2 और 3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात में दुनिया का सबसे भयानक औद्योगिक हादसा भोपाल में हुआ था। यूनियन कार्बाइड नामक कीटनाशक निर्माता कारखाने से घातक मिक गैस के रिसने के कारण तत्काल ही लगभग दो हजार मौतें हो गई थीं, लगभग 1500 लोग शनै:-शनै: अकाल मृत्यु के शिकार हुए और लगभग 20 हजार लोगों के स्वास्थ्य पर खासा बुरा असर पड़ा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि यह हादसा यूनियन कार्बाइड प्रबंधन की आपराधिक लापरवाही के कारण हुआ था। कारखाने का रखरखाव इतना घटिया था कि उसमें सुरक्षा के प्राय: सभी उपाय निष्क्रिय हो गए थे, जिस कारण क्षमता से अधिक मिक वाष्प संग्रहित हुई। उस वाष्प को एक निश्चित तापमान पर संग्रहित होना था, परंतु यह सुनिश्चित करने के लिए जो उपकरण लगाए गए थे, वे काम नहीं कर रहे थे और तापमान निर्धारित स्तर से अधिक हो गया। इस कारण वाष्प ने गैस का रूप लिया और रिसाव शुरू हो गया। इस गैस को भी जलाने का प्रबंध कारखाने में था, पर उसके कारगर नहीं होने के कारण उसे जलाया नहीं जा सका। यह गैस पानी में घुल जाती है, परंतु इसके लिए जो फव्वारों का प्रबंध था, वह भी नाकाम हुआ। यानी कि पूरी तरह से घनघोर लापरवाही का आलम था, जो कि अंतत: कातिलाना साबित हुई।
यूनियन कार्बाइड अमेरिकी कंपनी है। यूनियन कार्बाइड इंडिया के तत्कालीन अध्यक्ष थे वारेन एंडरसन। एंडरसन या उसकी कंपनी को किसी भी हालत में दोषमुक्त नहीं किया जा सकता, परंतु कम से कम वह व्यक्ति यह जानते हुए भी कि इस गैस रिसाव से हजारों लोग प्रभावित हुए हैं व जनता में बहुत रोष है, स्वयं भोपाल आया। उस पर विधिवत कार्रवाई की गई, परंतु दो घंटे के अंतराल में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक दोनों को आदेश दिए कि उसे छोड़ दिया जाए। इस आदेश की बहुत आलोचना हुई तथा कई बहाने भी प्रस्तुत किए गए, इस हद तक कि मुख्यमंत्री ने यह आदेश तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी एवं तत्कालीन गृह राज्यमंत्री अरुण नेहरू के इशारे पर दिया था।
जो भी हो, एंडरसन अमेरिका चला गया, जहां भारतीय कानून के हाथ पहुंच नहीं पाए। कुछ गैस पीड़ितों ने अमेरिकी अदालत में मुकदमा दायर किया, परंतु कदाचित उनकी वकालत ठीक से न हो सकी। मध्य प्रदेश और भारत सरकार की पैरवी भी ठीक से न हो सकी व इस कारण अमेरिकी अदालत ने एंडरसन के विरुद्ध कार्रवाई की अनुमति नहीं दी। अपील होने पर ऊंची अदालत ने भी निचली अदालत के फैसले को कायम रखा। भोपाल के गैस पीड़ितों का आज भी यह आरोप है कि एंडरसन के विरुद्ध कार्रवाई करने में शासन ने जान-बूझकर वैधानिक खामियां छोड़ीं, जिससे मुकदमे में विफलता मिली। एक प्रकार से यह गैस पीड़ितों के साथ शासन का छल-कपट है।
जहां तक क्षतिपूर्ति का प्रश्न है, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष गैस पीड़ितों की दलील पर यूनियन कार्बाइड ने माननीय न्यायालय के समक्ष क्षतिपूर्ति का तकाजा किया एवं अंतत: लगभग 1300 करोड़ की क्षतिपूर्ति पर समझौता हुआ, जिसे गैस पीड़ितों ने स्वीकार नहीं किया। समझौते के आधार पर क्षतिपूर्ति की रकम जमा हुई और उसे बांटा गया। क्षतिपूर्ति के वितरण के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई, उसकी आज भी आलोचना होती है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस समझौते के कारण एंडरसन के विरुद्ध आपराधिक मामले समाप्त किए। क्षतिपूर्ति निर्धारण और वितरण की आलोचना के अतिरिक्त मेरी स्वयं की आलोचना यह है कि जहां कुल गैस पीड़ितों की संख्या लगभ्ाग 2.25 लाख थी, वहीं निजी राजनीतिक स्वार्थ के कारण यह संख्या 6.5 लाख हो गई और नतीजतन वास्तविक गैस पीड़ितों को जितनी क्षतिपूर्ति मिलना थी, उतनी नहीं मिल पाई एवं लगभग चार लाख लोग, जो अप्रभावित होने के कारण क्षतिपूर्ति के पात्र नहीं थे, उन्हें भी मुआवजा मिला। अर्थात यदि वास्तविक गैस पीड़ितों को ही क्षतिपूर्ति मिलती, तो यह रकम प्रतिव्यक्ति लगभग तीन गुना होती।
गैस हादसे के बाद मैंने अर्जुन सिंहजी से विनती की थी वे भोपाल में विशेष जनगणना करवाएं, जिससे यह सही तौर पर जाना जा सके कि वास्तव में किन लोगों को कितनी हानि हुई है, एवं इस जानकारी के आधार पर ही मुआवजा दिया जाए। परंतु राजनीति में सयानी सलाह मानी नहीं जाती। भोपाल में भी ऐसा ही हुआ। मुझे स्वयं को जो रंज है, वह इस बात पर केंद्रित है कि मैंने अर्जुन सिंह एवं उनके उत्तराधिकारी मोतीलाल वोरा से अनुरोध किया था कि वे भारत के प्रमुख उद्योगपतियों की एक संगोष्ठी आयोजित करें, जिसमें उनसे अनुरोध किया जाए कि गैस पीड़ितों की कार्यक्षमता एवं उनके हुनर को देखते हुए वे जिस प्रकार का रोजगार करने में सक्षम हों, उस प्रकार के रोजगार के अवसर उद्योगपति भोपाल में उपलब्ध कराएं।
कुछ उद्योगपतियों को, जिन्हें मैं जानता हूं, यह प्रस्ताव दिया गया और वे सहर्ष गैस पीड़ितों की सहायता करने को तैयार हुए, परंतु न तो अर्जुन सिंह ने उनसे संपर्क स्थापित किया और न मोतीलाल वोरा ने। इतना जरूर हुआ कि गैस पीड़ितों को क्षतिपूर्ति के रूप में मिली रकम के कारण भोपाल में आभूषणों की कई नई दुकानें खुलीं, कपड़ों के बुटीक खुले और दोपहिया वाहनों की बिक्री बढ़ी और नतीजतन मुआवजे की रकम गैस पीड़ितों से दुकानदारों को स्थानांतरित हुई।
गैस पीड़ितों का रोष स्वाभाविक है और सही भी। सरकार ने वास्तव में ऐसे कोई ठोस कदम नहीं उठाए, जिनसे पीड़ितों को स्थायी रोजगार के अवसर मिलें। उनके बच्चों को नई उद्यमिता सिखाने का कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुआ। एक ओर गैस पीड़ित हैं और दूसरी ओर उनके दु:ख पर नई नेतागिरी और नए व्यवसाय कायम हुए हैं। फिल्म निर्माताओं को फिल्म बनाने का अवसर मिला है। घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं जिनसे पीड़ितों का पुनर्वास तो नहीं होता। गैस पीड़ितों को त्रासदी के तीस साल बाद भी एक सामान्य जिंदगी जीने का मौका नहीं मिला है।
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