Sunday, 12 July 2015

नेहरू : इतिहास पढ़ा, लिखा और रचा @नटवर सिंह

जवाहरलाल नेहरू की दो स्पीच बहुत मशहूर हैं : 'अ ट्रायस्ट विद डेस्टिनी" और 'द लाइट हैज गॉन आउट।" लेकिन उनकी जिस एक स्पीच के बारे में कम जाना जाता है, वह उन्होंने 4 नवंबर को 1940 को गोरखपुर में अपने मुकदमे के दौरान दी थी।

उन्होंने कहा था : 'आप लोग मुझे नहीं, लाखों भारतवासियों को दोषी साबित करने की कोशिश कर रहे हैं और यह आपके जैसे महान साम्राज्य के लिए भी एक मुश्किल काम होगा। अलबत्ता अभी मैं आपके सामने कठघरे में खड़ा हूं, लेकिन शायद हकीकत यह है कि आज खुद ब्रिटिश साम्राज्य पूरी दुनिया के सामने कठघरे में खड़ा हुआ है... किसी एक इंसान की ज्यादा कीमत नहीं होती, लोग आते हैं और चले जाते हैं। जब मेरा वक्त आएगा, तब मैं भी चला जाऊंगा। ब्रिटिश हुकूमत मुझ पर सात बार मुकदमा चलाकर मुझे दोषी ठहरा चुकी है और मेरी जिंदगी के अनेक साल कैदखाने की चहारदीवारी के पीछे गर्क हो चुके हैं। अगर मुझे आठवीं बार या नौवीं बार भी दोषी करार दिया जाता है और मैं कुछ और साल जेल में बिता देता हूं, तो इससे भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन भारत और उसके लाखों बेटों और बेटियों के साथ जो हो रहा है, उससे बहुत फर्क पड़ता है। आज मेरे सामने यही सवाल है और, सर, आपके सामने भी आज आखिरकार यही सवाल है!"
यह कमाल की भाषण-कला है!

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी जिंदगी के कोई दस साल जेलों में बिताए थे। गांधीजी से भी ज्यादा। सरदार पटेल, राजाजी, मौलाना आजाद, इन सभी से ज्यादा। इन दिनों एक बेकार की बहस चल रही है कि नेहरू और पटेल में से ज्यादा महान कौन था। दोनों ही समान रूप से महान थे। 15 अगस्त 1947 को नेहरू अपने 58वें जन्मदिन से तीन महीने दूर थे। तब पटेल 72 साल के थे। 15 दिसंबर 1950 को जब पटेल की मृत्यु हुई, तब वे 75 के थे। हो सकता है वे नेहरू से बेहतर प्रधानमंत्री साबित हुए होते, लेकिन तथ्य तो यही है कि दिसंबर 1950 में उनकी मृत्यु हो चुकी थी। तब उनकी जगह कौन प्रधानमंत्री बनता? यकीनन, नेहरू!

महानता का मानदंड क्या है? ऑक्सफोर्ड के फिलॉस्फर इसैया बर्लिन ने इसकी परिभाषा दी है। उन्होंने कहा है कि 'महान उस व्यक्ति को कहा जाता है, जिसने मनुष्य की सामान्य क्षमताओं को लांघकर, केंद्रीय मानवीय हितों को संतुष्ट या प्रभावित करते हुए, एक बड़े वर्ग की धारणाओं और मूल्यों में स्थायी रूप से नाटकीय बदलाव किया हो।" इस परिभाषा के लिहाज से तो नेहरू यकीनन महान साबित होते हैं!

20वीं सदी पर नेहरू की उपस्थिति की छाप थी। उन्होंने न केवल भारत, बल्कि औपनिवेशिकता के तले रहने वाले या रह चुके एशिया, अफ्रीका और लातीन अमरीका के अनेक देशों के एक बड़े वर्ग की धारणाओं और मूल्यों में स्थायी रूप से नाटकीय बदलाव किया था। और ऐसा उन्होंने सच्चाई, शालीनता और ईमानदारी से किया। नेहरू भले ही आदर्शवादी थे, पर उनमें यथार्थ की गहरी समझ थी, हमारी विरासत के प्रति उनके मन में सराहना का भाव भी था।

जवाहरलाल नेहरू ने इतिहास पढ़ा, इतिहास लिखा और इतिहास रचा। लेकिन इतिहास ही उनके प्रति अधिक सदाशय नहीं रह पाया। उनके दौर की तमाम बुराइयों का दोष उनके मत्थे मढ़ दिया जाता है। इनमें सबसे बुरा आरोप है उन्हें विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहरा देना। यह गलत है। बंटवारे के लिए पटेल, राजाजी और राजेंद्र प्रसाद भी इतने ही जिम्मेदार थे। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। यही सच्चाई है।

एक और ऐतिहासिक तथ्य है, जिसका अधिक उल्लेख नहीं किया जाता। नेहरू की जो चौदह सदस्यीय पहली कैबिनेट थी, उसमें छह गैर-कांग्रेसी शामिल थे : बीआर आंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जॉन मथाई, बलदेव सिंह, षणमुखम चेट्टी और सीएच भाभा। इनमें सबसे चौंकाने वाला नाम आंबेडकर का था। वे 25 वर्षों से कांग्रेस और गांधीजी की तीखी आलोचना करते आ रहे थे। लेकिन गांधीजी ने जोर देकर कहा था आंबेडकर को कैबिनेट में लिया जाए।

जवाहरलाल नेहरू ने एक ऐसे भारतीय राष्ट्र-राज्य की नींव रखी थी, जो कि लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी था। उन्होंने बहुत सीमित संसाधनों के साथ भारत का निर्माण किया। उन्होंने बांध बनवाए, इस्पात और उर्वरक के कारखानों का निर्माण करवाया, परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की, योजना आयोग और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की परिकल्पना की, और हां, पंचवर्षीय योजनाओं के सूत्रधार भी वे ही थे। उन्होंने देश के पूर्वी हिस्से तक पहुंच को सुगम बनाया। वे दिन में सोलह घंटे काम करते थे और कभी लोकसभा से अनुपस्थित नहीं रहते थे। उन्होंने राष्ट्रीय राजनीतिक संवाद को एक दूसरे ही स्तर पर पहुंचा दिया था।

नेहरू ने कभी अपना काम दूसरों को नहीं सौंपा। उनकी चयनित रचनाएं 58 खंडों में संकलित हैं और हर खंड 500 से अधिक पृष्ठों का है। अगर उन्होंने अपना काम दूसरों से साझा किया होता तो वे इससे भी अधिक योगदान दे सकते थे। वे राजदूतों व उच्चायुक्तों को खुद चिठ्ठियां लिखते थे, जबकि यह काम बड़ी आसानी से कोई संयुक्त सचिव कर सकता था।

लेकिन नेहरू में सही व्यक्ति की परख करने की क्षमता नहीं थी। इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है कृष्णा मेनन और एमओ मथाई में उनके द्वारा जताया गया भरोसा। ये दोनों संदेहास्पद व्यक्तित्व थे, लेकिन नेहरू ने हमेशा उन्हें संशय का लाभ दिया। एमओ मथाई के बारे में नेहरू के सदाशय जीवनीकार एस. गोपाल ने लिखा था, 'उन्हें जरूरत से ज्यादा अधिकार मिले हुए थे... नेहरू जानते थे कि मथाई ने अपनी संपत्ति अनुचित साधनों से अर्जित की है और इसमें कोई शक नहीं कि उन्हें (अमेरिकी खुफिया एजेंसी) सीआईए के साथ ही भारतीय कारोबारियों की भी मदद मिलती थी। यह मानने से हमें कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि 1946 से 1949 के दौरान नेहरू के सचिवालय से होकर गुजरने वाला हर दस्तावेज सीआईए की नजरों से भी होकर गुजरता था।"

विदेशी मामलों में भी नेहरू की पकड़ कमजोर थी। उन्होंने दो भीषण भूलें कीं : कश्मीर और चीन। कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले जाते हुए उन्होंने एक नितांत घरेलू मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे भी बड़ी भूल यह की कि यूएन चार्टर के चैप्टर छह के तहत इसे दर्ज कराया, जो कि विवादित मामलों का निपटारा करता है। जबकि उन्हें चैप्टर सात के तहत इस मामले को सुरक्षा परिषद ले जाना था, जो कि प्रतिपक्ष की आक्रामकता से संबंधित है। नेहरू ने कश्मीर में जनमत-संग्रह करवाने का भी वादा कर दिया था और भारतीय विदेश सेवा को इस मुसीबत से पिंड छुड़ाने में पंद्रह साल लग गए। इस पूरे प्रकरण में माउंटबेटन की भूमिका भी संदिग्ध रही थी, जो यूके कमीशन में जाकर लंदन तक खबरें भिजवाते रहते थे और नेहरू को इसकी भनक तक नहीं लगने देते थे।

मुझे कश्मीर समस्या का कोई हल नजर नहीं आता। यह उन दुर्लभ समस्याओं में से एक है, जिनका कोई समाधान नहीं निकल सकता। यही कारण है कि भारत-पाकिस्तान के बीच यथास्थिति कायम रहेगी। ऐसे में एलओसी को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा बन जाना चाहिए। यही स्थिति चीन के साथ भी है। उससे हमारे सीमा विवाद का भी निकट भविष्य में हल निकलने की कोई गुंजाइश नहीं है। आखिर, चीन ताकत की राजनीति करता है और हम ऐसा नहीं करते।

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