Sunday, 26 July 2015

इतिहास को खास चश्मे से नहीं देखा जा सकता @पत्रलेखा चटर्जी

किसी भी देश में ज्यादातर छात्र इतिहास को एक तयशुदा वृत्तांत के जरिये जानते हैं-इस प्रक्रिया के तहत इस भ्रामक विचार पर आगे बढ़ा जाता है कि अतीत को एक ही ढर्रे में विश्लेषित किया जा सकता है। पर इतिहास में कई इतिहास होते हैं। अगर अतीत के विश्लेषण के लिए हमने खुद को एक ही धारा के व्यक्तित्व और उनसे जुड़ी घटनाओं की व्याख्या तक सीमित कर दिया, भले ही वे ज्यादा प्रभावी क्यों न हों, तो हम ठीक से न इतिहास को समझ पाएंगे, न वर्तमान को। यह मुद्दा एक नए विवाद के कारण अब ज्यादा प्रासंगिक है-औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटेन हमारे यहां से जो कुछ लूटकर ले गया, क्या उसके एवज में उसे हर्जाना देना चाहिए? जाहिर है, जो कुछ वह ले गया था, वह सारा वह चुका नहीं सकता, लेकिन सांकेतिक रूप में भी उसे कुछ चुकाना चाहिए या नहीं?

कांग्रेस सांसद शशि थरूर का कहना है कि ब्रिटेन को हर्जाना देना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शशि थरूर की प्रशंसा की है, जो जाहिर है, नीति के बजाय राजनीति केंद्रित है। शशि थरूर का वह भाषण इंटनरेट पर वायरल हो गया है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई उस बहस में शशि थरूर ने कहा था कि ब्रिटिश जब भारत आए थे, तब वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी हिस्सेदारी 23 प्रतिशत थी, लेकिन जब वे भारत छोड़कर गए, तब वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी हिस्सेदारी सिमटकर महज चार फीसदी रह गई। दरअसल ब्रिटेन ने अपने फायदे के लिए भारत पर शासन किया था। उसका अपना औद्योगिकीकरण भारत के औद्योगिकीकरण को तहस-नहस कर देने पर ही संभव हुआ। थरूर का वह भाषण पिछले सप्ताह यू-ट्यूब पर डाला गया, तब से 15 लाख बार उसे देखा-सुना जा चुका है। लंदन स्थित बीबीसी एशियन नेटवर्क से इसी सप्ताह मेरे पास एक कॉल आई, जिसमें मुझे एक परिचर्चा में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया, जिसका विषय यह था कि इस प्रस्ताव पर भारत में कैसी प्रतिक्रिया है, जिसमें भारत पर दो सदी तक के औपनिवेशिक शासन के लिए ब्रिटेन से हर्जाना चुकाने की मांग की गई है। मैंने उन्हें बताया कि थरूर ऑक्सफोर्ड में आयोजित एक बहस में बोल रहे थे, किसी संसद या राजनीतिक मंच से नहीं।

थरूर ने जो कुछ कहा है, भारत में खासकर इतिहास के छात्रों के लिए वह नई बात नहीं है। बिटिश उपनिवेशवाद से लेकर तमाम औपनिवेशिक शासनों में भारत का शोषण हुआ। लेकिन ब्रिटेन से आर्थिक क्षतिपूर्ति मांगना भारत के एजेंडे में नहीं है। न ही युवा भारतीयों की सोच, जो देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा हैं, ब्रिटेन के प्रति शत्रुतापूर्ण है। मैंने उन्हें यह भी बताया कि थरूर ने बहस में क्षतिपूर्ति की जो मांग की है, उसे आर्थिक के बजाय प्रतीकात्मक रूप में देखना चाहिए। वह दरअसल ब्रिटेन से यह कुबूलवाना चाह रहे हैं कि दो सौ वर्षों तक उसके उत्थान की कीमत भारत ने बर्बाद होते हुए चुकाई।

वस्तुतः यह एक ऐसा सर्वज्ञात तथ्य है, जिसे आज तक चुनौती नहीं दी जा सकी। सिर्फ भारतीय इतिहासकारों ने नहीं, ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी उपनिवेशवाद के आर्थिक प्रभाव-मसलन, संपत्ति के यहां से ब्रिटेन जाने, स्वामित्व हरण (मुख्यतः जमीन का), उत्पादन और व्यापार पर नियंत्रण, प्राकृतिक संसाधनों के शोषण और आधारभूत व्यवस्था में सुधार-पर विस्तार से लिखा है। ब्रिटिश इतिहासकार बी आर टॉमलिन्सन ने लिखा है कि उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी ढाई दशकों में भारत ब्रिटेन से निर्यात होने वाली चीजों का सबसे बड़ा खरीदार था। भारत इसके अलावा ऊंचे वेतन वाले ब्रिटिश सिविल सेवकों का बड़ा नियोक्ता और ब्रिटिश साम्राज्य को आधी सैन्य ताकत मुहैया कराने वाला देश था-इन सबका खर्च स्थानीय स्तर पर उगाहे गए राजस्व से चुकाया जाता था। एक दूसरे प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार एनगस मैडिसन ने भी भारत से भारी मात्रा में संसाधनों के ब्रिटेन पहुंचने का जिक्र किया है। उनका कहना था कि अगर इस विशाल राशि का भारत में निवेश किया जाता, तो उससे भारत में आय का स्तर ऊपर उठता। ब्रिटेन की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में भारत में उसके औपनिवेशिक शासन के काले पक्ष के बारे में कुछ नहीं बताया गया है, इसके बावजूद इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

इसी के साथ ब्रिटिशों ने हालांकि एक परंपरा छोड़ी, जिसके कुछ लाभ भी हुए, बावजूद इसके कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मुख्य उद्देश्य भारतीयों का कल्याण नहीं था। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को स्याह-सफेद या प्रेम-घृणा के खांचे में बांटकर नहीं देखा जा सकता। वह एक जटिल और विविधतापूर्ण दौर था। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब, गांधी बिफोर इंडिया में लिखा है कि ब्रिटिश साम्राज्य को शैतानी कहने वाले गांधी जी तब रोए थे, जब दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लंदन पर बमबारी हुई थी। यह वह शहर था, जिसे वह जानते और प्यार करते थे। अहिंसा के इस सर्वमान्य पुजारी ने प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों को भेजा था।

शशि थरूर के भाषण ने बताया है कि इतिहास जटिल है, जिसे एकरेखीय वृत्तांत के जरिये नहीं समझा जा सकता। जबकि कई तरह के वृत्तांत एक दूसरे से टकराते हैं। ऐसे में क्या किया जाए? पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन या इतिहास लेखन की एक पद्धति को दूसरी पद्धति से बदलना इसका हल नहीं है। हमें समझना होगा कि इंटरनेट के इस दौर में इतिहास की हर व्याख्या तक आदमी की पहुंच है। इसे रोकना न तो संभव है, न ही उचित। इसके बजाय हमें युवाओं के सामने इतिहास की हर व्याख्या रखनी चाहिए, ताकि उनमें विश्लेषण करने की क्षमता पैदा हो और वे अपने स्तर पर निष्कर्ष निकाल सकें

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