Friday, 10 July 2015

शहीदों का बस यही निशां होगा @राजीव चंद्रशेखर

भारत के आधुनिक इतिहास में 16, दिसंबर, 1971 का दिन खास अहमियत रखता है। जिन्होंने बांग्लादेश युद्ध को करीब से देखा है, वे इसे कभी नहीं भूल सकते। भारतीय जवानों के शौर्य का स्मरण करते हुए इसे विजय दिवस के रूप में याद किया जाता है। उस युद्ध में 3,843 भारतीय जवान शहीद हुए थे, जबकि घायल होने वालों की संख्या इससे तीन गुना थी। उस युद्ध में हिस्सा लेने वाले 1,313 जवानों को मरणोपरांत वीरता पदक से सम्मानित किया गया था। उनमें से चार को युद्धभूमि में अदम्य साहस का परिचय देने के लिए परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया।

ये चारों जवान भारत की विविधता को प्रदर्शित करते हैं। इनमें से लांस नायक अलबर्ट एक्का का जन्म रांची के नजदीक छोटे से गांव में हुआ था। बासनतार के युद्ध में पाकिस्तानी बख्तरबंद गाड़ियों का अकेले सामना करते हुए शहीद होने वाले सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल की उम्र उस वक्त महज इक्कीस वर्ष थी। फिर फ्लाइट ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों (फ्लाइंग सिख) को कौन भूल सकता है, जिन्होंने अपने छोटे से विमान से दुश्मन के एफ-86 सेबर विमानों के छक्के छुड़ाए थे। इस कड़ी में मेजर होशियार सिंह का नाम भी आता है, जिन्होंने दुश्मनों की गोलाबारी का बहादुरी से सामना करते हुए शकरगढ़ में एक महत्वपूर्ण पाकिस्तानी मोर्चे को फतह किया।

ऐसे में, सवाल उठता है कि आखिर वह क्या है जो इन बहादुरों और इनके जैसे हजारों को प्रेरित करता है। जनरल सैम मानेकशॉ जैसी शख्सियत के प्रेरणादायक नेतृत्व में ये रणबांकुरे केवल अपनी नौकरी नहीं कर रहे थे, बल्कि वे तमाम मुश्किलों के बावजूद देश की खातिर असाधारण धैर्य, दृढ़ता और जबर्दस्त पराक्रम दिखाते हुए अपने फर्ज के उच्चतम आदर्श को निभा रहे थे। इन बलिदानों को याद करना और हर विजय दिवस पर खुद की पीठ ठोकने के राजनीतिक और सरकारी बंदोबस्त से इन्हें अलग करना बेहद जरूरी है।

अफसोस की बात है कि पिछले चार दशकों से रक्षा मंत्रालय में राजनेता और नौकरशाह 1971 के इन नायकों के घनघोर पराक्रम से मिली जीत के श्रेय से इन्हें दूर करते आए हैं। इस युद्ध में देश का नेतृत्व करने वाले फील्ड मार्शल मानेकशॉ का जब 2008 में निधन हुआ, तो तत्कालीन सरकार ने उनके अंतिम संस्कार को वैसी तवज्जो नहीं दी, जो मिलनी चाहिए थी। सैनिकों की उपेक्षा की ऐसी ही एक और कहानी है, जो 1965 के युद्ध में मराठा लाइट इन्फैंट्री के एक जवान बाबाजी जाधव की शहादत से शुरू हुई। उनकी गर्भवती पत्नी इंदिरा जाधव सदमे को झेल नहीं सकी, और उनका बच्चा पैदा होते ही मर गया।

बाबाजी जाधव ने मरने से पहले एक सरकारी योजना के तहत खेती के लिए प्लॉट का आवेदन किया था। इस योजना में सैनिकों को प्राथमिकता देने का प्रावधान था। 2014 तक जब इंदिरा जाधव को एक इंच जमीन भी हासिल नहीं हुई, तो बॉम्बे उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने से पहले उन्होंने खुद से सैकड़ों बार यह जरूर पूछा होगा कि क्या यह वही देश और वही लोग हैं, जिनके लिए उनके पति ने खुद को कुर्बान कर दिया। सोचने वाली बात है कि हमारे सैनिकों, उनके परिवारों और शहीदों के आश्रितों को आखिर क्यों विजय दिवस का मोहताज होना पड़ता है। नए रक्षा मंत्री को सैन्य बलों की लंबे समय से लंबित मांगों और शिकायतों पर ध्यान देना होगा।

No comments:

Post a Comment