31 अक्टूबर को सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसले की तमाम लोग सराहना करेंगे। इस दिन देश के एक महान सपूत की उपलब्धियों से आमजन को परिचित कराने के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया जाएगा। सरदार पटेल ने 554 रियासतों का भारत में विलय कराने में सबसे अहम भूमिका निभाई थी। बीते छह दशक में यह पहला अवसर है, जब केंद्र सरकार ने महान राष्ट्रीय नेताओं में सरदार पटेल को अहम स्थान देने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है। स्वतंत्रता आंदोलन में अहम योगदान के अलावा सरदार पटेल ने स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे संवेदनशील चरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देश के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री होने के नाते उन पर विभाजन के कारण हुए भीषण दंगों से निपटने व लाखों शरणार्थियों को बसाने की जिम्मेदारी आई थी। इसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। इसके अलावा उन्होंने देश के संविधान का मसौदा तैयार करने में भी प्रमुख भूमिका निभाई। इससे भी अहम यह है कि उन्होंने 554 रियासतों में बंटे देश को एकता के सूत्र में बांधने में गजब की सूझबूझ व नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया।
देश का राजनीतिक व भौगोलिक एकीकरण सरदार पटेल की असाधारण उपलब्धि थी। यह मानवता के इतिहास का एक अद्भुत कारनामा था, जिसे उन्होंने काफी दृढ़ता के साथ अंजाम दिया। हम देश का जो मानचित्र देखने के आदी हैं, वह सरदार के दृढ़ इरादों और दूरदर्शिता के बिना हमारे सामने नहीं होता। देश का आकार काफी छोटा होता और अलग-अलग क्षेत्रों में कई अलगाववादी टाइम बमों के बीच हमें रहना पड़ता। अंग्रेजों की विदाई के समय तमाम रियासतों के पास भारत या पाकिस्तान में विलय अथवा स्वतंत्र रहने का विकल्प था। दूसरे शब्दों में एकीकृत भारत का निर्माण तभी संभव था, जब पाकिस्तान की सीमा से बाहर की तमाम रियासतों का भारत में विलय होता। अगर कोई रियासत पाकिस्तान में मिलने अथवा स्वतंत्र रहने का फैसला करती तो अखंड भारत का निर्माण संभव न हो पाता। यही नहीं, अगर भारत में पाकिस्तान से दूर का कोई राज्य पाकिस्तान में विलय का फैसला करता, जैसा कि हैदराबाद ने किया था, तो भारत की एकता व अखंडता दांव पर लग जाती और भविष्य में ये रियासतें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन जातीं। अंतत: भारत के नक्शे के बीच-बीच में अनेक पाकिस्तान नजर आते।
जाहिर है, भारत का एकीकरण एक बड़ी जिम्मेदारी थी। देश के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने निष्कर्ष निकाला कि केवल एक शख्स में इस जिम्मेदारी को उठाने का साहस, दृढ़ता और चतुराई है और वे हैं सरदार पटेल। पटेल को यह जिम्मेदारी दी गई और बहुत कम समय में उन्होंने साम, दाम, दंड, भेद के आधार पर देश का एकीकरण संभव कर दिखाया। इस बीच हैदराबाद के निजाम सहित कुछ रियासतों ने भारत में विलय में आनाकानी की। पहले पटेल ने भारत में विलय के लिए उन्हें समझाया, किंतु वे नहीं माने। जब निजाम ने बगावत का बिगुल बजा दिया और हिंदू-मुस्लिम फसाद शुरू करा दिया तो सरदार पटेल ने भारतीय सेना को रियासत पर कब्जा करने का आदेश दिया। उन्होंने तय कर लिया था कि हैदराबाद भारतीय संघ से बाहर नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि वह नहीं चाहते थे कि भारत के पेट में फोड़ा बन जाए।
सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर में भी समय रहते सेना भेजी। आज जम्मू-कश्मीर का जो भी हिस्सा हमारे पास है, यह उसी फैसले का नतीजा है। सरदार पटेल के दृढ़ निश्चय और त्वरित कार्रवाई के कारण ही श्रीनगर के पास तक पहुंच गई पाकिस्तानी सेना को खदेड़ा गया था। इसी प्रकार सरदार पटेल के त्वरित फैसले से जूनागढ़ भारत के हाथों से निकलने से बच गया।
नेहरूवादी इतिहासकारों ने एक और महत्वपूर्ण तथ्य लोगों से छिपाकर रखा है। वह तथ्य यह है कि पं. नेहरू ने पटेल को 553 रियासतों के एकीकरण की जिम्मेदारी ही सौंपी थी। नेहरू ने जम्मू-कश्मीर के एकीकरण की जिम्मेदारी अपने पास रख ली थी। हम सब जानते हैं कि नेहरू के फैसले की कीमत आज भी देश अपने खून से चुका रहा है।
जिस व्यक्ति ने हमारे सपनों के भारत का निर्माण किया और जो असल में राष्ट्र निर्माता था, उसे कभी वह स्थान नहीं दिया गया, जिसका वह हकदार था। जवाहरलाल नेहरू के जमाने से ही उनके परिवार ने तय कर लिया था कि सरदार पटेल समेत किसी भी अन्य राष्ट्रीय नेता को उनकी गरिमा के अनुरूप मान नहीं दिया जाए। नेहरू के बाद उनके परिवार के प्रधानमंत्रियों ने और उनके चहेते नेहरूवादियों और मार्क्सवादियों ने न केवल पटेल के असाधारण योगदान पर मिट्टी डाली, बल्कि उनकी पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक छवि को हिंदूवादी या सांप्रदायिक कहकर बदनुमा करने की कोशिश भी की। दूसरी तरफ, नेहरू को महान डेमोक्रेट के रूप में चित्रित किया गया, लेकिन पहले प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू के चुनाव का सच कभी सामने नहीं लाया गया।
पिछले साल नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यदि सरदार पटेल हमारे पहले प्रधानमंत्री होते तो आज देश का इतिहास कुछ और होता। यह टिप्पणी निराधार नहीं थी। 1946 में जब कांग्रेस अपना अध्यक्ष और भावी प्रधानमंत्री चुनना चाहती थी, तो 15 में से 12 प्रादेशिक कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया। शेष तीन कमेटियों ने किसी का नाम प्रस्तावित नहीं किया। फिर भी, नेहरू ने इस फैसले को स्वीकार नहीं किया और महात्मा गांधी से कहा कि वह किसी के अधीन नंबर दो बनकर काम नहीं करेंगे। तब गांधीजी ने सरदार पटेल को अपना नामांकन वापस लेने के लिए तैयार किया और इस प्रकार नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष और प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री चुने गए। ये कुछ ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से सरदार पटेल के सम्मान की पहल का हमें स्वागत करना चाहिए। इसमें पहले ही साठ साल की देरी हो चुकी है। आगे कोई यह न कह सके, कम से कम सरदार पटेल के संबंध में कि हम एक कृतघ्न राष्ट्र हैं।
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