Friday, 17 July 2015

काश! और भी लंबी होती नेहरू की उम्र @सुरेंद्र किशोर

कौन कहता है कि भारत में आईएसआईएस सक्रिय नहीं है? यहां तो पहले से ही लघु रुप में सक्रिय है। नाम भले कुछ और हो! कभी नाथूराम गोडसे थे, तो आज बी.गोपालाकृष्णन हैं। ऐसे कुछ और भी नाम भी लिए जा सकते हैं। अहिंसात्मक तरीके से विचार या धर्म का फैलाव नहीं कर सको तो तलवार का सहारा लो। यही काम तो आईएसआईएस कर रहा है। वैसा नहीं करने का गोपालाकृष्णन को अफसोस है। केरल के उन्मादी गोपालाकृष्णन ने केसरी में लिखा है कि ‘गांधी नहीं, नेहरू को पहले मारना चाहिए था।’
 
उनके अनुसार देश में अनेक समस्याएं नेहरू के कारण पैदा हुईं। शायद गोपालाकृष्णन को नहीं मालूम कि तब नेहरू की भी हत्या करने की कोशिश हुई थी। पर तब के हत्यारे ने गांधी की देह को नष्ट करना अधिक जरूरी समझा। जिनके विचारों को नष्ट नहीं कर सकते तो उनकी देह को तो समाप्त कर दो! शायद यही सोचा होगा नाथूराम गोडसे ने। गांधी के विचारों को नष्ट नहीं किया जा सकता, इस बात का अधिक तीव्रता से पता 2007 में चला। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने तब गांधी के जन्म दिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया। चाहे पर्यावरण हो या राजनीति में शुचिता का सवाल हो, गांधी आज भी मौजूं हैं। जीवन का कौन सा क्षेत्र है, जहां गांधी आज भी प्रासंगिक नहीं हैं?
 
अंतिम व्यक्ति के कल्याण की बात होती है तो गांधी की याद आती है। नेहरू परिवार के सदस्यों के नाम पर देश में करीब साढ़े चार सौ स्मारक हैं। नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों ने ही उनमें से अधिकतर स्मारकों को शुरू किया, पर इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हर दस स्मारकों पर औसतन एक सीट ही मिली। दूसरी ओर नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2019 में बापू को स्वच्छ भारत समर्पित करने का लक्ष्य तय किया है। इससे पहले भाजपा ने 1980 में गांधीवादी समाजवाद का लक्ष्य तय किया था।
 
12 मार्च 1955 को नागपुर में बाबूराव लक्ष्मण ने चाकू से जवाहरलाल नेहरू की हत्या की विफल चेष्टा की थी। 28 जुलाई 1955 को नागपुर की अदालत ने खुद को विचारक बताने वाले लक्ष्मण को छह साल की कठोर सजा दी थी। किसी और ने यदि नेहरू की अपेक्षा गांधी की हत्या अधिक जरूरी समझी तो शायद इसलिए कि नेहरू के विचार गांधी की तरह न तो देशज थे और न ही टिकाऊ। उन लोगों को यह लगा होगा कि शायद नेहरू के विचार समय के साथ खुद ब खुद अप्रासंगिक हो जाएंगे।
 
खुद कांग्रेसी सरकारों ने 1991 से ही आर्थिक सुधारीकरण का अभियान चलाया। एक तरह से वे सरकारें नेहरू माॅडल की मिश्रित अर्थव्यवस्था को ही तो नकार रही थीं ! यदि आप किसी चीज का सुधारीकरण करते हों तो प्रकारांतर से बिना किसी का नाम लिए ही यह भी कह रहे होते हैं कि किसी पूर्ववर्ती शासक ने उसका ‘बिगाड़ीकरण’ किया था। गोपालाकृष्णन के विपरीत विचार वाले तो यही कहेंगे कि काश! नेहरू जी कुछ साल और जीते और खुद देखते और पछताते कि उनकी नीतियों का देश पर कितना बुरा असर पड़ा है। आजादी की लड़ाई के एक अप्रतिम योद्धा के लिए कोई विवेकशील व्यक्ति भला अपशकुन क्यों करेगा?

No comments:

Post a Comment