दूसरी, इस पूरे तंत्र की व्यवस्था का दारोमदार आप्रवासी भारतीयों के हाथों में होना चाहिए, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सीधे नियंत्रण में होंगे। तीसरी, कांग्रेस को हर हफ्ते विदेशों में प्रसार के लिए प्रामाणिक सामाजिक और राजनीतिक खबरों की व्यवस्था करनी चाहिए। चौथी, राजनीतिक कार्यों के चलते जब कांग्रेस नेता विदेश के दौरे पर हों, तो वहां बसे भारतीयों को उनकी मदद करनी चाहिए। पांचवीं, आप्रवासी बच्चों में जो मेधावी हों, उन्हें खास तौर पर प्रचार कार्य के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
दरअसल ऐसी रिपोर्ट तैयार कराने के पीछे महात्मा गांधी की सोची-समझी रणनीति थी। संवाद करने में उनका सानी नहीं था, और अपने संदेशों का वह ज्यादा से ज्यादा प्रसार करना चाहते थे। पहले विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका एक वैश्विक ताकत बनकर उभर चुका था। ऐसे में भारत के लिए उसकी सहानुभूति राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के मद्देनजर फायदेमंद थी। फिर वह जानते थे कि दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के पक्ष में आवाज उठाने के बाद राजनीतिक तौर पर वहां से ज्यादा उम्मीदें नहीं की जा सकती थीं। ऐसे में, उनका उत्तर अमेरिका में समर्थन जुटाने की कोशिश करना तर्कसंगत भी था।
1930 और 40 के दशक में अगर कांग्रेस को अपने इन उद्देश्यों को पूरा करने में कामयाबी मिली, तो इसके पीछे अमेरिका में बसे कृष्णालाल श्रीधरानी, तारकनाथ दास और खासकर जे जे सिंह जैसे आप्रवासियों का उल्लेखनीय योगदान था, जिनकी 'इंडिया लीग' ने औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति की जरूरत के मद्देनजर लोगों में जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आजादी के बाद शीतयुद्ध के दौर में जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी को अमेरिका पर ज्यादा भरोसा नहीं था। दूसरी ओर अमेरिका के राजनीतिज्ञ भी भारतीय नेताओं को संदेह की नजर से देखते थे। यही वह समय था जब कई पेशेवरों ने भारत छोड़कर अमेरिका का रुख किया। यह पेशेवरों की वह पहली पीढ़ी थी, जो अपनी मातृभूमि को भुलाकर जल्द से जल्द अमेरिकी बन जाना चाहती थी।
1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के उड़ान भरना शुरू करने के बाद से आप्रवासी भारतीयों में घर लौटने की चाह बलवती होने लगी। मगर इस बार कांग्रेस नहीं, बल्कि भाजपा उन तक पहुंची है। मगर इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम के दिनों की अपनी स्थिति से कांग्रेस काफी दूर जा चुकी है। महात्मा गांधी की कांग्रेस के पास कल्पनाशीलता, ऊर्जा और प्रभावी नेतृत्व के वे गुण मौजूद थे, जो आज उसी नाम को धारण करने वाली पार्टी में आश्चर्यजनक ढंग से नदारद दिखते हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि अपने आप्रवासी मित्रों में पैठ जमाने के लिए भाजपा ने उसी पंचमार्गीय तरीके को अपनाया, जो 1922 में एन एस हार्दिकर ने कांग्रेस को सुझाया था।
इसके तहत अमेरिकियों में भारत समर्थक जनमत का निर्माण, आप्रवासी भारतीयों पर भारत में बसी पैतृक संस्था के सीधे नियंत्रण की व्यवस्था, विदेश में प्रसार के लिए पार्टी की ओर से प्रामाणिक खबरों की व्यवस्था, विदेश यात्रा के दौरान पार्टी के नेताओं की मदद करने की जिम्मेदारी आप्रवासियों को सौंपकर और वहां के मेधावियों को प्रचार की भूमिका देकर, भाजपा ने हार्दिकर के सुझावों पर ही अमल किया है। मगर इस संदर्भ में भाजपा की स्थिति दो मायनों में अलग है। दरअसल भाजपा की आज की व्यवस्था के ठीक उलट स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस को आप्रवासियों से उतना फंड नहीं मिल पाता था। और दूसरा, औपनिवेशिक समय के आप्रवासी राष्ट्रवादी भारतीयों के प्रतिनिधित्व को लेकर किसी धर्म या नस्ल विशेष के आधार पर भेदभाव नहीं करते थे। अफसोस इस बात का है कि फिलहाल भाजपा के जो आप्रवासी मित्र हैं, उनके लिए 'भारतीयों' का मतलब महज 'हिंदुओं' से है।
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