लाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद सिविल सोसायटी की महत्ता फिर से स्थापित होने की उम्मीद कर रहे हैं सुधांशु रंजन
बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने की घोषणा के बाद जो खबरें मीडिया में आई हैं उन पर विचार करने की जरूरत है। पहली खबर यह है कि अधिकतर लोग यह नहीं जानते थे कि यह व्यक्ति कौन है। मैं व्यक्तिगत बातचीत के आधार पर कह सकता हूं कि ऐसा पूछने वालों में कई प्रख्यात बुद्धिजीवी एवं विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक हैं। तो क्या यह उनकी अनभिज्ञता है, जो उनके बुद्धिजीवी होने पर सवाल खड़े करती है? यह सवाल दरअसल मीडिया की भूमिका पर है जिसे राजनेताओं, फिल्मी कलाकारों तथा क्रिकेट खिलाड़ियों के चेहरे दिखाने और उनके बारे में समाचार देने से फुर्सत ही नहीं है।
जहां किसी राजनीतिक दल का एक छोटा-मोटा नेता या प्रवक्ता भी रोज टीवी पर बैठा मिल जाएगा और अखबारों के प्रथम पृष्ठ पर फोटो सहित उसके बयान होंगे, वहीं नागरिक समाज के प्रतिनिधियों की घनघोर उपेक्षा होती है। यहीं दूसरा सवाल है कि नागरिक समाज की भूमिका आखिर है क्या समाज या राष्ट्र निर्माण में? तीसरा सवाल है नोबेल पुरस्कार की निष्पक्षता को लेकर।
जहां तक सिविल सोसायटी का सवाल है, यह निर्विवाद है कि केवल सरकार सभी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। भारत एक नायाब मुल्क है जिसने नागरिक समाज की महत्ता को सबसे पहले पहचाना। सैद्धांतिक रूप से हॉब्स, लॉक एवं रूसो ने राज्य की उत्पत्ति का आधार सामाजिक अनुबंध को माना। रूसो ने जनरल विल की बात कही, हालांकि उसे उन्होंने स्पष्टता से परिभाषित नहीं किया। तीनों विचारक यह मानते थे कि जनता की सहमति के बिना बनाया गया राज्य अवैध है। जहां हॉब्स ने राज्य निर्माण के बाद सारे अधिकार राज्य को दे दिए और नागरिकों को अधिकारहीन कर दिया वहीं रूसो एवं लॉक ने नागरिकों को असहमति एवं विद्रोह का अधिकार दिया। यहीं नागरिक समाज की भूमिका आती हैं। जॉन स्टुअर्ट मिल ने तो हरेक व्यक्ति को विरोध करने का अधिकार दिया यदि किसी मुद्दे पर उसकी असहमति है। महात्मा गांधी तो इसमें मिल से भी आगे निकल गए। उनका मानना था कि यदि किसी मुद्दे पर किसी को असहमति है तो विरोध करना न केवल उसका अधिकार है, बल्कि कर्तव्य भी है। महात्मा गांधी सिविल सोसायटी की महत्ता को समझते थे। इसलिए वे विश्व के पहले नेता निकले जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम का सफल नेतृत्व करने के बाद भी सत्ता के शीर्ष पर बैठना पसंद नहीं किया। उनका भरोसा लोकशक्ति पर था। इसी दर्शन को आगे बढ़ाया लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जिन्होंने अपने को सत्ता से अलग रखा।
उनका मत था कि राजसत्ता पर लोकसत्ता का नियंत्रण होना चाहिए। दादा धर्माधिकारी ने मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मंत्री बनने से इन्कार कर दिया। कृष्ण दास जाजू को सरदार पटेल ने केंद्र में वित्तमंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया। वह चरखा संघ के अध्यक्ष थे। उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वित्त मंत्री का काम करने के लिए बहुत लोग मिल जाएंगे, परंतु चरखे का काम करने वाला कोई नहीं मिलेगा। इसी तरह गांधीवादी अर्थशास्त्री जेई सी कुमारप्पा ने सांसद या मंत्री बनने से इन्कार कर दिया, क्योंकि उनकी नजर में एक मजबूत राष्ट्र बनाने में सामाजिक कार्यकर्ताओं की निर्णायक भूमिका हैं।
1 फरवरी 1948 को एक लेख में कुमारप्पा ने लिखा, 'सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ताओं का गुट सरकार को निर्देश एवं दिशा देगा अपने उदाहरणों से।' यह लेख गांधीजी की एक छोटी टिप्पणी (पुनश्च) के साथ छपा था जिसमें उन्होंने लिखा, 'यह बहुत आकर्षक है। लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि हमारे पास नि:स्वार्थ कार्यकर्ताओं की जरूरी संख्या नहीं है जो अपने बारे में अच्छा हिसाब देने में सक्षम हों।' इसके छह दिनों बाद उनकी हत्या हो गई। यह सर्वविदित है कि गांधी कांग्रेस को विघटित कर लोकसेवक संघ बनाना चाहते थे। वह इसका मसौदा तैयार करने वाले थे, किंतु उनकी हत्या हो गई। यदि गांधी-जेपी अथवा कुमारप्पा का सपना साकार रूप ले पाता तो सरकार के ऊपर नागरिक समाज का जबर्दस्त दबदबा होता और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए लोकपाल/लोकायुक्त की आवश्यकता नहीं होती। इस मायने में कैलाश सत्यार्थी का चयन महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे नागरिक समाज को बल मिलेगा। हालांकि बहुत सारे सामाजिक कार्यकर्ता उनके चयन पर सवाल खड़ा कर रहे हैं, जो स्वाभाविक है। ऐसा अकसर होता है। इसमें प्रतिद्वंद्विता एवं ईष्र्या का तत्व भी हो सकता है। परंतु एक सवाल उठता है। कैलाश सत्यार्थी के प्रशस्ति पत्र में लिखा गया है कि वह गांधी के मार्ग पर चलें। ऐसा कर नोबेल कमेटी ने गांधी को यह सम्मान न देने की भूल को स्वीकार किया है। पहले भी उसने स्वीकार किया कि गांधी को पुरस्कार न देना सबसे बड़ी चूक थी। परंतु सवाल है कि इसमें इतना विलंब क्यों हुआ?
विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण को नोबेल मिलना चाहिए था। जिस देश में अधिकतर हत्याएं जमीन के लिए होती हैं वहां विनोबा ने लाखों एकड़ जमीन भूमिहीनों के लिए दान में ले ली। वह भू-स्वामियों को कहते थे, 'मैं आपको प्यार से लूटने आया हूं।' भूदान एक राष्ट्रीय जनांदोलन बन गया था। इसी प्रकार जेपी ने 1974-75 में अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसकी परिणति मार्च 1977 में पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन के रूप में हुई। यह विश्व की एक अनोखी घटना थी कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में खून का एक कतरा बहे बिना सत्ता परिवर्तन हुआ। इस सत्ता परिवर्तन ने देश में लोकतंत्र को बहाल कर दिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्यार्थी को मिलने वाला सम्मान सिविल सोसायटी को मजबूत बनाएगा। यह इसलिए भी उत्साहवर्द्धक है, क्योंकि सत्यार्थी एक मामूली परिवार से आते हैं, हिंदी बोलते हैं और आचार-व्यवहार से पूरी तरह देसी हैं। बाल अधिकार की समस्या को अब ज्यादा गंभीरता से लिया जाएगा, क्योंकि एक नोबेल पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति की आवाज सुनी जाएगी।
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