ब्रिटिश गुलामी के बारे में हमारे यहां तर्क दिया जाता है कि रेलवे, डाक सेवा तथा सेना आदि की शुरुआत अंग्रेजों के कारण ही हुई। जबकि इससे उलट कुछ महीने पहले कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के मंच पर हुई बहस में यह बात मजबूती से रखी कि इंग्लैंड का विकास बहुत हद तक भारत को गर्त में धकेलने और लूटी गई संपत्ति के कारण था। इस बारे में दादाभाई नौरोजी ने 1856 में पॉवर्टी इन इंडिया पुस्तक में एक व्याख्या प्रस्तुत की थी।
21 मार्च 1916 को इंडियन लेजिस्लेटिव काउंसिल में सर इब्राहिम रहमतुल्ला ने प्रस्ताव रखा था कि उद्योगों के विकास के साथ वित्तीय स्वशासन और खास तौर पर आयात-निर्यात तथा उत्पादन शुल्कों आदि की व्यवस्था पर एक समिति विचार करे। वाणिज्य सदस्य सर विलियम क्लार्क ने कहा था कि इस पर प्रथम विश्वयुद्ध के बाद विचार होगा। उनका यह भी कहना था कि भारत सरकार की ओर से प्रथम औद्योगिक कमीशन का गठन भारतीय आत्मनिर्भता पर विचार के लिए किया जाएगा। काउंसिल के सदस्य पंडित मदन मोहन मालवीय को भी टी एच हॉलैंड की अध्यक्षता में गठित आठ सदस्यीय समिति का एक सदस्य नियुक्त किया गया। कमीशन के आधिकारिक विचार के समानांतर मालवीय जी ने एक लंबा असहमति नोट पेश किया था।
मालवीय जी ने प्रो. वेबर, रानाडे आदि को उद्धृत करते हुए बताया कि रोम में भारत की बनी हुई वस्तुओं की बहुत खपत थी। इतिहासकार प्लिनी की शिकायत थी कि भारत निर्यात के जरिये काफी संपत्ति अर्जित कर लेता है। दो हजार वर्ष पहले भारत में उच्च कोटि की सूत की कताई और बुनाई होती थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के आने से पहले भारत व्यवसाय एवं कृषि प्रधान देश था। भारत की व्यावसायिक क्षमता के कारण ही यूरोपीय व्यापारियों ने भारत से व्यापार शुरू किया था। मरे के अनुसार भारतीय वस्त्रों की गुणवता उत्तम थी। लॉर्ड क्लाइव ने मुर्शिदाबाद के बारे में बताया कि 1757 में इसकी घनी आबादी लंदन जैसी थी तथा उसकी समृद्धि आश्चर्यचकित करती थी।
पर ईस्ट इंडिया कंपनी की जड़ जमने के बाद निर्यात में कमी आने लगी। वर्ष 1820 तक ढाका के मलमल तथा सूती माल का निर्यात पूरी तरह बैठ गया था। भारतीय रूई निर्यातकों को इंग्लैंड में चुंगी अदा करनी पड़ती थी। जबकी भारत में ब्रिटिश माल या तो बिना चुंगी दिए या मामूली चुंगी देकर आते थे। मशीनी करघों और भाप के इंजन से चलने वाली मशीनों के कारण अंग्रेजी माल भारत में प्रचुर मात्रा में आने लगा। अनाप-शनाप टैक्स के कारण निर्यात नष्ट हो गया और भारत खेतिहर देश बन गया।
ब्रुक्स एडम्स की पुस्तक द लॉ ऑफ सिविलाइजेशन ऐंड डिके में कहा गया है कि जब क्लाइव भारत आए थे, तब इंग्लैंड पर 7.45 करोड़ पाउंड का कर्ज था। भारत की लूट-खसोट से वह कर्ज से उबर पाया। इस लूट-खसोट के कारण 1800 से 1900 तक भारत में 31 अकाल पड़े, जबकि 1854 से 1901 के बीच करीब पौने तीन करोड़ लोगों की मौत हुई।
मालवीय जी ने तब कहा था, भारतीय उद्योगों के मामले में भारत का हित ही हमारा पहला, दूसरा और तीसरा ध्येय होना चाहिए। पहला ध्येय यह कि यहां के कच्चे माल को उपयोग में लाना चाहिए, दूसरा यह कि उद्योग-धंधे खोलने चाहिए और तीसरा ध्येय यह कि इनका लाभ देश में ही रहना चाहिए। यदि इस भाव से प्रेरित होकर भारतीय औद्योगिक उन्नति के साधनों को काम में लाया जाएगा, तभी देश समृद्धिशाली होगा।
-काशी हिंदू विश्वविद्यालय में विशेष कार्याधिकारी
21 मार्च 1916 को इंडियन लेजिस्लेटिव काउंसिल में सर इब्राहिम रहमतुल्ला ने प्रस्ताव रखा था कि उद्योगों के विकास के साथ वित्तीय स्वशासन और खास तौर पर आयात-निर्यात तथा उत्पादन शुल्कों आदि की व्यवस्था पर एक समिति विचार करे। वाणिज्य सदस्य सर विलियम क्लार्क ने कहा था कि इस पर प्रथम विश्वयुद्ध के बाद विचार होगा। उनका यह भी कहना था कि भारत सरकार की ओर से प्रथम औद्योगिक कमीशन का गठन भारतीय आत्मनिर्भता पर विचार के लिए किया जाएगा। काउंसिल के सदस्य पंडित मदन मोहन मालवीय को भी टी एच हॉलैंड की अध्यक्षता में गठित आठ सदस्यीय समिति का एक सदस्य नियुक्त किया गया। कमीशन के आधिकारिक विचार के समानांतर मालवीय जी ने एक लंबा असहमति नोट पेश किया था।
मालवीय जी ने प्रो. वेबर, रानाडे आदि को उद्धृत करते हुए बताया कि रोम में भारत की बनी हुई वस्तुओं की बहुत खपत थी। इतिहासकार प्लिनी की शिकायत थी कि भारत निर्यात के जरिये काफी संपत्ति अर्जित कर लेता है। दो हजार वर्ष पहले भारत में उच्च कोटि की सूत की कताई और बुनाई होती थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के आने से पहले भारत व्यवसाय एवं कृषि प्रधान देश था। भारत की व्यावसायिक क्षमता के कारण ही यूरोपीय व्यापारियों ने भारत से व्यापार शुरू किया था। मरे के अनुसार भारतीय वस्त्रों की गुणवता उत्तम थी। लॉर्ड क्लाइव ने मुर्शिदाबाद के बारे में बताया कि 1757 में इसकी घनी आबादी लंदन जैसी थी तथा उसकी समृद्धि आश्चर्यचकित करती थी।
पर ईस्ट इंडिया कंपनी की जड़ जमने के बाद निर्यात में कमी आने लगी। वर्ष 1820 तक ढाका के मलमल तथा सूती माल का निर्यात पूरी तरह बैठ गया था। भारतीय रूई निर्यातकों को इंग्लैंड में चुंगी अदा करनी पड़ती थी। जबकी भारत में ब्रिटिश माल या तो बिना चुंगी दिए या मामूली चुंगी देकर आते थे। मशीनी करघों और भाप के इंजन से चलने वाली मशीनों के कारण अंग्रेजी माल भारत में प्रचुर मात्रा में आने लगा। अनाप-शनाप टैक्स के कारण निर्यात नष्ट हो गया और भारत खेतिहर देश बन गया।
ब्रुक्स एडम्स की पुस्तक द लॉ ऑफ सिविलाइजेशन ऐंड डिके में कहा गया है कि जब क्लाइव भारत आए थे, तब इंग्लैंड पर 7.45 करोड़ पाउंड का कर्ज था। भारत की लूट-खसोट से वह कर्ज से उबर पाया। इस लूट-खसोट के कारण 1800 से 1900 तक भारत में 31 अकाल पड़े, जबकि 1854 से 1901 के बीच करीब पौने तीन करोड़ लोगों की मौत हुई।
मालवीय जी ने तब कहा था, भारतीय उद्योगों के मामले में भारत का हित ही हमारा पहला, दूसरा और तीसरा ध्येय होना चाहिए। पहला ध्येय यह कि यहां के कच्चे माल को उपयोग में लाना चाहिए, दूसरा यह कि उद्योग-धंधे खोलने चाहिए और तीसरा ध्येय यह कि इनका लाभ देश में ही रहना चाहिए। यदि इस भाव से प्रेरित होकर भारतीय औद्योगिक उन्नति के साधनों को काम में लाया जाएगा, तभी देश समृद्धिशाली होगा।
-काशी हिंदू विश्वविद्यालय में विशेष कार्याधिकारी
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