डॉ. आंबेडकर और डॉ. राजेंद्र प्रसाद अलग-अलग वैचारिक रुझान के व्यक्ति थे, तो भी दोनों इस बात पर एकमत थे कि देश को चलाने के लिए अगर अच्छे संविधान की जरूरत है तो अच्छे इंसान की भी। संविधान में दोष देखने वाले संविधान-सभा के सदस्यों को लक्ष्य करते हुए प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में 25 नवंबर 1949 के दिन डॉ. आंबेडकर ने कहा था : 'कोई संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर संविधान पर अमल करने वाले बुरे हुए तो यह संविधान बुरा साबित होगा और अगर संविधान पर अमल करने वाले अच्छे हुए तो संविधान अच्छा ही साबित होगा। संविधान पर अमल सब कुछ संविधान की प्रकृति पर ही निर्भर नहीं करता, इसलिए जनता और राजनीतिक दल की भूमिका की चर्चा किए बगैर संविधान पर कोई फैसला देना व्यर्थ है।"
बहुत कुछ ऐसा ही संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद को भी लगा था। संविधान पर अंतिम हस्ताक्षर से पहले के उनके भाषण का एक अंश है : 'यदि निर्वाचित होने वाले लोग क्षमतावान और चरित्रवान हुए तो फिर वे एक त्रुटिपूर्ण संविधान को भी सर्वश्रेष्ठ बना लेंगे और यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो फिर संविधान देश के लिए मददगार साबित नहीं हो सकता। आखिरकार, संविधान किसी मशीन की ही भांति एक निष्प्राण चीज होता है, जिनका इस पर नियंत्रण है और जो इसे बरतते हैं, वही इसमें प्राण डालते हैं।"
हाल ही में सर्वोच्च अदालत द्वारा केंद्र सरकार को हिदायत दी गई कि संसद में नेता-प्रतिपक्ष जैसे पद की वह अनदेखी नहीं कर सकती। यह एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है। लेकिन आज कांग्रेस नियमों का हवाला देकर कह रही है कि उसे संसद में प्रमुख विपक्षी दल और नेता-प्रतिपक्ष का पद चाहिए और कांग्रेस की बात को सत्ताधारी भाजपा नियमों के हवाले से ही नकार रही है तो संविधान-सभा में कही गई उपरोक्त बातों को याद करना जरूरी हो जाता है। संविधान रचयिताओं की अपेक्षाओं को सामने रखकर दोनों दलों को तौलें तो उनके तर्क चोखे मगर कद बौने साबित हो रहे हैं। अगर कुछ देने के लिए दिल का बड़ा होना जरूरी है तो फिर भाजपा प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा देने में आनाकानी करके अपने को दिल का छोटा ही साबित कर रही है। और, अगर हक मांगने के लिए किसी को मुंह का ऊंचा होना चाहिए तो यह कहना भी जरूरी है कि कांग्रेस के पास प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा मांगने लायक मुंह अब नहीं बचा है।
कांग्रेस वर्ष 1984 के चुनावों में 414 सीटों पर जीती थी, पर 30 साल बाद यही पार्टी महज 44 सीटों पर सिमट गई। यह हैरतअंगेज हार थी, क्योंकि इतनी कम सीटें तो कांग्रेस को आपातकाल लागू होने के बाद 1977 के चुनावों में भी नहीं मिली थी। 1977 के ऐतिहासिक चुनाव में 197 सीटों का घाटा सहने के बावजूद कांग्रेस के पास 153 सीटें थीं। भले इंदिरा गांधी और संजय गांधी हार गए हों लेकिन कांग्रेसी कुनबे के भीतर नेतृत्व की खिल्ली उड़ाने का साहस किसी को न था। इस बार कांग्रेस को 2009 के चुनावों के मुकाबले 162 सीटों का घाटा हुआ, लेकिन पार्टी सीटों का सैकड़ा तो क्या पचासा (44 सीटें) भी नहीं लगा सकी। भले ही सोनिया गांधी और राहुल गांधी यूपी का अपना किला बचाने में कामयाब रहे, लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का इकबाल कुछ इस कदर घट गया है कि केरल से लेकर राजस्थान तक एक कांग्रेसी राहुल गांधी को 'जोकरों का एमडी" कह रहा है तो दूसरा सोनिया गांधी को छुट्टी लेने की सलाह दे रहा है। ऐसे में अगर कांग्रेस नेता-प्रतिपक्ष के वेतन और भत्ते से संबंधित पार्लियामेंट एक्ट 1977 के बूते प्रमुख विपक्षी दल होने का दावा पेश कर रही है तो यही कहा जाएगा कि नियम की दुहाई देने के लिए जो नैतिक तेज जरूरी होता है, वह अब कांग्रेस के पास नहीं बचा है।
लेकिन क्या यह देखते हुए कि खुद कांग्रेस ने 1980 और 1984 की सातवीं और आठवीं लोकसभा में संसद के प्रथम अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर के नियम का हवाला देकर किसी भी दल को प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा देने से इनकार कर दिया था, भाजपा द्वारा सोलहवीं लोकसभा में कांग्रेस के साथ ठीक वही बरताव करना उचित है? ऐसा करना प्रतिशोधात्मक व्यवहार ज्यादा जान पड़ता है, नियम के प्रति निष्ठा का मामला कम। यह बात ठीक है कि मावलंकर के फॉर्मूले के हिसाब से किसी पार्टी को संसदीय दल या समूह का औपचारिक दर्जा तभी हासिल हो सकता है, जब उसकी सीटें कुल सीटों के दसवें हिस्से से कम न हों। जाहिर है, कांग्रेस के पास इतनी सीटें नहीं हैं, लेकिन मावलंकर के नियम की मंशा और बदले हुए परिवेश में उसकी प्रासंगिकता भी देखी जानी चाहिए। दलबदल विरोधी कानून लागू होने के बाद यह नियम प्रासंगिक नहीं रह गया है। आज कोई पार्टी चार सीटें भी जीते तो उसे दलबदल विरोधी कानून के हिसाब से संसदीय पार्टी या समूह के रूप में स्वीकार करना पड़ता है।
यह देखते हुए कि लोकपाल ही नहीं, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सहित अन्य कई संस्थाओं के अध्यक्ष के चयन के लिए नेता प्रतिपक्ष का होना जरूरी है, साथ ही नेता प्रतिपक्ष के वेतन और भत्ते से संबंधित पार्लियामेंट एक्ट 1977 भी विपक्षी दलों के बीच सर्वाधिक संख्या में सीट लाने वाले दल को प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा देने के पक्ष में है, अगर भाजपा इस मुद्दे पर कांग्रेस के प्रति नरम रवैया अपनाती तो माना जाता कि वह लोकतंत्र के हक में काम कर रही है। लेकिन अफसोस कि वह आज देश के लोकतंत्र को वैसा ही विपक्षहीन देखना चाहती है, जैसा कभी कांग्रेस ने चाहा था। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा अपनी आन की लड़ाई जीतें या हारें, देश लोकतंत्र का युद्ध जरूर हार रहा है।
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