Friday, 10 July 2015

संतुष्ट, मस्तमौला और विशाल हृदय @राजीव शुक्ला

स्वभाव से ही उन्हें कभी पुरस्कारों की चाहत नहीं रही। अटल बिहारी वाजपेयी को एक कवि के रूप में पीवी नरसिंह राव ‘पद्म विभूषण’ देना चाहते थे, लेकिन वाजपेयी जी ने कभी इसमें रुचि नहीं दिखाई। मुझे उम्मीद है कि जब अस्वस्थ वाजपेयी जी के हाथों में ‘भारत रत्न’ थमाया जाएगा, तो वह उसका आनंद उठा पाएंगे। अटल जी अपने आप में एक संतुष्ट, मस्तमौला, सहज और विशाल हृदय के प्राणी रहे हैं और ऐसे ही रहेंगे। उनकी 90 वर्ष की उम्र और 60 वर्ष लंबे राजनीतिक जीवन में न तो कोई विवाद है, न ही कोई कलंक। न ही किसी से दुश्मनी, न मनमुटाव। कबीर की तरह सत्ता की चादर उन्होंने जैसी ओढ़ी, वैसी की वैसी रख भी दी। उन पर एक भी व्यक्तिगत आरोप नहीं लगा। लगाने की कोशिश हुई, तो चिपक नहीं पाया। उन्होंने एक बार कहा भी था कि कलंकित होने से पहले मैं मर जाना पसंद करूंगा। पंडित कमलापति त्रिपाठी की तरह अटल जी भी बहुत पूजा-पाठी इंसान हैं, लेकिन पूरी तरह से सेक्युलर राजनीति में विश्वास किया। शायद इसी वजह से पहली बार प्रधानमंत्री बनने पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश में उनका पहला वाक्य था कि मेरी सरकार में धर्मतांत्रिक देश नहीं बनेगा, नीति सर्वधर्म समभाव की रहेगी। पूरे छह साल के शासनकाल में वह इसी रास्ते पर चले भी। छह दिसंबर 1992 को जब बाबरी मस्जिद गिरी, तो दूसरे दिन ही संसद का सत्र था। पूरे संसद परिसर में गहमागहमी का माहौल था, ज्यादातर भाजपा नेता नदारद थे, लेकिन उस वक्त भी वाजपेयी जी जसवंत सिंह के साथ संसद में आए और सेंट्रल हॉल में पत्रकारों से बातचीत में उनका पहला वाक्य था कि आज मेरा सिर शर्म से झुक गया है। इसके बाद किसी पत्रकार की उनसे दूसरा सवाल पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी, जबकि कुछ उत्तेजित पत्रकार भाजपा दफ्तर पर प्रदर्शन करने भी चले गए थे। कम ही लोगों को पता है कि वाजपेयी जी जिस भी सरकारी बंगले में रहे, भले ही वह पीएम हाउस रहा हो, वह लॉन में हमेशा शिवलिंग की स्थापना कराते थे। उस पर रोज जल चढ़ाकर, वहीं बैठकर पूजा करते थे। अपनी निजी निष्ठा को उन्होंने कभी दूसरों पर थोपना सही नहीं समझा।

अटल जी को गठबंधन राजनीति का प्रणेता भी माना जा सकता है। 22 दलों को मिलाकर उन्होंने छह साल तक सरकार चलाई और उसके बाद ही इस देश में गठबंधन राजनीति में रहने की आदत राजनीतिक दलों को पड़ी है। मैंने उन्हें नजदीक से काम करते देखा है, क्योंकि उन्होंने मुझे 14 सदस्यीय समन्वय समिति में नामजद किया था, जिसके अध्यक्ष वह स्वयं थे और अक्सर पीएम हाउस में मीटिंग बुलाकर वह सारे महत्वपूर्ण निर्णय समन्वय समिति की सहमति के बाद लेते थे। एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने के पहले उन्होंने समिति के सारे सदस्यों से अलग-अलग बातचीत करके निर्णय लिया था। और उसके बाद उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की भी सहमति ली। उन बैठकों में कई बार उनके दल के लोग कितनी भी जिद करते, लेकिन वह गठबंधन दलों के सुझाव पर ज्यादा ध्यान देते थे। कई बार प्रमोद महाजन जिद पकड़ लेते थे, लेकिन अटल जी तरीके से उन्हें समझा-बुझाकर चुप करा देते थे।

जहां तक विदेश में सम्मान की बात है, तो अटलजी किसी से कम नहीं रहे। एक बार उनकी अमेरिका यात्रा में मैं उनके साथ था। उन दिनों अटल जी घुटने के दर्द से बेहद परेशान थे और इंजेक्शन के सहारे चल रहे थे। बिल क्लिंटन खुद उनका हाथ पकड़कर उन्हें मीटिंग में सहारा देते थे। चीन के राष्ट्रपति के बाद अकेले अटलजी के सम्मान में बिल क्लिंटन ने व्हाइट हाउस के लॉन में अलग से तंबू लगवा विशाल रात्रिभोज रखा था। वरना सारे रात्रिभोज अंदर के हॉल में होते थे। उस भोज में क्लिंटन के सारे मंत्री मौजूद थे और अमेरिकी सरकार में जब यह संदेश जाता है कि भोज लॉन में दिया जा रहा है, तो उसका अलग ही असर पड़ता है। अटल जी को न्यूयॉर्क हमेशा अच्छा लगा। वर्षों वह संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन के दौरान भारतीय प्रतिनिधिमंडल में न्यूयॉर्क जाते थे और 45 दिनों तक वहां रहते थे। उन दिनों में वह अमेरिका में रह रहे भारतीयों से संपर्क बढ़ाते थे तथा किसी न किसी के यहां अक्सर डिनर पर जाते थे।

अटल जी का स्वभाव हमेशा दोस्ताना रहा। अपनी पार्टी से ज्यादा उनके दोस्त दूसरे दलों के होते थे, जिनसे वह लगातार संपर्क  में रहते थे। शायद यही वजह थी कि नरसिंह राव और अटल जी इतने दोस्त थे कि राव साहब उन्हें गुरु बुलाते थे और जेनेवा के एक महत्वपूर्ण प्रतिनिधिमंडल का नेता अपनी सरकार की तरफ से उन्होंने अटलजी को बनाया था। प्रणब मुखर्जी रायसीना रोड पर उनके पड़ोसी होते थे और दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती होती थी। एक बार अटलजी के कुत्तों ने प्रणब बाबू के बेहद प्रिय कुत्ते को घायल कर दिया। प्रणब बाबू बेहद दुखी थे, अटलजी को इसका एहसास हुआ और उन्होंने उनके  घर जाकर माफी मांगी। मॉर्निंग वाक के शौकीन अटलजी अक्सर प्रणब बाबू के साथ टहलते थे। इंदिरा जी से भी अटलजी के दूसरे किस्म के रिश्ते थे। इमरजेंसी में जेल में बेहद बीमार होने के बाद जब उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया, तो इंदिरा जी अक्सर उनका हालचाल लेती थीं और बेहतरीन इलाज के निर्देश उन्होंने डॉक्टरों को दिए थे। इंदिरा जी इस दौरान अटलजी के सुख-दुख में खड़े रहने वाले कौल परिवार के संपर्क में लगातार रहती थीं। राजीव गांधी भी जब प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने चुपके से अटलजी के स्वास्थ्य के चेकअप के लिए उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल में नामजद करके जबरदस्ती अमेरिका भिजवाया था। जब अटलजी खुद प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने गांधी परिवार के संपर्क में ब्रजेश मिश्रा को विशेष रूप से लगा रखा था।

खाने-पीने का अटल जी को हमेशा से शौक रहा। अच्छे खाने के लिए वह कहीं भी जाते थे। पीएम हाउस में भी उनके जमाने में हर मीटिंग में बेहतरीन समोसा, खस्ता कचौड़ी, जलेबी, गुलाब जामुन पेश किए जाते थे और डॉक्टरों की सलाह के बावजूद वह इन सबका पूरा मजा लेते थे। हर रविवार को उनके घर पर यूपी का खाना पूड़ी कचौड़ी, आलू टमाटर और कद्दू की सब्जी आदि बनती थी। उनके बारे में यह भ्रम है कि वह शराब पीते थे। वह खाने के शौकीन थे, पीने के नहीं। वह जिस शहर में जाते, वहां के खाने के अड्डे पर जरूर जाते थे। पटना में तो वह अपने मित्र पूर्व मंत्री ठाकुर प्रसाद के घर पर ही रुकते थे और इतने बडे़ नेता होने के बावजूद रिक्शे पर बैठकर समोसा खाने कदमकुआं चले जाते थे।

एक सहज, आध्यात्मिक व्यक्ति होने के नाते उन्हें हर बात का पहले से अंदाजा हो जाता था। मुझे याद है कि 2004 के चुनाव से पहले जब पूरे देश में यह माहौल था कि वह लौटकर आ रहे हैं। ‘इंडिया शाइनिंग’ का बोलबाला था, हर ओपिनियन पोल उन्हें जिता रहा था, अटल जी ने मुझसे स्वयं पीएम हाउस में पूरे विश्वास के साथ कहा था कि मैं लौटकर नहीं आने वाला हूं। मुझे उनकी बात पर यकीन नहीं हुआ, मगर चुनाव नतीजों के बाद मुझे एहसास हुआ कि वह कितने दूरदर्शी और अनुभवी हैं।

No comments:

Post a Comment