Wednesday, 22 July 2015

प्रथम विश्वयुद्ध हमारा वीर पर्व नहीं @मृणाल पाण्डे

यह एक अजीब संयोग ही था कि जिस समय दुनिया परेडों, भाषणों और स्मृति स्तंभों की मार्फत पहले विश्वयुद्ध की शतवार्षिकी धूमधाम से मनाने की फिराक में है, उसी समय गृहयुद्ध की आग में जलते यूक्रेन के विद्रोहियों ने गलती से इलाके के ऊपर से गुजर रहे मलेशियाई एयरलाइंस के एक यात्री विमान  को सेना का विमान समझकर उसे मिसाइल से मार गिराया। कुछ ही मिनटों में 298 मासूम जानें मिट गईं।

दरअसल, तकरीबन सौ सालों से हम युद्धों को रूमानी चश्मों से किताबों की मार्फत ही पढ़ते आए हैं। उनके शहीदों, ख्यातनाम कमांडरों और जीत का सेहरा बांधे कूटनीतिज्ञों की सराहना करते हुए हम अक्सर भूल जाते हैं कि हर युद्ध की असली शक्ल अमानवीय, अमर्यादित और विनाशकारी ही होती है। उनको छेड़ने वाले चाहे जिस भी वैचारिकता, आत्म-मुग्धता और देशप्रेम के नाम पर अपने सैनिक मोहरों को कूटनीति की बिसात पर उतारते हों, जैसे-जैसे युद्ध रंग पकड़ते हैं स्थिति हाथ से बाहर जाने लगती है।

विश्वयुद्ध हों कि स्थानीय सीमाओं के आर-पार छेड़ी गई इलाकाई लड़ाइयां अथवा भीतरी गृहयुद्ध, युद्धोन्माद के क्षणों में तमाम शिष्टताभरे मुखौटे हट जाते हैं और युयुत्सु लड़ाकों के भीतर छिपा खून का प्यासा पशु बाहर निकलकर सामने खड़े हर अच्छे बुरे, बच्चे बूढ़े, महिला और पुरुष पर टूट पड़ता है। गलती से युद्ध क्षेत्र की घटनाओं के दौरान मारे गए मासूमों के लिए एक शिष्ट और निरापद मुहावरा ईजाद कर लिया गया है: कोलैटरल डैमेज। नाहक किंतु अपरिहार्य नुकसान! निश्चय ही 298 यात्रियों को मौत के घाट उतारने वाले किसी धरतीपकड़ कमांडर का यह फैसला भी विद्रोही सेनाओं के इतिहास में एक कोलैटरल डैमेज का आंकड़ा बनकर रह जाएगा। 

विश्वयुद्ध के लगभग पूरी तरह विदेशी इतिहासवेत्ताओं द्वारा लिखे गए इतिहास से लैस भारतीय मूल के लोगों की एक ग्लोबल संस्था, ‘गोपियो’ (ग्लोबल ऑर्गनाइजेशन फॉर पीपल अॉफ इंडियन ओरिजिन) को इस बात पर खेद भरा विस्मय है कि पहले विश्वयुद्ध में करीब चौदह लाख भारतीय सैनिकों ने फ्रांस की धरती पर जाकर जर्मनी की सेनाओं से इतना जमकर मोर्चा लिया था कि 1915 में सिर्फ नूवी शैपेल के  मोर्चे पर 15 हजार भारतीय सैनिक मारे गए। फिर भी उन सब पर हमारा राज समाज मौन क्यों रहा? विश्वयुद्ध में भारतीयों की भागीदारी और उसके शहीदों की याद ताजा करने के लिए उनकी अपनी यह योजना है कि भारतीय स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को उनके स्मरण दिवस के रूप में मनाया जाए। ताकि उस वीरता और बलिदान पर देश को नाज हो। अनिवासी भारतीयों के बीच देशभक्ति और भारतीय इतिहास तथा परंपरा की एक थिरायी हुई पुरातनपंथी रूमानी रुझान ही हमको अक्सर देखने को मिलता है।

और इस समझ के तहत असुविधाओं के बीच भी लोकतांत्रिकता को थामे हुए आज के भारत में जी रहे नागरिक उनको अपनी तुलना में हर मोर्चे पर कुछ ज्यादा ही अगर-मगर भरी विकृत समझ वाले नजर आते हैं। सच तो यह है कि अनिवासी भारतीयों का अतीत ही भारत के साथ है। वर्तमान में वे बिना भारत में बसे ही, गजब के देशभक्त और परंपरावादी बने रहना चाहते हैं, किंतु भारत की दैनिक जद्‌दोजहद और बदलते विश्व रंगमंच पर ताजा अनुभवों और औपनिवेशिक युग की कचोटभरी यादों के तहत लिए न्यायपरक फैसलों से वे तटस्थ दूरी रखना पसंद करते हैं। 

सच तो यह है कि जब पहले विश्वयुद्ध की आग बड़ी तेज़ी से यूरोप के मित्र राष्ट्रों को जलाने लगी तो उनकी बंदूकों के कुंदों ने अपने उपनिवेशों के वासियों के दरवाज़े खटखटाए और बिना राय लिए आनन-फानन में सुदूर बर्फीले इलाकों में लड़ने को बिना समुचित कपड़ों या हथियारों के, वे डेढ़ लाख भारतीय सैनिक मशीनचालित खिलौनों की तरह पठा दिए गए थे। उनकी विवशता या परदेस में जाकर मरने की कड़वी स्मृतियां हमारे पास नहीं हैं। हैं तो ‘उसने कहा था’ सरीखी चंद मार्मिक कहानियां जो उन परदेसी देहाती सैनिकों के अंतिम त्रासद क्षणों की करुण गवाही देती हैं,‘वजीरा सिंह, पानी पिला.... अबकी हाड में आम फलेंगे तो तुम दोनों चाचा-भतीजे बैठ के खूब खाना...।’

इन दो-दो विश्व युद्धों का उन्माद थमा तब तक अविभाजित भारत दंगों की आग से घिर चुका था। सीमा के आर-पार नदियों, पहाड़ों, खेत-खलिहानों का बेदिमाग बंटवारा करने वाले 1947 के उस जातीय युद्ध के आयातित जरासीम तब से अब तक इस उपमहाद्वीप से चिपके बैठे हैं। 15 अगस्त, 1947 को इस देश ने अपनी असली नियति से साक्षात्कार का फैसला लिया। यह तय किया कि किसी विदेशी शासन के कहने पर हम कागज की नाव की तरह किसी तूफानी समंदर में नहीं उतरेंगे। हमारी इज्जत अब सैनिक मोर्चों से नहीं, हमारी राजनयिक ताकत से मापी जाएगी।

हमारे विपरीत पाकिस्तान ने अतीत के प्रेतों के बीच जीना चाहा, जिनकी मदद से वे सीमा पार युद्ध छेड़ सकें। हाल आपके हमारे सामने है। हमको यह उम्मीद छोड़ देनी चाहिए कि विदेशों में बसे भारतीयों के बीच हमारी छवि उजली बनी रहे। कोई नया राष्ट्रीय पर्व मनाने या विश्वमंच पर पक्षधरता तय करने को लेकर भी हमको अपने अनुभव के उजास में अपने देसी हित स्वार्थों के तहत वैसे ही फैसले करने चाहिए जैसे कि कोई समझदार पूंजीपति अपनी पूंजी को लेकर करता है। पहले विश्वयुद्ध कोे भारतीय वीर पर्व बनाकर पेश करना सिर्फ इसलिए पाखंड नहीं कि उसका आयोजन अनिवासी भारतीय कर रहे हैं। वह इसलिए भी पाखंड है कि 24 घंटे सातों दिन चलने वाली खबरों और सोशल मीडिया के युग में युद्ध में कोई रूमान नहीं बचा है। मनुष्य की जमीनी भागीदारी उससे गायब हो चुकी है। उसकी जगह नई तकनीकी क्षमता के विजुअलों ने ले ली है। यह दृश्यावली छायाग्राहिणी राक्षसी की मुस्तैदी से जमीन से 10 किमी ऊपर उड़ते जहाजों को पल में मार गिराना ही नहीं दिखाती उसके बाद कई-कई किलोमीटर तक जा छिटके उन मानव अवयवों और सामान को भी दिखाती जाती है जो अब राख हो चुके हैं।

आज से चालीसेक बरस पहले तलक हम, ‘ऐ मेरे देश के लोगो’ जैसा गाना सुनकर भावुक हो सकते थे। आज के ताजा विजुअल्स से ‘जब तक थी सांस लड़े वो फिर हंस के लाश बिछा दी...’ जैसी कविता की पंक्तियां निरर्थक साबित हो गई हैं। तब जिन बड़े विश्व नेताओं को पुरोहित बनाकर देशों का बंटवारा किया गया, युद्ध के मंदिर में उनकी जो मूरतें स्थापित की गईं, वह आजादी के बाद लड़े गए युद्धों, छाया युद्धों, नस्लीय दंगों और घातक आतंकी हमलों के जमीनी अनुभवों से कब की भग्न हो गई हैं। विश्व युद्ध की शती के नाम पर विवशता और अन्याय से भरे औपनिवेशिक इतिहास के किसी अंश की पूजा का तामझाम भरा उपक्रम तो तलाक के बाद शादी की सालगिरह मनाना सरीखा ही होगा।

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