Sunday, 12 July 2015

नेहरू की विरासत @स्वप्न दास गुप्त

किसी व्यक्ति और यहां तक कि गैर-सरकारी निकाय अथवा संस्था को अपने द्वारा आयोजित कार्यक्रम में किसी को बुलाने अथवा नहीं बुलाने का पूर्ण अधिकार होता है। इस रूप में उसके पास यह अधिकार होता है कि प्रोटोकाल के सरकारी नियमों की परवाह न करे अथवा इनकी अपने मनमुताबिक व्याख्या करे और किसी व्यक्ति विशेष अथवा संस्था को तरजीह दे। सामान्य स्थितियों में सिविल सोसायटी इन्हीं मानदंडों अथवा कार्य व्यवहार का पालन करती है। हाल के दिनों में यह परंपरा कुछ अलग रूप में देखने को मिल रही है। इस क्रम में सर्वप्रथम दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के स्वघोषित शाही इमाम आते हैं जिन्होंने अपने बेटे को नायब इमाम घोषित करने के कार्यक्रम को अनावश्यक ही राजनीतिक मुद्दा बना दिया। इस कार्यक्रम में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो निमंत्रित नहीं किया, लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रण भेज दिया, जबकि यह सबको पता है कि वह इस कार्यक्रम में नहीं आने वाले। मैं नहीं मानता कि मोदी को ऐसे किसी आमंत्रण का इंतजार भी था। उनके लिए यह आमंत्रण कुछ वैसा ही होता जैसे कि स्थानीय स्तर पर किसी आरडब्ल्यूए द्वारा वरिष्ठ नागरिकों के लिए बने पार्क के उद्घाटन के लिए बुलावा भेजा जाना। लेकिन शाही इमाम ने खुले तौर पर यह कहा कि प्रधानमंत्री को उन्होंने जानबूझकर नहीं बुलाया। इसी सिलसिले में अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी शाही इमाम के रवैये का अनुसरण किया है।

समस्याओं से घिरी हुई कांग्रेस पार्टी ने भी भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का 125वां जन्मदिवस मनाने के लिए एक ऐसे ही महत्वपूर्ण अवसर का चुनाव किया। इस बारे में कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए इसे एक अवसर के रूप में लेना चाहिए। कांग्रेस का इरादा चाहे जो भी हो, कांग्रेस नेतृत्व को पूरा अधिकार है कि वह इस अवसर को अपने लिए उपयुक्त किसी भी रूप में इस्तेमाल करे। फिर वह चाहे इतिहास की नए सिरे से व्याख्या हो या फिर अपने भविष्य की चिंता, कोई भी कांग्रेस को मना नहीं कर सकता। यदि 129 वर्ष के इतिहास को देखें तो कांग्रेस के लिए यह बात कहीं अधिक उपयुक्त है। वास्तव में जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री से कहीं अधिक थे। उन्होंने एक ऐसे वंश की स्थापना की जो लगातार सत्ता संचालन करता आया है। भाजपा इस बात की अपेक्षा नहीं कर सकती कि सोनिया गांधी नेहरू जयंती के अवसर को गौरव प्रदान करने का काम करेंगी। ऐसा कोई भी आमंत्रण एकतरफा रूप से अनुपयुक्त ही होगा। अधिक स्पष्ट रूप में कहें तो मोदी को आमंत्रित नहीं करके कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को शायद ही कोई निराशा हो। इसी तरह मुझे नहीं लगता कि प्रधानमंत्री मोदी शायद ही अपना विदेशी दौरा बीच में छोड़कर कांग्रेस सदस्यों को संबोधित करने के लिए पहुंचते।
शालीनता और शिष्टाचार की यही मांग है कि इस कार्यक्त्रम में मोदी को अवश्य ही आमंत्रित किया जाना चाहिए था, क्योंकि इसमें विदेश से आए तमाम सम्मानित प्रतिनिधि अथवा मेहमान भी शिरकत करेंगे। यह सब जानबूझकर की गई अशिष्टता अथवा असम्मान है। इस संदर्भ में कांग्रेस प्रवक्ता आनंद शर्मा ने एक अनावश्यक बयान दिया कि मोदी को जानबूझकर आमंत्रित नहीं किया गया है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक आनंद शर्मा ने कहा कि हम नेहरू को लेकर उन्हीं के साथ विचार साझा कर सकते हैं जो या तो उनके बारे में सही समझ रखते हैं अथवा नेहरू के विजन को समझने की क्षमता-योग्यता रखते हैं। हमने उन्हें आमंत्रित किया है जो नेहरू के दर्शन अथवा विचारधारा का सम्मान करते हैं और उनके योगदान को जानते-समझते हैं। आनंद शर्मा की इन बातों से साफ है कि क्यों कांग्रेस खुद को असहाय पा रही है और क्यों वह बौद्धिक समझ पर एकाधिकार जताते हुए खुद को हास्यास्पद बनाने का काम कर रही है? मा‌र्क्सवादियों की तरह ही अकादमिक वर्ग के बीच आत्मप्रशंसित नेहरूवादी लोगों के बीच उनका कद अत्यधिक ऊंचा बना हुआ है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि नेहरू पर केंद्रित आत्मप्रशंसित विचार महज अनुमान अथवा अटकलों पर आधारित है।

वर्ष 1950 में भारत में ऑस्ट्रेलिया के उच्चायुक्त के तौर पर कार्य कर चुके वॉल्टर क्राकर ने अपने शुरुआती अध्ययन में पाया था कि नेहरू और अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए उच्च वर्ग के भारतीय राष्ट्रवादियों के बीच अच्छा तालमेल था। लेकिन उन्होंने नेहरू के मंत्रिमंडल सहयोगियों और कांग्रेस संगठन के अन्य पदाधिकारियों से खुद को कटा हुआ महसूस किया। वह लिखते हैं कि यह 'नान यू ग्रुप' प्रांतीय स्तर के औसत नेता थे, जो कम घूमे-फिरे, अल्पशिक्षित, संकीर्ण विचार के थे और इनमें से कई सुस्त थे। इनमें से कुछ गाय की पूजा करने वाले और आयुर्वेदिक दवाओं पर अधिक विश्वास करने वाले तथा ज्योतिषी थे। सबसे अधिक यह कि उनमें से कई बेईमान थे। क्राकर ने नेहरू के आसपास वाले लोगों का जो वर्णन दिया है और आनंद शर्मा ने उनके विचारों और आदशरें की जो कसौटी बताई है उसमें पचास साल से अधिक समय का अंतर आ चुका है। नेहरू एक कुलीन व्यक्ति थे और यही बात उन्हें महात्मा गांधी का खास अथवा प्रिय बनाती थी। उनकी राजनीतिक समझ बहुत बेहतर थी और उनकी सबसे बड़ी योग्यता यही थी कि महात्मा गांधी की लोकप्रियता पर आधारित होते हुए भी वह अपनी निजी पहचान बनाए रखने में सफल रहे। दूसरे नए विचारों अथवा प्रवृत्तिायों के प्रति उनका खासा लगाव था, इस कारण वह कांग्रेस में कहीं अधिक जमीन से जुड़े अपने दूसरे साथियों से अलग दिखाई दिए। उन्होंने समाजवाद, योजना और अंतरराष्ट्रीयता के प्रति अपना विशेष लगाव दिखाया जो भारत के एक खास हिस्से के प्रिय विषय थे और अपने समय के फैशनेबल विषयों में गिने जाते थे। उन्होंने स्वदेशी सामाजिक संस्थाओं को कम महत्व दिया और नीतियों के चयन अथवा निर्धारण में अपने पूर्वाग्रह को महत्व दिया। उन्होंने नव उद्यमिता को महत्व नहीं दिया।

नेहरू सौभाग्यशाली थे कि स्वाधीनता के शुरुआती दौर में कांग्रेस के प्रति लोगों की निष्ठा के कारण वह अपनी इच्छाओं को थोप सके। 1967 के बाद भारतीय राजनीति वास्तविक रूप में प्रतिस्पर्धी बनी और तब नेहरू के नायकत्व अथवा नेतृत्व को चुनौती दी गई। 2014 की जीत से यह चुनौती अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची है। आज नेहरू की विरासत पारिवारिक विश्वास अथवा अंधभक्ति में तब्दील हो गई है। यहां तक कि तीन मूर्ति भवन में रखे नेहरू के निजी दस्तावेजों को पारिवारिक संपत्तिके रूप में रखा गया है और बहुत कम लोगों की इन तक पहुंच है। तमाम कारणों से 14 नवंबर का कार्यक्रम 1852 में बहादुर शाह जफर के सबसे प्रिय पुत्र जवां बख्त के 12 दिनों तक चलने वाले वैवाहिक कार्यक्रम की याद दिलाता है। यह मुगलों का अंतिम सार्वजनिक कार्यक्रम था, जो इतिहास के पन्नों में शायद ही कहीं दर्ज है।

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