Friday, 10 July 2015

अयोध्या से उठा समझदारी भरा स्वर @जगदीश उपासने

श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुकदमे में 1961 से बाबरी मस्जिद के लिए मुकदमा लड़ रहे बुजुर्गवार मोहम्मद हाशिम अंसारी ने मुकदमे में से हटने की मंशा का ऐलान करते हुए दो अहम बातें कहीं। पहली यह कि वे 'रामलला को आजाद देखना चाहते हैं।' (‘रामलला तिरपाल में और नेता कोठियों में?’); और दूसरी कि, 'मंदिर तो बन ही चुका है, वहां पूजा हो रही है।' 1949 से चल रहे इस मुकदमे में हालांकि मुस्लिम पक्ष से हाशिम के अलावा दूसरे पक्षकार भी हैं और उनके हटने से उस मुकदमे की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, जो अब सुप्रीम कोर्ट के सामने है। लेकिन यह बात भी ध्यान रखी जानी चाहिए कि अंसारी ने ऐसी बात कोई पहली बार नहीं कही। सितंबर, 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जब राम जन्मभूमि का स्थान हिंदुओं को और विवादित भूखंड का दूसरा हिस्सा मुस्लिम पक्ष को देने का निर्णय सुनाया था—अब जिसे लेकर दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहे हैं—तब भी हाशिम अंसारी ने इस मुद्दे को यहीं दफन करने की अपील की थी। ऐसी अपील करने वाले वे अकेले नहीं थे। कांग्रेस के तब के सांसद राशिद अल्वी ने भी हिंदुओं और मुसलमानों से हाई कोर्ट का यह फैसला स्वीकार करने की पुरजोर अपील की थी।

हाशिम और अल्वी के बयान मुस्लिम समुदाय के उस व्यावहारिक सोच वाले तबके की प्रतिध्वनि थे, जिसे न केवल इलाहाबाद हाई कोर्ट के 8,000 से अधिक पृष्ठों में दिए गए फैसले के व्यापक आयाम की अहमियत और सत्यता का एहसास था, बल्कि जिसे यह समूचा टंटा सामाजिक सौहार्द के लिए घातक नजर आता था। देश के आम लोगों को श्री राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान और छह दिसंबर को ढांचा जमींदोज किए जाने के बाद छपी अनगिनत अखबारी रिपोर्टों में यह पढ़कर हमेशा आश्चर्य होता रहा कि इस मामले पर, एकाध मौके को छोड़कर, अयोध्या में हिंदू-मुस्लिमों में कभी कोई तनाव नहीं रहा। सरयू शांति से बहती रही और श्रद्धालुओं को तिरपाल तले विराजमान रामलला के दर्शन करने में कोई बाधा नहीं आई।

दरअसल, 2012 में आया इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला इस प्रकरण में इतना विस्तृत, स्पष्ट और तथ्यपूर्ण है कि यह भारत की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास के प्रति गहरी अंतर्दृष्टि देता है, और इसीलिए यह न्यायिक तथा अकादमिक क्षेत्र में मील का पत्थर बन गया है। इस फैसले पर पहुंचने से पहले तीनों न्यायाधीशों ने पुरातत्व, इतिहास, साहित्य, पुराणों, उपनिषदों, जातक साहित्य, भाषाशास्त्र, नृविज्ञान के साक्ष्यों से लेकर संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, जर्मन, उर्दू के साहित्य, स्रोतों और सबूतों, वर्ष 1877 से लेकर 1902 तक के कई सरकारी गजेटियरों तथा 1891 के सर्वेक्षण से लेकर मुकदमे के दौरान किए गए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग के उत्खनन और रिमोट सेंसिंग जांच तक की गहरी छानबीन की। मजेदार बात यह है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने जो 'स्वतंत्र विशेषज्ञ’, इतिहासकार और पुरातत्वविद अपना पक्ष मजबूत करने के लिए पेश किए थे, उन सभी को अदालत ने तवज्जो नहीं दी। दरअसल तीन न्यायाधीशों में से एक ने तो इन ‘विशेषज्ञों’ के रुख को 'शुतुरमुर्ग जैसा' निरूपित किया। इन विशेषज्ञों के लिखित बयान पर यहां तक टिप्पणी दर्ज की गई कि '(इससे) सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाने में मदद मिलने के बजाय इससे अधिक विसंगतियां, संघर्ष और विवाद खड़े हो सकते हैं।'

फैसले में तीनों न्यायाधीशों ने सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा नकार दिया। यहां तक कि जस्टिस सिगबतउल्लाह खान ने भी कहा कि यह साबित नहीं होता कि निर्मित इमारत (तीन गुंबद) सहित विवादित स्थान बाबर या जिस किसी ने मस्जिद बनाई या जिसके आदेश पर बनाई गई, उस व्यक्ति की मिल्कियत है। बाकी दोनों जजों ने दशकों से चले उन विवादित सवालों का निर्णय किया, जिन पर उनसे पहले किसी अदालत या सरकार ने गौर करने का साहस नहीं जुटाया था। पहली बात जो निर्विवाद रूप से मानी गई, वह यह थी कि हिंदुओं की आस्था के अनुसार विवादित मुख्य गुंबद के नीचे की जगह श्रीराम का जन्मस्थान है। यह भी स्वीकार किया गया कि विवादित गुंबद हिंदू मंदिर को तोड़कर उसकी जगह बनाया गया। न तो वहां मुस्लिम अबाधित रूप से नमाज पढ़ते रहे और न ही विवादित स्थान पर वादी (सुन्नी बोर्ड) का निरंतर स्वामित्व और अधिकार ही रहा। जस्टिस अग्रवाल ने निर्णय दिया कि हिंदुओं को चरण और सीता रसोई तथा दूसरी मूर्तियों की पूजा-अर्चना करने का अधिकार है। अदालत ने यह भी कहा कि तीन गुंबदों वाला निर्माण चहुं ओर से हिंदू पूजास्थलों से घिरा है और उस तक इन पूजास्थलों से होकर ही पहुंचा जा सकता है। जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने भी निर्णय दिया कि हिंदू मंदिर को तोड़कर विवादित ढांचा बनाया गया। स्वाभाविक है कि इतने स्पष्ट फैसले के बाद हाशिम अंसारी और अल्वी जैसे लोग निर्णय स्वीकार कर लेने और 'रामलला को आजाद करने' की वकालत करें।

हिंदू भी चाहेंगे कि मुस्लिम समाज में सौहार्द की पक्षधर आवाजें बुलंद हों, इसलिए अगर अंसारी से लेकर इस विवाद से जुड़े अन्य लोगों से भी मेल-मिलाप की कोशिशें हो रही हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। विश्व हिंदू परिषद इस मुद्दे को अदालत में ही लड़ने पर ध्यान दे रही है, कोई आंदोलन अभी शायद ही वह करे। अंसारी ने अपने बयान में जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताया है, उससे साफ झलकता है कि सबका साथ सबका विकास में मुस्लिम समुदाय के बड़े तबके का भरोसा जमा है। विकास, उन्नति और उम्मीदों के नए सोपान पर पहुंचा नया भारत सदियों से शूल की तरह गड़ रहे इस मसले का निश्चय ही शांतिपूर्ण और मान्य निदान चाहता है। लेकिन जैसा कि हाशिम ने कहा, 'अदालतों में कयामत तक इसका फैसला नहीं हो सकता।' यह ऐसा रहस्य है, जिसे हर कोई जानता है!

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