Monday, 6 July 2015

कांग्रेस के वंशवाद को करारा जवाब है राव का स्‍मारक @हर्ष वी. पंत

इतिहास अपने तरीके से न्याय करता है, जिसका पूर्वानुमान लगा पाना प्राय: मुश्किल होता है। नई दिल्ली के एकता स्थल समाधि परिसर में दिवंगत प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का स्मारक बनाने के लिए मोदी सरकार की पहल इसी की एक बानगी है। अपने निधन के दस वर्ष बाद नरसिंह राव अंतत: राष्ट्रीय राजधानी में अपने नाम का स्मारक पाने में सफल रहे। हो सकता है कि यह कदम कांग्रेस को शर्मिंदगी महसूस कराने के लिए हो, लेकिन इससे भारत के सबसे बेहतर प्रधानमंत्रियों में से एक राव को आखिरकार न्याय मिला है। एक ऐसी राजनीतिक पार्टी, जो वंशवाद में विश्वास करती है, वह कभी भी राव के इस सम्मान को स्वीकार नहीं करेगी।
कितना विचित्र है कि राव का स्मारक बनाने का फैसला एक ऐसे समय लिया गया, जब कुछ सप्ताह पहले ही कोयला खदानों के आवंटन से जुडे घोटाले में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ आरोप लगे। मनमोहन सिंह को आर्थिक सुधारों के वास्तविक शिल्पकार नरसिंह राव को दरकिनार किए जाने के बाद के वर्षों में कांग्रेस पार्टी द्वारा खड़ा किया गया था। प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दस वर्षों में मनमोहन सिंह को भारत के प्रति योगदान के लिए राव को याद करने का कभी भी समय नहीं मिला।
सच्चाई यही है कि उन्होंने तब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जब 2004 में राव की मौत के बाद उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के भवन में लाने नहीं दिया गया। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी ने हरसंभव तरीके से राव को उनके कार्यों का श्रेय देने से भी वंचित किया। हालांकि समसामयिक इतिहास में देश के लिए सर्वाधिक मुश्किल की घड़ी में प्रधानमंत्री के रूप में असाधारण काम करने के लिए राव को श्रेय मिलना ही चाहिए था। 1990 का शुरुआती समय एक ऐसा वक्त था, जब एक के बाद एक कमजोर सरकारों के कारण भारत आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक रूप से दिशाहीन हो गया था। दुनिया तेजी से बदल रही थी और भारतीय अर्थव्यवस्था ढह रही थी। भारत में असंतोष के लाखों स्वर उभर आए और इस उथलपुथल को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर का कोई भी नेता नजर नहीं आ रहा था। मंडल-मंदिर बहस के बीच जाति आरक्षण तथा अयोध्या मसले से देश के समक्ष एक बड़ी चुनौती और खतरा व्याप्त था।
ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में राव ने देश का नेतृत्व संभाला। उन्हें खुद अपनी ही पार्टी में वरिष्ठ साथियों का बमुश्किल ही समर्थन प्राप्त था। हर कोई प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश रखता था। राव को भले ही अनिर्णायक व्यक्ति के तौर पर दिखाया-दर्शाता जाता हो, लेकिन वे देश के सर्वाधिक निर्णायक नेता थे। सभी महत्वपूर्ण मसलों पर उन्होंने निर्णय लिए। उनके निर्णय ऐसे थे, जिन्होंने पिछले दो दशकों में भारत के उत्थान को नया आकार देने का काम किया। मनमोहन सिंह को भले ही भारत के आर्थिक सुधारों का जनक होने का श्रेय दिया जाता है, लेकिन यह राव ही थे, जिन्होंने इन सुधारों को शुरू किया। मनमोहन सिंह सीमित राजनीतिक समझ वाले एक आर्थिक टेक्नाक्रेट भर थे और वे शायद ही किसी समस्या को सुलझाने की योग्यता रखते थे। यह राव ही थे, जिन्होंने मनमोहन सिंह को खुद अपनी ही पार्टी के भीतर मौजूद वामपंथी 
धड़े से बचाए रखा।
राव एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आर्थिक उदारीकरण की योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में किसी तरह के विरोध को आड़े नहीं आने दिया और मनमोहन सिंह को पूरा संरक्षण प्रदान किया। राव ने एक ऐसे समय में आर्थिक सुधारों को राजनीतिक तौर पर संभव बनाया, जब खुद उनकी ही पार्टी इन महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी सुधारों में बाधक बनी हुई थी। राव ने बड़ी कुशलता के साथ आर्थिक नीति को विदेश नीति के साथ जोड़ा और इस बात को स्थापित करने में सफलता हासिल की कि यदि आर्थिक सुधारों को सफल बनाना है तो भारत को पश्चिमी देशों के सहयोग-समर्थन की जरूरत होगी। आज की विदेश नीति पर उनकी छाप को हर कहीं देखा जा सकता है। भारत मध्य-पूर्व में बारीक संतुलन कायम कर रहा है तो चीन के साथ स्थायी संतुलन की तलाश में है। पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुंच स्थापित करने के लिए लुक ईस्ट नीति में उनकी छाप को देखा जा सकता है। पोखरण-2 के बाद लगे प्रतिबंधों से बाहर निकलने में भी राव की पहले से बनाई गई नीतियों के चलते भारत को मदद मिली।
मध्य-पूर्व के मामलों में राव ने जो साहस दिखाया, वैसा कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं कर सका। उन्होंने 1992 में इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक रिश्ते स्थापित किए और साथ ही ईरान से संबंध कायम करने के लिए 1993 में तेहरान की उनकी यात्रा ऐतिहासिक रही। 1979 की क्रांति के बाद ईरान जाने वाले वे पहले प्रधानमंत्री थे। राव की लुक ईस्ट नीति का अपना महत्व है। वे बहुत जल्दी समझ गए थे कि वैश्विक अर्थव्यवस्था का केंद्र पूर्व की ओर खिसक रहा है और भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य पूर्वी एशिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ जुड़ाव में ही निहित है। उन्होंने आसियान देशों से संबंध न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए, बल्कि चीनी प्रभुत्व को संतुलित करने के लिहाज से भी कायम किए। राव के नेतृत्व में आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर पंजाब के हालात में उल्लेखनीय सुधार आया और भारतीय सुरक्षा बलों को कश्मीर के चरमपंथियों को नियंत्रित करने में मदद मिली।
यह बहुत विचित्र लगता है कि मनमोहन सिंह ने पार्टी में राव के योगदान को नकारे जाने को चुपचाप स्वीकार कर लिया। यह राव का ही दूरदर्शी राजनीतिक नेतृत्व था, जिससे 1990 की शुरुआत में आर्थिक सुधार संबंधी योजनाओं को शुरू किया जा सका। आज कांग्रेस उनके योगदान को बमुश्किल ही समझ पा रही है। ना तो सोनिया गांधी और ना ही राहुल गांधी इस मुद्दे पर नेतृत्व दिखा पा रहे हैं। वर्षों से कांग्रेस ने यही भ्रम फैलाया कि राम जन्मभूमि आंदोलन के प्रति राव की सहानुभूति थी। जबकि इस बात को भुला दिया गया कि राजीव गांधी सरकार ने ही विवादित ढांचे का ताला खुलवाया था

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