गांधीजी अकेले चलने से नहीं डरते थे। आज के भारतीय राजनेताओं में इसका साहस नहीं है, लेकिन क्या वे शांति के लिए औरों को साथ नहीं ले सकते।चौदह अगस्त पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस होता है। 15 अगस्त भारत का स्वतंत्रता दिवस होता है। ये दोनों दिवस सबसे पहले सन 1947 में मनाए गए थे। इन दोनों देशों के जन्म का मामला सन 1946 में अगस्त के एक और दिन से जुड़ा हुआ है, जिसे सौभाग्य से कभी दोहराया नहीं गया।16 अगस्त, 1946 को मुस्लिम लीग ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की घोषणा की थी। उसके नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि अब या तो भारत का विभाजन होगा या विध्वंस होगा। उस दिन हुई हिंसा ने ऐसे घटनाचक्र को जन्म दिया, जिससे भारत का विभाजन अनिवार्य हो गया। कलकत्ता में दंगे शुरू हुए और वे जल्दी ही बंगाल के ग्रामीण इलाकों में पहुंच गए। उसके बाद तो बिहार और संयुक्त प्रांत में दंगे फैल गए और अंत में सबसे भयानक दंगे पंजाब में हुए। पिछले दिनों पुरानी दस्तावेजों का अध्ययन करते हुए मुङो कलकत्ता में उस दिन हुई घटनाओं से जुड़ी एक दस्तावेज देखने को मिली। नृवंश शास्त्री निर्मल कुमार बोस ने अपने मित्र लेखक कृष्ण कृपलानी को एक चिट्ठी लिखी थी। यह दो सितंबर 1946 को लिखी गई थी। चिट्ठी की शुरुआत ऐसे होती है- ‘16 तारीख की शुरुआत सबके लिए आशंका के साथ हुई। कोई नहीं जानता था कि क्या होने वाला है? मुस्लिम लीग के नेता ख्वाजा नजीमुद्दीन ने बयान दिया था कि मुसलमान अहिंसा में विश्वास नहीं रखते, लेकिन हमने यह नहीं सोचा था कि लूटपाट वगैरह के लिए उन्होंने इतनी तैयारी कर रखी है। लूटपाट शुरू होने के बाद कहीं कोई पुलिस वाला नजर नहीं आया, यहां तक कि ट्रैफिक पुलिस को भी हटा लिया गया था। दोपहर के आसपास श्याम बाजार में झगड़ा शुरू हुआ और फिर दूसरे क्षेत्रों में पहुंच गया। मैदान में दो बजे के आसपास मुसलमानों की एक बड़ी सभा होनी थी और उसके लिए भीड़ काशीपुर की ओर से करीब 12 बजे आने लगी थी। सबने आशंका के साथ यह देखा कि आंदोलनकारी हाथों में लाठियां और पत्थर लिए हुए थे।..आंदोलनकारियों ने दुकानदारों से अपनी दुकानें बंद करने को कहा और जब तक वे ऐसा कर पाते, तब तक वैद्य की दुकान लूट भी ली गई थी, एक डॉक्टर के मकान पर भी हमला किया गया और लोगों ने जलते हुए कपड़े टूटे दरवाजे से अंदर फेंके। आसपास के घरों से 10-15 लड़के लाठियां लेकर आए और भीड़ का मुकाबला करने लगे।’चिट्ठी में आगे बताया गया है कि कैसे सारे शहर में हिंसा फैली और उत्तरी कलकत्ता की विभिन्न बस्तियों में चाकूबाजी और हत्याएं शुरू हो गईं। लोग शहर के अलग-अलग हिस्सों से आकर जले हुए मकानों, काट दी गई औरतों और दुकानों के लूटने के किस्से सुनाने लगे। इनमें से कुछ बाद में गलत साबित हुए, लेकिन लोग बहुत डर गए थे और हर कहानी पर भरोसा कर रहे थे। 17 और 18 अगस्त को दंगे ज्यादा क्षेत्रों में फैल गए और लोग घबराकर अपनी आत्मरक्षा में हिंसा पर उतर आए। पुलिस कहीं नहीं थी और लोगों को यह लगा कि उनके बचने की उम्मीद इसी में है..।अगले दिन, यानी 19 अगस्त को सेना बुला ली गई और धीरे-धीरे शहर शांत हो गया। जब बोस शहर का मुआयना करने निकले, तो उन्होंने देखा कि दजर्नों लाशें यहां-वहां पड़ी हैं। वे फूल गई थीं और हवा में बदबू भरी हुई थी। आसमान पर लगभग एक हफ्ता गिद्ध मंडराते रहे। दूसरी ओर अच्छा यह हुआ कि हर तरफ राहत के कार्य शुरू हो गए। पैसा, कपड़े, सब्जियां और सेवाभावी लोग हर तरफ से उमड़ रहे थे, लेकिन दंगों का डंक अंदर रह गया था। ऐसा कोई राहत केंद्र नहीं था, जिसमें हिंदू और मुसलमान, दोनों धर्मो के शरणार्थी हों। ‘बोस ने जब लोगों से बात की, तो ऐसे कई प्रसंग पता लगे’ जब हिंदुओं ने मुसलमानों की और मुसलमानों ने हिंदुओं की रक्षा की, लेकिन कुल जमा डर और अविश्वास, दोनों ही ओर फैला हुआ था। लोग एक से दूसरे इलाके में बसने जा रहे थे, पर भगवान ही जानता था कि इससे क्या फायदा होगा।बोस ने अपनी चिट्ठी का अंत कुछ निजी भावनाएं व्यक्त करने से किया है- ये ‘संदेह और आशंका के दिन थे। इस बीच मैं सिर्फ यह महसूस कर पाया कि घबराए हुए लोगों में मेरा प्रभाव कुछ नहीं है, मेरे अन्य मित्रों का अनुभव भी वैसा ही है। कुछ ने दंगों को रोकने का साहसिक काम किया, लेकिन उनका कुल प्रभाव बहुत कम था। मुङो लगने लगा कि मेरे जैसे कायर की व्यक्तिगत अहिंसा, हिंसा के भावुक प्रवाह को रोक नहीं सकती। अगर मेरी अहिंसा इस तरह की होती कि मैं अपने हिंदू भाइयों की हिंसा रोकने में अपनी जान दे देता, तो शायद उसका ज्यादा प्रभाव पड़ता, लेकिन मैं उस ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाया और न ही मुङो ऐसा कोई अवसर मिला। मैं रात में हिंसक भीड़ के बीच पहुंच जाता, तो शायद मुङो कोई ऐसा अवसर मिल जाता। लेकिन मेरी कायरता ने मुङो रोक लिया। मेरे एक मित्र ने मुसलमानों को इस तरह बचाने की कोशिश की, लेकिन जब तक वह भीड़ को रोक पाता, तब तक उस पर घातक प्रहार हो चुका था।’बोस की अंतिम पंक्तियां बहुत मार्मिक हैं। उन्होंने लिखा कि ‘जहां मैं अकेले चलने से डरता हूं, वहां मुङो लोगों के साथ चलना चाहिए। अगर ऐसा समूह बन पाया, तो आध्यात्मिक रूप से हम एक-दूसरे की मदद कर पाएंगे और संगठन के जरिये अहिंसा को मजबूत बना पाएंगे।’कलकत्ता में हिंसा मुस्लिम लीग ने शुरू की थी, लेकिन ¨हसा के ज्यादा शिकार मुसलमान हुए। उसकी प्रतिक्रिया में पूर्वी बंगाल के नोआखली जिले में हिंसा भड़क उठी। नवंबर 1946 में महात्मा गांधी ने शांति स्थापित करने के लिए नोआखली का दौरा किया। उनके साथ निर्मल कुमार बोस भी थे। गांधीजी ने निर्मल कुमार बोस को दो वजहों से साथ रखा था। बोस गांधीजी के विचारों और तौर-तरीकों से वाकिफ थे और वह बांग्ला बोल सकते थे। वह गांधी की बातों का ग्रामीण जनता के लिए अनुवाद कर सकते थे। बोस गांधीजी के साथ नोआखली और बिहार में कई महीने रहे। इस बात का आज महत्व इसलिए है कि आज भी भारत में सांप्रदायिक स्थिति सामान्य नहीं है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हुई हैं। इन घटनाओं की रपटें उस दौर के बंगाल और बिहार से बहुत मिलती-जुलती हैं। जहां हिंदुओं और मुसलमानों ने भय और अविश्वास की वजह से एक-दूसरे पर हमले कर दिए थे। निर्मल बोस ने अपने मित्र से कहा था कि जब मैं अकेला चलने से डरता हूं, वहां मुङो औरों को भी साथ लेना चाहिए। उसके तुरंत बाद गांधीजी कलकत्ता पहुंचे। गांधीजी अकेले चलने से नहीं डरते थे। अब के भारतीय राजनेताओं में अकेले चलने का नैतिक साहस नहीं है, लेकिन क्या वे शांति के लिए औरों को साथ नहीं ले सकते? यदि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक सर्वदलीय समूह उत्तर प्रदेश जाए, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष और अन्य महत्वपूर्ण नेता भी शामिल हों, तो वे भी उस राज्य में सामाजिक शांति स्थापित कर सकते हैं।
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