Wednesday, 22 July 2015

हम युद्ध से मिले सबक कब सीखेंगे? @केविन रैफर्टी

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी ने हाल ही में सिगफ्रीड ससून के सारे लेखन की डिजिटल प्रतियां उपलब्ध कराई हैं। ससून प्रथम विश्वयुद्ध के वीरता पुरस्कारों से अलंकृत योद्धा थे और युद्ध-पिपासु राजनेताओं के लापरवाह रवैये के तीखे आलोचक थे। ससून का लेखन पढ़ना आज प्रासंगिक है। न सिर्फ इसलिए कि उन्होंने रणभूमि की यंत्रणाओं का रेखाचित्रों सहित ब्योरा दिया है बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने अपने ‘सोल्जर्स डिक्लेरेशन’ में राजनेताओं द्वारा युद्ध का दुरुपयोग करने का तीखा विरोध किया है। 
ठीक 100 साल पहले प्रथम महायुद्ध की पहली गोली इस मकसद से चलाई गई थी कि यह सारे युद्धों को समाप्त करने के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध होगा। हालांकि, सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि 100 साल बाद भी दुनिया के सारे देशों में उसी संकुचित उग्र राष्ट्रवादी मानसिकता वाले लापरवाह राजनेता मौजूद हैं, जिनकी ससून ने सख्त आलोचना की है।

ससून के लिखे में 100 साल बाद भी खंदकों के कीचड़ की गंध महसूस की जा सकती है। उन्होंने जुलाई 1916 में सोम में लड़े गए प्रथम विश्वयुद्ध के पहले दिन का वर्णन ‘सनलिट पिक्चर ऑफ हेल’ (सूरज की रोशनी से आलोकित नर्क) शीर्षक से किया है। यह तो भयंकर बारिश, कीचड़, मस्टर्ड गैस और भीषण ठंड के बीच लड़ी गई लड़ाई के पहले की बात है। जर्मनी को छोटा, लेकिन जबर्दस्त झटका देने के लिए शुरू किया गया पहला विश्वयुद्ध चार साल तक खिंचता चला गया, जिसमें लगभग एक करोड़ सैनिक और 70 लाख आम नागरिक मारे गए। कुल मिलाकर 7 करोड़ लोगों ने युद्ध में भाग लिया, जिनमें ज्यादातर यूरोपीय थे, जिनमें 10 लाख भारतीय थे, जो अपने ब्रिटिश शासकों के लिए लड़ रहे थे। इनके अलावा युद्ध में देर से उतरने वाले अमेरिकी और जापानी भी थे। यूरोप में सबसे ज्यादा विनाश हुआ पर यह युद्ध अफ्रीका, एिशया और प्रशांत क्षेत्र तक फैल गया था।

ब्रिटेन में तो पहले महायुद्ध की याद में होने वाले कार्यक्रमों पर गार्डियन अखबार ने कहा, ‘ग्रेट वॉर डायरियां, कविताएं, नाटक यहां तक कि फैशन शो ..यह तो ऐसा हो गया, मान लो हिंसा का कोई मनोरंजन शो हो।’ एक तरफ यह है तो दूसरी तरफ भारत व जापान जैसे देशों में इस महायुद्ध को पूरी तरह भुला दिया गया। युद्ध और शांति पर बहस व चर्चा आज भी लाभदायक ही सिद्ध होगी। इस युद्ध में 11 लाख  भारतीय सैनिकों ने भाग लिया था और 10 हजार से ज्यादा भारतीय नर्सों ने घायल सैनिकों की तीमारदारी की थी।  मिस्र और मैसापोटामिया (मौजूदा इराक के  अलावा सीरिया व अन्य देशों के हिस्सों से मिलकर बना भू-भाग) की लड़ाइयों में बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक मारे गए थे। 

पर इस सब का अर्थ क्या है? जो मारे गए थे उनके नाम स्मारकों पर मौजूद हैं पर उन्हें कोई पहचान पाए तो वे सौभाग्यशाली होंगे। उनके साथ लड़ने वाले जो सैनिक जीवित बचे थे, अब तो उनकी भी मौत हो गई है। हैरी पैच महायुद्ध लड़ने वाले अंतिम ब्रिटिश सैनिक थे, जो 111 साल की उम्र में 2009 में दुनिया से विदा हुए। उन्होंने कहा था, ‘महायुद्ध तो मानव जाति का सोच-समझकर किया गया नरसंहार ही था। यह युद्ध एक जिंदगी कुर्बान करने लायक भी नहीं था।’

इस युद्ध ने ऑस्ट्रो-हंगेरियन, जर्मन, ओटोमान और जार साम्राज्यों को खत्म कर दिया और ब्रिटिश साम्राज्य बहुत कमजोर हो गया। मगर इसी युद्ध में दूसरे महायुद्ध के बीज भी बो दिए गए। इससे महामंदी आई और साम्यवाद, फासीवाद और नाजीवाद का उदय हुआ। अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन को ‘लीग ऑफ नेशन्स ’ की स्थापना के प्रयासों के लिए नोबेल पुरस्कार मिला, लेकिन कांग्रेस में इसके विरोध के कारण खुद अमेरिका इसका सदस्य नहीं बन सका।

उसी युद्ध के नतीजों को मध्य पूर्व आज भी भुगत रहा है। बालफोर डिक्लेरेशन में यहूिदयों के लिए अलग देश का वादा किया गया था, पर वह पूरा नहीं हो सका। ब्रिटेन और फ्रांस ने अरब राष्ट्रवाद की मांगें मानने की बजाय ओटोमान साम्राज्य को काटकर अपने हिसाब से ऐसे देश बना दिए, जिन्हें वे नियंत्रण में भले नहीं रख पाएं, पर प्रभावित जरूर कर सकें। 

1945 से ही हमें बार-बार यह सबक मिला है कि शांति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार से समृद्धि आती है, जबकि युद्ध से बदहाली ही आती है। इसके बाद भी वैश्विक शांति बहुत नाजुक मामला ही है, क्योंकि नेतृत्व कर रहे हैं बहुत सारे लोग इतिहास से मिले सबक सीखने को तैयार नहीं हैं। यूरोप में पुराना राष्ट्रवाद फिर सिर उठा रहा है। पूर्वी यूरोप में व्लादिमीर पुतिन व पश्चिम एक-दूसरे से लड़ने की मुद्रा में हैं। पुतिन के प्लान बी में तो शायद पूर्वी यूरोप में रूसी आक्रमण शामिल है। अमेरिका में रिब्लिकन बहुमत वाली कांग्रेस मानवता के सामने खड़ी विशाल समस्याओं के समाधान पर राष्ट्रपति बराक ओबामा को सोचने भी नहीं देती। संयुक्त राष्ट्र में इटली के तानाशाह बेिनटो मुसोलिनी की  ‘लीग ऑफ नेशन्स’ को लेकर इस शिकायत की गूंज सुनाई देती है कि जब बड़े देशों के हित प्रभावित होते हैं तो वे लीग ऑफ नेशन्स के प्रावधानों का सम्मान नहीं करते, लेकिन कोई दूसरा कुछ करे तो शोर मचा देते हैं।  एशिया में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे सहित कई टिप्पणीकार 1914 के यूरोप व 2014 के एशिया के बीच खतरनाक सतही तुलना में लगे हैं। चीन, जापान और कोरिया भूतकाल से सबक लेने की बजाय पुराने जख्मों को ही सहला रहे हैं। क्या ही अच्छा हो यदि ओबामा और चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग हिरोशिमा व नागासाकी जाकर जापान के दर्द को महसूस कर सकें। इसी प्रकार अबे भी नानजिंग में जाकर चीन के खिलाफ युद्ध लड़ने वाले योद्धाओं के स्मारक पर जाकर खेद जता दें कि उन्हें चीनी जनता द्वारा भुगती गई तकलीफों पर दुख है। 

इसकी बजाय संकुचित सोच के चलते जापान इस मुद्‌दे पर चीन को भड़काता रहता है जबकि चीन खतरनाक आक्रामकता के साथ राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहा है। चीन व जापान के बीच खासतौर पर खतरा है कि कहीं दुर्घटनावश या गलतफहमी से युद्ध की पहली गोली न चल जाए। पिछले दिनों दोनों के बीच छद्‌म हवाई युद्ध में ऐसे मौके आए थे जब दोनों के विमान हवाई क्षेत्र पर अपना दावा जताते हुए गश्त में लगे हुए थे। अफगानिस्तान में आतंकियों के अत्याचारों अौर पाकिस्तान में कट्‌टरपंथियों के उपद्रव को छोड़ दें तो दक्षिण एशिया व इससे लगा क्षेत्र जरूर शांत नजर आता है। भारत के प्रधानमंत्री ने अपने शपथ समारोह में पड़ोसी देशों के प्रमुखों को आमंत्रित कर और ब्रिक्स में नई पहल का संकेत दिया है। संभव है वे जब जापान जाएंगे तो अबे को अपने नए दोस्त चीन के जिनपिंग से जोड़ने में शांति स्थापित करने के अपने कौशल का उपयोग करें।

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