इतिहास की धुंध भरी गलियों में कभी-कदा हमारा सामना हताशा भरे निष्कर्षों से होता है। कुछ समझदार इंसान इनसे सबक लेकर अपनी जिंदगी में सुधार लाते हैं, पर इंसानियत? पहले विश्व-युद्ध के सौ साल पूरे होने के मौके पर मैं आपके साथ कुछ तथ्य और सवाल साझा करना चाहता हूं। पूरी दुनिया के इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों में इस समय बहस पुरगर्म है कि उस महायुद्ध से मिला क्या? कोई मुझसे पूछे, तो मैं समूची विनम्रता से यही कहूंगा कि उस विश्व-युद्ध ने दूसरी बड़ी जंग की नींव रखी और इन दोनों विभीषिकाओं से उपजे यक्ष प्रश्न आज भी मानवता को भयभीत करते हैं। पहले महायुद्ध का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि इसमें लगभग 62 हजार भारतीय सैनिक मारे गए और 67 हजार घायल हुए। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि हमारे करीब सवा लाख सैनिकों ने इस थोपी गई लड़ाई में शहादत दी। परदेसी भूमि पर अजनबी लोगों के हाथों मारे जाते हुए हमारे ये पूर्वज लड़ किसके लिए रहे थे? किसी आर्यावर्त, किसी जंबूद्वीप, किसी हिन्दुस्तान या किसी भारतवर्ष के लिए? नहीं। वे ‘इंडिया’ के लिए कट-मर रहे थे। वह ‘इंडिया’, जिस पर बरतानिया की महारानी की हुकूमत थी और उन्हीं के प्यादों के इशारों पर उन्हें जान देनी पड़ रही थी।
ऐसा सिर्फ भारतीयों के साथ नहीं हुआ। ब्रिटेन की साथी और विरोधी, जितनी भी साम्राज्यवादी शक्तियां थीं, सबने अपने ‘गुलामों’ को इसमें झोंक दिया। यह युद्ध महाभारत से भी ज्यादा दुखदायी था। महाभारत में कम-से-कम नायक और खलनायक तो आमने-सामने थे। यहां कौन नायक था, कौन खलनायक, कौन जीत रहा था, कौन हारने वाला था, कौन कुछ हासिल कर रहा था, कौन लुट रहा था, इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं थे। यूरोप के औद्योगीकरण से उपजे नवोदित लोकतंत्रों और राष्ट्रीय अहंकारों के एक अभिमानपूर्ण अभियान का परिणाम था पहला विश्व-युद्ध। यह शुरू कैसे हुआ? 28 जून, 1914 को ऑस्ट्रिया के राजकुमार फ्रेन्ज फर्डिनेंड की सारायेवो में हत्या कर दी गई। इसके तत्काल बाद जंग ने किस्त-दर-किस्त इंसानियत को अपनी जद में लेना शुरू किया। इंग्लैंड ने चार अगस्त को आधिकारिक रूप से इसमें कूदने का ऐलान किया।
यहीं से भारतीयों के रक्त-स्नान के अभियान की नींव पड़नी शुरू हुई। सवाल उठता है, इस दारुण समय में हमारे वे नेता क्या कर रहे थे, जिन पर आज आजाद हिंद को नाज है? कृपया जान लें। उस समय मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट रहे थे। राष्ट्रवादी सोच के बाल गंगाधर तिलक युद्ध शुरू होने तक बर्मा की मंडलोई जेल में थे। कांग्रेस की कमान थी उदारवादी गोपालकृष्ण गोखले के हाथों में। कहने की जरूरत नहीं कि भारत हमेशा की तरह वैचारिक चौराहे पर खड़ा था। कुछ लोगों का कहना था कि ब्रिटिश राज इस समय कमजोर है। यही समय है, जब हम विद्रोह कर दें और अंग्रेजों को अपनी सरजमीं से मार भगाएं।
इसी दौर में लाला हरदयाल की अगुवाई में गदर पार्टी बन चुकी थी। उसे सिंगापुर में आंशिक सफलता भी मिली, पर क्रांति भारतीयों के रक्त में नहीं। इस बीच तिलक जेल से छूट गए थे, उन्होंने ‘होम रूल’ की मांग उठा दी। बड़े पैमाने पर लोग उनके साथ थे। इसके उलट गोखले संकट के समय में अंग्रेजों का साथ छोड़ने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने तर्क रखा कि हम इस लड़ाई में गोरों का साथ दें और बदले में उनसे स्वतंत्रता की मांग रखें। गांधी ने भी वापसी के बाद यही रास्ता पकड़ा और शुरू हो गया भारतीयों की अनजान रणक्षेत्रों में बलि का सिलसिला।
अपरिचित जगहों पर लड़ी जा रही इन लड़ाइयों में भारतीयों का इस्तेमाल अग्रिम मोर्चों पर किया गया। कहा जाता है कि यूरोपीय फौजियों में उनका बड़ा आतंक था। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि हिन्दुस्तानी फौजी परंपरागत तौर पर आमने-सामने की लड़ाई में पारंगत होते हैं। तलवार और कटार हमारे आदिकालीन हथियार हैं और फिर लंबे समय से राजपूत शत्रु को सामने से पटकनी देने में गर्व महसूस करते थे। यही वजह थी कि हिन्दुस्तानी और नेपाली फौजियों को शत्रु की खाइयों में घुसने का काम सौंपा जाता। दुश्मन उन्हें गोलियों की बौछार से रोकने की कोशिश करते थे। अपने इष्ट देवताओं के नाम के नारे लगाती यह फौज गोलियों का सामना करते हुए आगे बढ़ती। कई हताहत हो जाते, पर जो बचते, वे दुश्मन की खाइयों में घुसकर संहार मचा देते।
पता नहीं कैसे, जर्मनी और उसके दोस्त देशों के दस्तों में यह खबर फैल गई कि भारतीय फौजी दुश्मनों का खून पी जाते हैं, उन्हें कच्चा चबा जाते हैं। इससे उन पर दहशत बरपा हो गई। आप जानते हैं, जंग बंदूकों से नहीं, बल्कि दिमाग से जीती जाती है। इस अफवाह ने जहां दूसरे पक्ष का मनोबल गिराया, वहीं अंग्रेजों को एक और मौका मिल गया कि वे हमारे पुरखों का इस्तेमाल अग्रिम पंक्ति के तौर पर करें। कहने की जरूरत नहीं कि सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं को होता है, जो इस पंक्ति का हिस्सा होते हैं। इस बेहद कठिन युद्ध को हिन्दुस्तानी फौजी बिना साजो-सामान के लड़ रहे थे। कड़कती सर्दी में न तो उनके पास पर्याप्त कपड़े थे, न जूते। बस मनोबल उनकी पूंजी था और एक भरोसा कि वे अपनी कौम का नाम रोशन करेंगे।
उन हजारों लोगों को, जिन्हें अपने वतन की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई, पता नहीं कितनी जानकारी थी कि उनका शौर्य सात समुंदर पार बैठी किसी महारानी और उसकी तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार के खाते में जाएगा। इतिहास की बेरहम नजर में वे और रोम के ग्लेडिएटर लगभग एक ही लाइन में खड़े हैं। आंकड़ों की बाजीगरी पर भरोसा करें, तो भारतीय सैनिकों को 13,000 पदक मिले, जिसमें 34 विक्टोरिया क्रॉस भी शामिल हैं। पर इससे इस सवाल की गरमी कम नहीं हो जाती कि वे क्यों और किसके लिए अपना खून बहा रहे थे? 11 नवंबर, 1918 को यह निर्थक जंग दम तोड़ गई। 28 जून, 1919 को वर्साय की संधि ने इस पर औपचारिक मोहर लगाई और यहीं से दूसरे विश्व-युद्ध की नींव पड़ी। इस मुद्दे पर फिर कभी चर्चा करेंगे। अफसोस तो इस बात का है कि इस मसले पर हिन्दुस्तान में कोई सरगर्मी नहीं है। इतिहास से सबक न लेना हमारी सबसे बड़ी बीमारी है।
फिर उस सवाल पर लौटते हैं कि इस महायुद्ध से भारत को क्या हासिल हुआ? मित्र राष्ट्रों की जीत के साथ एक बात तय हो गई थी कि इंग्लैंड संसार की सबसे बड़ी ताकत है और यूरोप की सदियों से चली आ रही कबीलाई लड़ाइयों में क्वीन मैरी की संतानों का जवाब नहीं। सच तो यह है कि उन्हें यह उल्लास हिन्दुस्तान, नेपाली सिपाहियों के बलिदान से मिला था। उन्हें हमें आजाद कर देना चाहिए था, पर हुआ उल्टा। ब्रिटिश शासकों ने कांग्रेस को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया। जंग में हुए खर्चों की भरपाई के लिए भारी टैक्स लाद दिए गए। अंग्रेज हमारे संसाधनों को और तेजी से लूटने लगे। इससे पूरे देश में असंतोष पसर गया और कांग्रेस के आंदोलन को बल मिला। गांधी की लोकप्रियता ने यहीं से रफ्तार पकड़ी। बाद में क्या हुआ हम जानते हैं, पर सवाल कायम हैं कि उदारवादी कांग्रेसियों के इस फैसले से हमें क्या मिला? लगभग सवा लाख लोगों की कुर्बानियों का सिला क्या था और उनसे हमने सीखा क्या?
ऐसा सिर्फ भारतीयों के साथ नहीं हुआ। ब्रिटेन की साथी और विरोधी, जितनी भी साम्राज्यवादी शक्तियां थीं, सबने अपने ‘गुलामों’ को इसमें झोंक दिया। यह युद्ध महाभारत से भी ज्यादा दुखदायी था। महाभारत में कम-से-कम नायक और खलनायक तो आमने-सामने थे। यहां कौन नायक था, कौन खलनायक, कौन जीत रहा था, कौन हारने वाला था, कौन कुछ हासिल कर रहा था, कौन लुट रहा था, इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं थे। यूरोप के औद्योगीकरण से उपजे नवोदित लोकतंत्रों और राष्ट्रीय अहंकारों के एक अभिमानपूर्ण अभियान का परिणाम था पहला विश्व-युद्ध। यह शुरू कैसे हुआ? 28 जून, 1914 को ऑस्ट्रिया के राजकुमार फ्रेन्ज फर्डिनेंड की सारायेवो में हत्या कर दी गई। इसके तत्काल बाद जंग ने किस्त-दर-किस्त इंसानियत को अपनी जद में लेना शुरू किया। इंग्लैंड ने चार अगस्त को आधिकारिक रूप से इसमें कूदने का ऐलान किया।
यहीं से भारतीयों के रक्त-स्नान के अभियान की नींव पड़नी शुरू हुई। सवाल उठता है, इस दारुण समय में हमारे वे नेता क्या कर रहे थे, जिन पर आज आजाद हिंद को नाज है? कृपया जान लें। उस समय मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट रहे थे। राष्ट्रवादी सोच के बाल गंगाधर तिलक युद्ध शुरू होने तक बर्मा की मंडलोई जेल में थे। कांग्रेस की कमान थी उदारवादी गोपालकृष्ण गोखले के हाथों में। कहने की जरूरत नहीं कि भारत हमेशा की तरह वैचारिक चौराहे पर खड़ा था। कुछ लोगों का कहना था कि ब्रिटिश राज इस समय कमजोर है। यही समय है, जब हम विद्रोह कर दें और अंग्रेजों को अपनी सरजमीं से मार भगाएं।
इसी दौर में लाला हरदयाल की अगुवाई में गदर पार्टी बन चुकी थी। उसे सिंगापुर में आंशिक सफलता भी मिली, पर क्रांति भारतीयों के रक्त में नहीं। इस बीच तिलक जेल से छूट गए थे, उन्होंने ‘होम रूल’ की मांग उठा दी। बड़े पैमाने पर लोग उनके साथ थे। इसके उलट गोखले संकट के समय में अंग्रेजों का साथ छोड़ने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने तर्क रखा कि हम इस लड़ाई में गोरों का साथ दें और बदले में उनसे स्वतंत्रता की मांग रखें। गांधी ने भी वापसी के बाद यही रास्ता पकड़ा और शुरू हो गया भारतीयों की अनजान रणक्षेत्रों में बलि का सिलसिला।
अपरिचित जगहों पर लड़ी जा रही इन लड़ाइयों में भारतीयों का इस्तेमाल अग्रिम मोर्चों पर किया गया। कहा जाता है कि यूरोपीय फौजियों में उनका बड़ा आतंक था। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि हिन्दुस्तानी फौजी परंपरागत तौर पर आमने-सामने की लड़ाई में पारंगत होते हैं। तलवार और कटार हमारे आदिकालीन हथियार हैं और फिर लंबे समय से राजपूत शत्रु को सामने से पटकनी देने में गर्व महसूस करते थे। यही वजह थी कि हिन्दुस्तानी और नेपाली फौजियों को शत्रु की खाइयों में घुसने का काम सौंपा जाता। दुश्मन उन्हें गोलियों की बौछार से रोकने की कोशिश करते थे। अपने इष्ट देवताओं के नाम के नारे लगाती यह फौज गोलियों का सामना करते हुए आगे बढ़ती। कई हताहत हो जाते, पर जो बचते, वे दुश्मन की खाइयों में घुसकर संहार मचा देते।
पता नहीं कैसे, जर्मनी और उसके दोस्त देशों के दस्तों में यह खबर फैल गई कि भारतीय फौजी दुश्मनों का खून पी जाते हैं, उन्हें कच्चा चबा जाते हैं। इससे उन पर दहशत बरपा हो गई। आप जानते हैं, जंग बंदूकों से नहीं, बल्कि दिमाग से जीती जाती है। इस अफवाह ने जहां दूसरे पक्ष का मनोबल गिराया, वहीं अंग्रेजों को एक और मौका मिल गया कि वे हमारे पुरखों का इस्तेमाल अग्रिम पंक्ति के तौर पर करें। कहने की जरूरत नहीं कि सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं को होता है, जो इस पंक्ति का हिस्सा होते हैं। इस बेहद कठिन युद्ध को हिन्दुस्तानी फौजी बिना साजो-सामान के लड़ रहे थे। कड़कती सर्दी में न तो उनके पास पर्याप्त कपड़े थे, न जूते। बस मनोबल उनकी पूंजी था और एक भरोसा कि वे अपनी कौम का नाम रोशन करेंगे।
उन हजारों लोगों को, जिन्हें अपने वतन की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई, पता नहीं कितनी जानकारी थी कि उनका शौर्य सात समुंदर पार बैठी किसी महारानी और उसकी तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार के खाते में जाएगा। इतिहास की बेरहम नजर में वे और रोम के ग्लेडिएटर लगभग एक ही लाइन में खड़े हैं। आंकड़ों की बाजीगरी पर भरोसा करें, तो भारतीय सैनिकों को 13,000 पदक मिले, जिसमें 34 विक्टोरिया क्रॉस भी शामिल हैं। पर इससे इस सवाल की गरमी कम नहीं हो जाती कि वे क्यों और किसके लिए अपना खून बहा रहे थे? 11 नवंबर, 1918 को यह निर्थक जंग दम तोड़ गई। 28 जून, 1919 को वर्साय की संधि ने इस पर औपचारिक मोहर लगाई और यहीं से दूसरे विश्व-युद्ध की नींव पड़ी। इस मुद्दे पर फिर कभी चर्चा करेंगे। अफसोस तो इस बात का है कि इस मसले पर हिन्दुस्तान में कोई सरगर्मी नहीं है। इतिहास से सबक न लेना हमारी सबसे बड़ी बीमारी है।
फिर उस सवाल पर लौटते हैं कि इस महायुद्ध से भारत को क्या हासिल हुआ? मित्र राष्ट्रों की जीत के साथ एक बात तय हो गई थी कि इंग्लैंड संसार की सबसे बड़ी ताकत है और यूरोप की सदियों से चली आ रही कबीलाई लड़ाइयों में क्वीन मैरी की संतानों का जवाब नहीं। सच तो यह है कि उन्हें यह उल्लास हिन्दुस्तान, नेपाली सिपाहियों के बलिदान से मिला था। उन्हें हमें आजाद कर देना चाहिए था, पर हुआ उल्टा। ब्रिटिश शासकों ने कांग्रेस को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया। जंग में हुए खर्चों की भरपाई के लिए भारी टैक्स लाद दिए गए। अंग्रेज हमारे संसाधनों को और तेजी से लूटने लगे। इससे पूरे देश में असंतोष पसर गया और कांग्रेस के आंदोलन को बल मिला। गांधी की लोकप्रियता ने यहीं से रफ्तार पकड़ी। बाद में क्या हुआ हम जानते हैं, पर सवाल कायम हैं कि उदारवादी कांग्रेसियों के इस फैसले से हमें क्या मिला? लगभग सवा लाख लोगों की कुर्बानियों का सिला क्या था और उनसे हमने सीखा क्या?
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