Friday, 31 July 2015

थरूर में कुछ है तो जरूर @विकास बहुगुणा

महज छह साल के राजनीतिक जीवन में जितने विवाद शशि थरूर के साथ जुड़े उनके बाद तो किसी भी राजनेता का करियर रसातल में जा सकता था. लेकिन थरूर आज भी मजबूती से खड़े हैं.
1977 की बात है. अमेरिका में पढ़ रहा 21 साल का एक छात्र इंदिरा गांधी से मिलने अमेरिका से दिल्ली आया. टफ्ट यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे इस छात्र को इंदिरा गांधी के शासनकाल पर एक थीसिस लिखनी थी. उसकी किस्मत अच्छी थी. पूर्व प्रधानमंत्री के पास अचानक कुछ फुरसत हो गई थी क्योंकि आपातकाल विरोधी लहर ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था. इस छात्र को इंदिरा गांधी के साथ कई घंटे बिताने और उनसे लंबी बात करने का मौका मिला.
इंदिरा गांधी को भारत में अब तक हुए सबसे बड़े राजनेताओं में से एक माना जाता है. उन्होंने राजनीति के सबक महात्मा गांधी और अपने पिता जवाहरलाल नेहरू जैसे दिग्गजों से सीखे थे. 1977 में इंदिरा गांधी के साथ घंटों बिताने वाले उस छात्र का अगले 38 साल का सफर देखा जाए तो लगता है कि उसने भी अपनी लंबी मुलाकात के दौरान इस हस्ती से कुछ सबक सीख लिए थे. उस छात्र का नाम शशि थरूर था.
1977 में इंदिरा गांधी के साथ घंटों बिताने वाले उस छात्र का अगले 38 साल का सफर देखा जाए तो लगता है कि उसने भी अपनी लंबी मुलाकात के दौरान इस हस्ती से कुछ सबक सीख लिए थे
कई मानते हैं कि इनमें सबसे अहम सबक तो नेतृत्व का ही रहा होगा. इसका इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि 1978 में एक साधारण स्टाफ मेंबर के तौर पर संयुक्त राष्ट्र से जुड़ने वाले थरूर महज 23 साल में ही इस प्रतिष्ठित संस्था में अंडर सेक्रेटरी जनरल जैसे शीर्ष पद तक जा पहुंचे. यही नहीं, 2006 में जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पद का चुनाव हुआ तो सबको चौंकाते हुए भारत ने उन्हें अपना आधिकारिक उम्मीदवार घोषित किया. हालांकि थरूर जीत से कुछ कदम दूर रह गए. अगर वे जीत जाते तो उनके नाम संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में सबसे कम उम्र का महासचिव बनने का रिकॉर्ड होता.
वैसे शशि थरूर के बारे में उपलब्ध जानकारियां खंगाली जाएं तो उनके व्यक्तिव की एक दिलचस्प तस्वीर उभरती है. उनमें एक तरफ ऐसी बहुत सी खासियतें हैं जो उन्हें मौजूदा दौर की राजनीति के लिए बेहद अनुकूल नेताओं की जमात में खड़ा करती हैं. दूसरी तरफ उनकी शख्सियत के कई पहलू ऐसे भी हैं जो इससे ठीक उलट निष्कर्ष देते दिखते हैं.
2006 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव का चुनाव हारने के बाद शशि थरूर ने संयुक्त राष्ट्र को अलविदा कहने का मन बना लिया था. हालांकि नए महासचिव बान की मून ने उन्हें संयुक्त राष्ट्र से जोड़े रखने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को अलविदा कहने का मन बना लिया था. 2007 में उन्होंने ऐसा ही किया. इसके बाद एक साल तक उन्होंने अध्ययन-अध्यापन और कुछ अन्य कार्य किए और फिर हमेशा के लिए भारत आ गए. तब तक अटकलें लगने लगी थीं कि वे कांग्रेस में आ सकते हैं. ये अटकलें तब सही साबित हुईं जब कांग्रेस ने उन्हें 2009 में तिरुवनंतपुरम से लोकसभा का टिकट दिया. इस तरह 53 साल की उम्र में थरूर ने भारतीय राजनीति में अपनी नई पारी की शुरुआत की. यह शानदार रही. उन्होंने न सिर्फ अपना पहला ही चुनाव करीब एक लाख वोटों से जीता बल्कि यूपीए-2 में विदेश राज्य मंत्री भी बन गए.
संयुक्त राष्ट्र में उनके शुरुआती दिनों के कई साथी याद करते हैं कि कैसे दफ्तर की बैठकों से लेकर महत्वपूर्ण लोगों से भरी पार्टियों तक वे हर जगह दिख जाते थे और इस दौरान वे हमेशा किसी न किसी से बात कर रहे होते थे
शशि थरूर और बान की मून
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के साथ
एक नए राजनेता के लिहाज से देखा जाए तो यह एक असाधारण बात थी. लेकिन थरूर लंबे समय से इसकी तैयारी कर रहे थे. उनके बारे में कहा जाता है कि वे संपर्क बनाने में माहिर हैं. संयुक्त राष्ट्र में उनके शुरुआती दिनों के कई साथी याद करते हैं कि कैसे दफ्तर की बैठकों से लेकर महत्वपूर्ण लोगों से भरी पार्टियों तक वे हर जगह दिख जाते थे और इस दौरान वे हमेशा किसी न किसी से बात कर रहे होते थे. कहा जाता है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था में एक अहम पद के रसूख के चलते थरूर ने दिल्ली की सत्ता के गलियारों में भी खूब संपर्क विकसित किए थे जिनका फायदा उन्हें हमेशा मिलता रहा. यूपीए-2 के दौरान उन्हें मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का नजदीकी माना जाता था. कई मौकों पर यह बात दिखी भी. उदाहरण के लिए जब 2012 में संसद ने अपनी स्थापना के 60 साल पूरे किए और इस मौके पर एक विशेष परिचर्चा आयोजित हुई तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सदन में सत्ता पक्ष के नेता प्रणब मुखर्जी के अलावा कांग्रेस से सिर्फ थरूर ही थे जिन्हें लोकसभा को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था.
भारतीय राजनीति के महासागर में बड़ा गोता लगाने के लिए थरूर और एक दूसरे मोर्चे पर भी समीकरण साध रहे थे. 2001 से भारत के बड़े-बड़े अखबारों में उनके लेख छपने शुरू हो गए थे. इन अखबारों में द हिंदू से लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे नाम शामिल थे. कुशल वक्ता तो वे थे ही. इन सब बातों के चलते धीरे-धीरे उनका एक बौद्धिक आभामंडल भी बन गया. चूंकि उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी और बहुदेशीय संस्था में काम किया था इसलिए भी राजनीति और विदेश मंत्रालय की उनकी भूमिकाओं को लेकर उनकी पार्टी और देश को उनसे काफी उम्मीदें थीं.
लेकिन जल्द ही इन उम्मीदों को झटके लगने शुरू हो गए. सरकार बनने के कुछ ही समय बाद जुलाई 2009 में शशि थरूर के एक बयान ने विवाद खड़ा कर दिया. दरअसल मिश्र के शर्म-अल-शेख में भारत-पाक के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और युसूफ रजा गिलानी के बीच बातचीत हुई थी. परंपरा के मुताबिक इसके बाद एक संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ. इस वक्तव्य के कुछ बिंदुओं पर जब देश में हंगामा हुआ तो थरूर ने जो कहा उसका मजमून यह था कि यह बस कागज का एक टुकड़ा है जिसका कोई खास महत्व नहीं है. उनकी इस टिप्पणी पर एक नया हंगामा खड़ा हो गया. पाकिस्तान ने भी इस पर ऐतराज जताया. थरूर को सफाई देनी पड़ी. यह विवाद ठंडा पड़ा ही था कि सितंबर 2009 में थरूर को लेकर एक और विवाद खड़ा हो गया. खबरें आईं कि थरूर काफी समय से अपने आधिकारिक निवास की जगह फाइव स्टार होटल में रह रहे हैं. थरूर ने यह कहकर अपना बचाव किया कि उन्हें आधिकारिक निवास मिलने में देर हो रही है और फाइव स्टार होटल में रहने का खर्च – करीब 40 हजार रुपये प्रतिदिन – वे अपनी जेब से दे रहे हैं. हालांकि प्रणब मुखर्जी के कहने के बाद उन्होंने होटल का अपना सुइट छोड़ दिया.
आज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सोशल मीडिया मैनेजमेंट की तारीफ होती हो, लेकिन थरूर उनके काफी पहले ही सोशल मीडिया को साध चुके थे
इसके तुरंत बाद थरूर ने एक और विवाद को जन्म दिया. उन दिनों दुनिया मंदी से जूझ रही थी. सरकारी खर्च में कटौती के मकसद से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी नेताओं से फ्लाइट की इकॉनॉमी क्लास में सफर करने की अपील की. सोनिया गांधी और पार्टी के कई बड़े नेताओं ने ख़ुद ऐसा किया लेकिन थरूर ने इस पर व्यंग्य करते हुए इसे कैटल क्लास यानी ‘भेड़ बकरियों’ की क्लास कह दिया. इस बयान के बाद अशोक गहलोत जैसे बड़े नेताओं ने थरूर के ख़िलाफ कार्रवाई की मांग की. उधर, थरूर ने सफाई दी कि उन्होंने इकॉनॉमी क्लास में चलने वाले आम आदमी पर नहीं बल्कि एयरलाइंस पर कटाक्ष किया था.
थरूर और विवादों का यह सिलसिला लगातार जारी है. गांधी जयंती पर छुट्टी का विरोध, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आलोचना, अपने पद के प्रभाव का इस्तेमाल कर आईपीएल की एक फ्रेंचाइजी में अपनी मित्र (जो बाद में उनकी पत्नी बनीं) सुनंदा पुष्कर को हिस्सेदारी दिलाने का आरोप, पूर्व पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के साथ अफेयर की खबरें, सुनंदा पुष्कर की मौत, नरेंद्र मोदी की प्रशंसा और संसद को न चलने देने के कांग्रेस के रुख से असहमति की खबरों तक यह सूची खासी लंबी है.
कोई भी कह सकता है कि कांग्रेस की फजीहत करवाने वाले इतने सारे विवादों के बाद तो थरूर के राजनीतिक करियर को रसातल में चला जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ज्यादातर विवाद ऐसे रहे जिनमें थरूर की सफाई के बाद मामला खत्म हो गया. आईपीएल फ्रेंचाइजी विवाद के चलते उन्हें विदेश राज्य मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन दो साल बाद ही वे मानव संसाधन विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री के रूप में कैबिनेट में वापस आ गए. 2014 के आम चुनाव में जब कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गई तब भी उन्होंने लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीत लिया. बीते साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने के बाद कांग्रेस ने उन्हें प्रवक्ता के पद से हटा दिया था. लेकिन ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उनके जोरदार भाषण ने उन्हें फिर से एक हीरो के तौर पर स्थापित कर दिया. अब याकूब मेनन की फांसी से असहमति जताते अपने एक ट्वीट से वे फिर से एक वर्ग के बीच आलोचना के पात्र बन गए हैं.
कुछ यह भी कहते हैं कि वे राजनेताओं के उस कुलीन वर्ग का हिस्सा हैं जो कभी आम जनता से सीधे नहीं जुड़ सकता. उनके कैटल क्लास जैसे ट्वीट आलोचकों के इस आरोप को वजन देते दिखते हैं
यह भी दिलचस्प है कि कुछ दिन पहले ही अपनी पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी से उन्हें झिड़की मिली तो विरोधी पार्टी से ताल्लुक रखने वाले नरेंद्र मोदी से तारीफ. दरअसल सोनिया गांधी उन खबरों से नाराज थीं जिनमें कहा गया था कि थरूर की राय कांग्रेस के उस रुख से अलग है जिसके तहत पार्टी ने ऐलान कर रखा है कि ललित मोदी प्रकरण पर सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे का इस्तीफा होने तक वह संसद नहीं चलने देगी. उधर, मोदी ने थरूर की तारीफ ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दिए गए उनके उस भाषण के लिए की जिसमें उन्होंने प्रभावशाली तर्कों के साथ कहा था कि ब्रिटिश राज ने भारत का काफी नुकसान किया और ब्रिटेन को इसकी भरपाई करनी चाहिए. मोदी का कहना था कि थरूर के शब्द भारतीयों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस तारीफ के बाद थरूर ने मोदी का धन्यवाद तो किया लेकिन सचेत रहते हुए बाद में यह कहना नहीं भूले कि कांग्रेस अब भी इस्तीफे की मांग पर कायम है.
दरअसल थरूर एक ऐसे राजनेता हैं जो अपने समय के सांचों में जितना फिट है उतना ही मिसफिट भी. संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में शरणार्थी समस्या से लेकर शांति अभियानों से जुड़ी संस्था की कई गतिविधियों का नेतृत्व किया है इसलिए वे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की पेचीदगियों को अच्छे से समझते हैं. इसके चलते कई मानते हैं कि तेजी से ग्लोबल विलेज में तब्दील हो रही दुनिया में थरूर भारत के लिए एक जरूरी राजनेता हैं.
थरूर समय के साथ चलने में भी माहिर हैं. आज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सोशल मीडिया मैनेजमेंट की तारीफ होती हो, लेकिन थरूर उनके काफी पहले ही सोशल मीडिया को साध चुके थे. कुछ समय पहले तक ट्विटर पर सबसे ज्यादा फॉलोअर्स रखने वाली राजनीतिक हस्तियों की सूची में वे पहले नंबर पर थे. बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही उन्हें पीछे छोड़ा. इसके अलावा वे दर्जन भर किताबें लिख चुके हैं जिनमें से कई खासी चर्चित रही हैं. कुल मिलाकर उनकी बौद्धिक मेधा, वाकपटुता और दोस्त बनाने की कला के चलते कई मानते हैं कि वे आज की राजनीति की जरूरत हैं. शायद यही वजह है कि उनके फेसबुक पन्ने पर ऐसी कई टिप्पणियां दिख जाती हैं जिनमें उन्हें कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने की सलाह दी जाती है जहां उनका ज्यादा सम्मान हो सकता है.
लेकिन यही शशि थरूर आज की उस राजनीति में मिसफिट भी दिखते हैं जिसमें संतुलन या असहमति की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है. यही वजह है कि वे नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान की तारीफ करते हैं तो उनकी पार्टी की केरल इकाई हाईकमान से उनकी शिकायत करती है और उन्हें प्रवक्ता पद से हटा दिया जाता है. वे संसद न चलने देने के कांग्रेस के रूख से असहमति जताते हैं और उनके अपनी पार्टी की अध्यक्ष से झिड़की सुनने की खबर आती है. याकूब मेमन की फांसी पर उनके ट्वीट के बाद थरूर के आलोचक जमीनी राजनीति के अनुभव की कमी को भी उनकी खामी के तौर पर गिनाते हैं. कुछ यह भी कहते हैं कि वे राजनेताओं के उस कुलीन वर्ग का हिस्सा हैं जो कभी आम जनता से सीधे नहीं जुड़ सकता. उनके कैटल क्लास जैसे ट्वीट आलोचकों के इस आरोप को वजन देते दिखते हैं.
फिर भी थरूर खुद को लगातार प्रासंगिक बनाए हुए हैं तो आखिर में यही कहा जा सकता है कि उनमें कुछ खूबियां हैं जरूर जो उनकी खामियों पर भारी पड़ जाती हैं.

उधम सिंह : आज के दिन हुई ये फांसी देश के नाम थी |

आज ही के दिन शहीद उधम सिंह भगत सिंह की तरह इंग्लैंड में फांसी के फंदे पर झूले थे.
13 मार्च 1940 की उस शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक का. हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी. यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी. दरअसल इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था.
बैठक खत्म हुई. सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे. इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई. हाल में भगदड़ मच गई. लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की. उसे गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई. इस क्रांतिकारी का नाम उधम सिंह था.
मिलते-जुलते नाम के कारण बहुत से लोग मानते हैं कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारा. लेकिन ऐसा नहीं था. वह जनरल डायर तो 1927 में ही मर चुका था.
इस गोलीकांड का बीज एक दूसरे गोलीकांड से पड़ा था. यह गोलीकांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जालियांवाला बाग में हुआ था. इस दिन अंग्रेज जनरल रेजिनाल्ड एडवार्ड हैरी डायर के हुक्म पर इस बाग में इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर गोलियों की बारिश कर दी गई थी. बाद में ब्रिटिश सरकार ने जो आंकड़े जारी किए उनके मुताबिक इस घटना में 370 लोग मारे गए थे और 1200 से ज्यादा घायल हुए थे. हालांकि इस आंकड़े को गलत बताते हुए बहुत से लोग मानते हैं कि जनरल डायर की अति ने कम से कम 1000 लोगों की जान ली. ड्वॉयर के पास तब पंजाब के गवर्नर का पद था और इस अधिकारी ने जनरल डायर की कार्रवाई का समर्थन किया था.
बताया जाता है कि उधम सिंह भी उस दिन जालियांवाला बाग में थे. उन्होंने तभी ठान लिया था कि इस नरसंहार का बदला लेना है. मिलते-जुलते नाम के कारण बहुत से लोग मानते हैं कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारा. लेकिन ऐसा नहीं था. इस गोलीकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की 1927 में ही लकवे और कई दूसरी बीमारियों की वजह से मौत हो चुकी थी. यही वजह है कि इतिहासकारों का एक वर्ग यह भी मानता है कि ड्वायर की हत्या के पीछे उधम सिंह का मकसद जालियांवाला बाग का बदला लेना नहीं बल्कि ब्रिटिश सरकार को एक कड़ा संदेश देना और भारत में क्रांति भड़काना था.
जेल से छूटने के बाद भी पंजाब पुलिस उधम सिंह की कड़ी निगरानी कर रही थी. इसी दौरान वे कश्मीर गए और गायब हो गए. बाद में पता चला कि वे जर्मनी पहुंच चुके हैं.
गिरफ्तार होने के बाद उधम सिंह
गिरफ्तार होने के बाद उधम सिंह
उधम सिंह भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे. दोनों दोस्त भी थे. एक चिट्ठी में उन्होंने भगत सिंह का जिक्र अपने प्यारे दोस्त की तरह किया है. भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. इन दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं दिखती हैं. दोनों का ताल्लुक पंजाब से था. दोनों ही नास्तिक थे. दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जालियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. भगत सिंह की तरह उधम सिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था.
उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ. बचपन में उनका नाम शेर सिंह रखा गया था. छोटी उम्र में में ही माता-पिता का साया उठ जाने से उन्हें और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी. यहीं उन्हें उधम सिंह नाम मिला और उनके भाई को साधु सिंह. 1917 में साधु सिंह भी चल बसे. इन मुश्किलों ने उधम सिंह को दुखी तो किया, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत भी बढ़ाई. 1919 में जब जालियांवाला बाग कांड हुआ तो उन्होंने पढ़ाई जारी रखने के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने का फैसला कर लिया. तब तक वे मैट्रिक की परीक्षा पास कर चुके थे.
1924 में उधम सिंह गदर पार्टी से जुड़ गए. अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों ने 1913 में इस पार्टी को भारत में क्रांति भड़काने के लिए बनाया था. क्रांति के लिए पैसा जुटाने के मकसद से उधम सिंह ने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा भी की. भगत सिंह के कहने के बाद वे 1927 में भारत लौट आए. अपने साथ वे 25 साथी, कई रिवॉल्वर और गोला-बारूद भी लाए थे. जल्द ही अवैध हथियार और गदर पार्टी के प्रतिबंधित अखबार गदर की गूंज रखने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर मुकदमा चला और उन्हें पांच साल जेल की सजा हुई.
सिंह सर्व धर्म समभाव में यकीन रखते थे. और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था. यह नाम उन्होंने अपनी कलाई पर भी गुदवाया हुआ था.
जेल से छूटने के बाद भी पंजाब पुलिस उधम सिंह की कड़ी निगरानी कर रही थी. इसी दौरान वे कश्मीर गए और गायब हो गए. बाद में पता चला कि वे जर्मनी पहुंच चुके हैं. बाद में उधम सिंह लंदन जा पहुंचे. यहां उन्होंने ड्वॉयर की हत्या का बदला लेने की योजना को अंतिम रूप देना शुरू किया. उन्होंने किराए पर एक घर लिया. इधर-उधर घूमने के लिए उधम सिंह ने एक कार भी खरीदी. कुछ समय बाद उन्होंने छह गोलियों वाला एक रिवॉल्वर भी हासिल कर लिया. अब उन्हें सही मौके का इंतजार था. इसी दौरान उन्हें 13 मार्च 1940 की बैठक और उसमें ड्वायर के आने की जानकारी हुई. वे वक्त से पहले ही कैक्सटन हाल पहुंच गए और मुफीद जगह पर बैठ गए. इसके बाद वही हुआ जिसका जिक्र लेख की शुरुआत में हुआ है.
सिंह सर्व धर्म समभाव में यकीन रखते थे. और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है. वे न सिर्फ इस नाम से चिट्ठियां लिखते थे बल्कि यह नाम उन्होंने अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.
देश के बाहर फांसी पाने वाले ऊधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे. उनसे पहले मदन लाल ढींगरा को कर्ज़न वाइली की हत्या के लिए साल 1909 में फांसी दी गई थी. संयोग देखिए कि 31 जुलाई को ही उधम सिंह को फांसी हुई थी और 1974 में इसी तारीख को ब्रिटेन ने इस क्रांतिकारी के अवशेष भारत को सौंपे. उधम सिंह की अस्थियां सम्मान सहित उनके गांव लाई गईं जहां आज उनकी समाधि बनी हुई है

जिया वही, जो तट छोड़ लड़ा लहर से @तरुण विजय

बरसों पहले गांधी स्मृति में ‘त्रिकाल-संध्या’ के यशस्वी कवि भवानी प्रसाद मिश्र से अकसर मिलने जाता था. शाम में वे बहुत कुछ सुनाते थे, जीवन के अनुभव और संघर्ष की बातें. अपनी पुस्तक ‘त्रिकाल-संध्या’ मुझे देते हुए उन्होंने उस पर एक पंक्ति लिखी, जो अब तक मन पर अंकित है- ‘वही जिया, जिसने किया, सूरज की तरह नियम से, बेगार करने का हिया’.
 
अद्भुत संदेश छिपा है इस छोटी सी पंक्ति में. कुछ अच्छा करके बदले में मिलने की चाह हो, तो ऐसे किये का क्या करें? जीना तो उसी का है जो सूरज की तरह नियम से बिना किसी छुट्टी के सबको रोशनी बांटने की बेगार करता रहे, भले ही कुछ मिले या न मिले.
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया, यानी माटी से माटी मिल गयी, लेकिन उनका नाम और उनके विचार आनेवाली पीढ़ियों को भी स्पंदित करते रहेंगे.
 
उन पर बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत कुछ लिखा भी जायेगा, पर वे इस बात को पुन: सिद्ध कर गये कि अच्छाई का कोई विकल्प नहीं. आप जीवन में लाखों-करोड़ों रुपये कमा लीजिए- जो अनेक राजनेता और उद्योगपति कमाते ही हैं- देश के विभिन्न क्षेत्रों में नहीं, बल्कि विश्व के श्रेष्ठतम इलाकों में विलासिता के हर साधन से युक्त बंगले बनवा लीजिए, लेकिन एक दिन आप देखेंगे कि एक लंगोटी वाला तीन कपड़े पहने व्यक्ति जो कभी न विधायक रहा होगा, या जो जनता की आजादी के लिए नेलसन मंडेला की तरह बरसों जेल में संघर्ष करता रहा होगा, ऐसा फटेहाल व्यक्ति दुनिया की आंखों का तारा और जनता का लोकप्रिय आदर्श बन गया है.
 
अमर होने का अर्थ है कि जब आप देह रूप में नहीं भी हैं, तब भी लोग अपने नाम की, आपकी कृति की प्रशंसा के साथ चर्चा करें, आपका नाम और जीवन दूसरों को वैसा ही अच्छा काम करने की प्रेरणा दे. दीनदयाल उपाध्याय कभी संसद सदस्य नहीं बने, राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव और श्यामाप्रसाद मुखर्जी करोड़पति नेताओं में नहीं गिने जाते. लेकिन, हजार करोड़पति एवं अरबपति आये और चले गये, उनका नाम भी कोई नहीं जानता, पर अमर वे ही रहे जो अपने अलावा दूसरों के लिए जिये और मरे. आज के राजनेता अपार समृद्धि और पाखंड में लिपटे जनसेवा की बात करते हैं, तो वे भूल जाते हैं कि जनता उनसे ज्यादा अक्लमंद होती है. आज शायद ही कोई ऐसा बड़ा नेता होगा, जिसके पास तीन-चार सौ करोड़ की संपत्ति न हो. लेकिन सम्मान आज भी वही ले जाते हैं, जो दरिद्र जनता के साथ एकात्मता स्थापित कर पाते हैं.
 
गांधीजी के चरणों में बड़े-बड़े उद्योगपति माथा नवाते थे, पर उन्होंने कभी गरीब भारतीयों के साथ अपने संबंध, अपनी आत्मीयता पर आंच नहीं आने दी. उद्योगपतियों के नाम बहुत कम लोग जानते होंगे, लेकिन अपने हाथ से सूत कातनेवाले, झाड़ू-बुहारी और शौचालय साफ करनेवाले गांधी महात्मा बन गये. आज तो किसी बड़े नेता को अपने हाथ से चिट्ठी लिखते देखा ही नहीं जा सकता. गांधीजी सुबह पांच बजे से पत्रों के उत्तर स्वयं देते थे. मैंने अटल बिहारी वाजपेयी को भी साधारण, अनजान, अजनबी कार्यकर्ताओं की चिट्ठियों के उत्तर अपने हाथ से देते देखा है. आज के युग में चिट्ठी की तो मृत्यु ही हो गयी है. अब सचिव लोग इतनी बेरुखी और सरकारी घमंड के साथ चिट्ठियों की पावती भेजते हैं कि मन में आता है कि उनके पास जाकर कहा जाये कि, भाई साहब, अगर इतनी ही बेरुखी से ये पंक्तियां भेजनी थीं, तो अच्छा होता आप चिट्ठी भेजते ही ना.
 
अब्दुल कलाम उस राजकीय अहंकार को तोड़नेवाले राष्ट्रपति थे, जो ब्रिटिश गुलामी की जूठन की तरह वायसराय की याद दिलाते हुए राष्ट्रपति भवन में पसरी हुई थी. प्रोटोकॉल? भाड़ में गया तुम्हारा प्रोटोकॉल, जो भारत की जनता का किसी मायावी शिष्टाचार के नियमों तले अपमान करे. वहां की हर चीज में ब्रिटिश राज की दरुगध है. सब शिष्टाचार वही है, जो वायसराय के समय होता था. आजादी पायी, लेकिन आजाद देश ने अपने प्रोटोकॉल और शिष्टाचार नहीं ढूंढ़े. अब्दुल कलाम ने उन सबको तोड़ा. राष्ट्रपति भवन साधारण जनता के लिए खोला. मुसलिम होते हुए भी दारा शिकोह की तरह उपनिषदों और भगवद्गीता का भक्तिपूर्वक अध्ययन किया. अपने सैकड़ों भाषणों में वे भारतीय सभ्यता के प्राचीन स्वर उद्धृत करते थे. उनकी अंतिम पुस्तक स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रमुख स्वामी के जीवन और विचार पर थी. वे अपने उस कथन के प्रतीक बन गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘जो तट से ममता तोड़ता है, वही अथाह सागर की संपदा पा सकता है’. कितनी बड़ी बात है. तट के बने रहोगे तो तट पर ही तो पड़े रहोगे. तट छोड़ोगे तभी तो आकाश या सागर का ओर-छोर नाप सकोगे.
 
अब्दुल कलाम ने संपूर्ण भारतीयता को जिया, जो भेदरहित और सीमारहित थी. भेद और पूर्वाग्रह एक दिन की सुर्खियां दिला सकते हैं, जैसे उन लोगों को मिली, जिन्होंने भारत की हर स्तरीय न्यायपालिका और न्यायाधीशों को धताते हुए तथा भारत की तमाम जांच एजेंसियों को मूर्ख मानते हुए 257 भारतीयों के रक्त से रंगे हाथ वाले व्यक्ति को माफी देने की मांग के कागज पर हस्ताक्षर किये. उनकी आंखों में 257 भारतीयों की रक्तरंजित देहों तथा उनके विलाप करते बच्चों, बूढ़े माता-पिता, पत्नी के कारुणिक चित्र नहीं उभरे, बल्कि नामुराद वोट बैंक का मसला उन्हें देश पर हमला करनेवाले के साथ में खड़ा कर गया.
 
दुख इस बात का होता है कि इस देश में जो स्वयं को सेक्यूलर तथा स्वतंत्रचेता न्याय के पक्षधर कहते हैं, वे ही सबसे ज्यादा सांप्रदायिकता एवं पक्षपात करते हुए दिखते हैं. क्या किसी अपराधी का कोई मजहब माना जा सकता है, सिवाय इसके कि वह अपराधी है? क्या भारत की संपूर्ण न्यायपालिका को अपने-अपने पूर्वाग्रहों पर कस कर स्वयं को उससे बेहतर न्याय देनेवाले जो घोषित करते हैं, उन्हें देश का मित्र और न्याय का पक्षधर कहा जा सकता है? आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस व्यक्ति को देश की सर्वोत्तम और साधन संपन्न राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अपराध में लिप्त पाया, जिसे बीस साल का समय मिला स्वयं को निदरेष सिद्ध करने के लिए और न्याय का हर दरवाजा जिसके लिए आधी रात को भी खुला, उसके पक्ष में जो लोग खड़े हुए, उन्होंने उन 257 लोगों को एक बार भी याद नहीं किया, जो याकूब मेमन के षड्यंत्र के कारण असमय अपनी जान गंवा बैठे. क्या वे भारतीय नहीं थे?
 
जो दूसरों के लिए जिया, वो तट छोड़ कर लहरों से लड़ा और अमर हो गया. जो नफरत में सना, वह न खुदा का रहा न खुदा के बंदों का.

Tuesday, 28 July 2015

मिसाइलमैन से महामहिम बनने का अद्भुत सफर @विजय गोयल

वर्ष 2002 में अटल बिहार वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में एक बहुत बड़ा प्रश्न था कि अगला राष्ट्रपति कौन होगा? मैं उस वक्त पीएमओ में मंत्री था। अटलजी से अनौपचारिक बातचीत में जो नाम उभर रहे थे, उनमें महाराष्ट्र के गर्वनर पीसी एलेक्जेंडर का नाम प्रमुख था। वह एक विद्वान व्यक्ति थे। राजग के लगभग सभी घटक उनके नाम पर सहमत थे। इन सबके चलते यह लगा कि कांग्रेस को भी उनके नाम पर आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि वह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रधान सचिव रह चुके थे तथा कांग्रेस सरकार के चलते ही महाराष्ट्र के गर्वनर नियुक्त हुए थे। राजग सरकार ने उनकी योग्यता और कार्यकुशलता को देखकर राज्यपाल पद पर उनकी पुन: नियुक्ति की थी।
मैं जब उनसे मिलने गया तो वह बहुत उत्साहित थे और उन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव का गणित भी जोड़ रखा था। उनसे मिलने के बाद मैंने अपनी और एलेक्जेंडर की बातचीत का ब्यौरा प्रधानमंत्री वाजपेयी को दिया। प्रधानमंत्री ने कहा कि स्वयं कांग्रेस उनके नाम का विरोध कर रही है। बाद में पता चला कि कांग्रेस उनका विरोध इसलिए कर रही थी कि एलेक्जेंडर ने बिना उनसे पूछे राज्यपाल के पद पर राजग सरकार के कहने पर अपनी नियुक्ति पर सहमति क्यों दी?
वाजपेयी चाहते थे कि राष्ट्रपति का चुनाव आम सहमति से होना चाहिए। ऐसे में डॉ. कलाम का नाम हम लोगों के सामने आया। शुरू में सबको ऐसा लगा कि क्या ये व्यक्ति राष्ट्रपति पद जैसे दायित्व को निभा पाएगा? या देश उनको नए अवतार में स्वीकार कर पाएगा? सच पूछिए तो वाजपेयीजी उनकी वैज्ञानिक क्षमता, उनकी लोकप्रियता, विद्वता से प्रभावित थे। फिर वह मुस्लिम समुदाय से भी आते थे, इसका भी एक 'संदेश" था। ऐसे में वह वाजपेयी की पहली पसंद बने। इस फैसले पर लोगों के भिन्न्-भिन्न् मत थे, जिनसे मैं वाजपेयी को अवगत कराता रहता था। पर वाजपेयी वाजपेयी थे। जब एक बार फैसला कर लेते थे तो उस पर अडिग रहते थे।
10 जून, 2002 को अटलजी ने कलाम साहब से उनकी सहमति के लिए औपचारिक बात की, जिसमें उन्होंने दो घंटे का समय लिया और अपनी सहमति दे दी। प्रधानमंत्री ने मुझे चेन्न्ई में अब्दुल कलाम से मिलने के लिए भेजा। मैं जब 15 जून, 2002 को चेन्न्ई में अन्ना यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में पहुंचा तो बड़ी प्रसन्‍नता से वह मुझसे मिले। हमने देर तक बातचीत की। मैंने देखा कि वह सिर्फ एक वैज्ञानिक, मिसाइलमैन या एक नीरस व्यक्ति न होकर एक ऐसे व्यक्ति थे, जो देश के लिए सपने देखते थे, युवाओं और गरीबों के लिए कुछ करना चाहते थे। उन्होंने कहा कि वह अपनी रिसर्च और पढ़ाने के शौक को राष्ट्रपति बनने के बाद भी जारी रखना चाहेंगे। वह कहते थे कि देश को 'रोल मॉडल्स" की जरूरत है, जिनमें रचनात्मक समझ हो और ऐसा नेतृत्व जो युवाओं को प्रेरित कर सके।
मैंने जब उनसे पूछा कि राष्ट्रपति जैसे बड़े पद की इतनी जिम्मेदारियों को वह कैसे निभा पाएंगे तो वह बोले कि उनको दिन में 18 घंटे काम करने की आदत है। मेरी 40 मिनट की मीटिंग में कलाम साहब ने कहा कि देश के निर्माताओं के दो विजन थे। पहला, देश को विदेशियों के चंगुल से निकालना और दूसरा, उसके बाद देश का विकास। हमारे देश में संसाधनों व प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है, पर जिसकी आवश्यकता है, वह है ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक एवं सृजनात्मक काम।
डॉ. कलाम वाजपेयी के पहले से ही प्रशंसकों में रहे थे। विशेषकर 1998 में परमाणु शस्त्रों के विस्फोट के निर्णय लेने पर वह उनके और ज्यादा प्रशंसक बने। राष्ट्रपति बनने से पहले कलाम प्रधानमंत्री वाजपेयी से मिलने 17 जून, 2002 को दिल्ली आए। मैंने देखा कि प्रधानमंत्री शिष्टाचार के नाते उनके स्वागत के लिए अपने कमरे से बाहर आए। ये मीटिंग काफी देर तक चली। प्रधानमंत्री ने मुझे उनका नामांकन पत्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। इस नए काम से मैं बहुत प्र्रफुल्लित था। यह तय हुआ कि यह नामांकन पत्र मेरे तत्कालीन निवास महादेव रोड पर तैयार होगा। प्रमुख रूप से जिन नेताओं को इस काम में लगाया गया था, उनमें प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू, डॉ. मुरली मनोहर जोशी इत्यादि थे। प्रमोद महाजन इस सारे काम का संयोजन कर रहे थे।
18 जून, 2002 को नामांकन भरने के बाद उन्होंने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस की थी, जिसमें बड़ी बेबाकी से गुजरात, अयोध्या, परमाणु विस्फोट इत्यादि विषयों पर जवाब दिए। उन्होंने कहा कि भारत को एक ऐसा शिक्षित राजनीतिक वर्ग चाहिए, जो सही और सार्थक निर्णय लेने में सक्षम हो। अयोध्या के संदर्भ में उन्होंने कहा कि जरूरत है शिक्षा, आर्थिक विकास और मनुष्यों के एक-दूसरे के प्रति सम्मान की।
18 जुलाई, 2002 को राष्ट्रपति चुने जाने के बाद मैं समय-समय पर उनसे मिलता रहा। एक मुलाकात में जब मैंने उनको बताया कि चांदनी चौक से सांसद होने के नाते किस तरीके से मैंने एमसीडी स्कूलों का सुधार किया है तो उन्होंने वहां आने की इच्छा व्यक्त की और प्रशंसा की कि ये बहुत अच्छा काम है। इसके बाद उन्होंने चिट्ठी भी भेजी। यह और बात है कि सुरक्षा कारणों से वहां आने का उनका कार्यक्रम नहीं बन पाया। वह दिनोंदिन लोकप्रिय होते जा रहे थे। राष्ट्रपति भवन में भी वह अपने पढ़ाने के क्रम को जारी रखे हुए थे। जो वह कहते थे, उन्होंने कर दिखाया और वह पूरे देश के 'रोल मॉडल" बन गए।
मुझे याद है कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के मेरे पुराने कॉलेज - श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में आए थे। श्रीराम कॉलेज का पुराना स्टूडेंट होने के नाते मुझे भी निमंत्रित किया गया था। हॉल खचाखच भरा था। छात्र-छात्राओं में उनकी एक झलक पाने की होड़ लगी हुई थी। 'मिसाइलमैन" आया। बहुत समय तक वह विद्यार्थियों के प्रश्नों के जवाब देते रहे। कार्यक्रम खत्म होने के बाद उनके प्रति जो 'क्रेज" मैंने वहां देखा, वह अविस्मरणीय था।
प्रोटोकॉल के चलते राष्ट्रपति बनने के बाद वह प्रधानमंत्री के यहां नहीं आ सकते थे। प्रधानमंत्री समय-समय पर उनसे मिलते।
जो लोग ये सोचते थे कि कलाम को कोई भी अपने हिसाब से चला लेगा, वे गलत थे। किसी भी संवैधानिक मतभेद पर वह कानूनी राय लेते थे और उसके बाद ही वह संबंधित पार्टियों के नेताओं से बड़े विश्वास से बात करते थे। एक राष्ट्रपति के रूप में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है। ऐसे कितने नेता बचे हैं, जिनके चित्र गांधी, सुभाष, पटेल की तरह अपने घर में लगाने का लोगों का मन करता है तो मैं कहूंगा कि डॉ. कलाम ऐसे ही हैं।

Monday, 27 July 2015

कोरिया युद्ध : जब विश्व की सबसे बड़ी ताकतों को भारत की बार-बार जरूरत पड़ी @पवन वर्मा

कोरिया युद्ध
कोरिया में विश्व ताकतों के बीच चल रहा युद्ध यदि 27 जुलाई, 1953 को खत्म हो पाया तो इसमें भारत की बेहद अहम भूमिका थी.
आज कोरियाई युद्ध विराम की 62वीं वर्षगांठ है. 27 जुलाई, 1953 को दोनों देशों के बीच चला आ रहा तीन साल लंबा युद्ध खत्म हुआ था. यह दिन जितना कोरियाई प्रायद्वीय के लिए महत्वपूर्ण है उतना ही भारत के लिए भी. माना जाता है कि आधुनिक विश्व के इसी घटनाक्रम की वजह से भारत पहली बार विश्व कूटनीति के मंच पर उभर कर आया.
कोरिया युद्ध दरअसल शीत युद्ध की ही परिणति थी. कोरिया (संयुक्त) 1910 से लेकर 1945 तक जापान के कब्जे में रहा है. द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में रूस ने जापान के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था और उसके लिए कोरिया जंग का मैदान था. वहीं अमेरिका भी यहां जापान के खिलाफ युद्धरत था. जब विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो रूस और अमेरिका के बीच संधि हो गई और कोरिया को दो भागों – उत्तरी और दक्षिणी – में विभाजित कर ये दोनों देश संयुक्त रूप से उसे प्रशासित करने लगे. कोरियाई नेताओं से इन देशों ने वादा किया था कि पांच साल के बाद वे देश को उनके हवाले कर देंगे. लेकिन जनता इस व्यवस्था के खिलाफ थी. नतीजा यह हुआ कि जल्दी ही कोरिया में विरोध प्रदर्शन होने लगे.
जवाहरलाल नेहरू पहले से ही इस मुद्दे पर रूस और अमेरिकी सरकार के संपर्क में थे और गुटनिरपेक्षता की नीति के तहत वे पहले ही कह चुके थे कि वे किसी खेमे का अपना समर्थन नहीं देंगे
इन परिस्थितियों में आखिरकार अमेरिकी प्रभाव वाले दक्षिणी हिस्से में 1948 के दौरान चुनाव हुए और वहां एक अमेरिकी समर्थक सरकार का गठन हो गया. उत्तरी क्षेत्र में रूस और चीन के समर्थन वाली साम्यवादी सरकार बनी. परस्पर विरोधी विचारधारा वाली सरकार के गठन और रूस-चीन और अमेरिकी खेमों के दखल के साथ ही यह तकरीबन उसी समय तय हो गया था कि कोरिया के ये दो हिस्से जल्दी ही एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे. उत्तर कोरिया ने पहले ही यह धमकी दे दी थी कि वह दक्षिण कोरियायी सरकार को गैरकानूनी मानता है.
इस दौरान चीन में कम्युनिस्टों और राष्ट्रवादियों के बीच लड़ाई भी चल रही थी. इसमें कोरिया के तकरीबन 50 हजार सैनिक कम्यूनिस्टों के पक्ष में लड़ाई कर रहे थे. 1949 में कम्युनिस्टों की जीत से साथ ही पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का गठन हो गया. चीन से कोरियाई सैनिक उत्तर कोरिया चले गए. इन सबके साथ चीन ने वहां टैंक सहित भारी हथियार भेज दिए. तब यहां किम इल सुंग (देश के वर्तमान तानाशाह किम जोंग उन के दादा) का शासन था. चीन से वापस आए सैनिक और रूस के शासक स्टालिन की शह पर उत्तर कोरिया ने 25 जून, 1950 को दक्षिण कोरिया पर अचानक आक्रमण कर दिया. कुछ ही दिनों के भीतर दक्षिण कोरिया का एक बड़ा हिस्सा उत्तर कोरिया के कब्जे में चला गया और इस तरह से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक और बड़ा युद्ध शुरू हो गया.
कोरिया युद्ध
अमेरिकी सेनाओं के कमांडर जनरल डगलस मैकआर्थर (बीच में) ने शुरुआत में कोरिया युद्ध को अमेरिका के पक्ष में झुका दिया था
कुछ ही दिनों की लड़ाई में दक्षिण कोरिया हार की कगार पर पहुंच चुका था लेकिन इसी समय समय अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से एक प्रस्ताव पारित करवा लिया. इससे अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र के झंडे तले सहयोगी देशों की सेना के साथ दक्षिण कोरिया की मदद करने का अधिकार मिल गया. इससे पहले कि पूरा दक्षिण कोरिया, किम इल सुंग के कब्जे में आता वहां अमेरिका के नेतृत्व में दस लाख सैनिक पहुंच गए.
भारत इस दौरान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य था. सुरक्षा परिषद में उत्तर कोरियाई आक्रमण के खिलाफ आए प्रस्ताव के वक्त वह अनुपस्थित रहा था. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पहले से ही इस मुद्दे पर रूस और अमेरिकी सरकार के संपर्क में थे और गुटनिरपेक्षता की नीति के तहत कह चुके थे कि वे किसी खेमे का अपना समर्थन नहीं देंगे. इस युद्ध में एक पक्ष संयुक्त राष्ट्र की सेना थी. इसलिए अमेरिका चाहता था कि भारत भी इस लड़ाई में अपनी सेना भेजे. भारत सरकार ने इसके लिए मना कर दिया लेकिन सेना की मेडिकल कोर की एक टुकड़ी (60वीं पैराशूट फील्ड एंबूलेंस) संयुक्त राष्ट्र सैनिकों की मेडिकल सहायता के लिए भेज दी.
चीन के शीर्ष नेता चाऊ एन लाई ने बीजिंग में भारतीय राजदूत के जरिए नेहरू को संदेश भिजवाया कि यदि अमेरिका ने उत्तर कोरिया पर कब्जा करने की कोशिश की तो वह शांत नहीं बैठेगा
सितंबर, 1950 तक अमेरिकी नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र की सेना ने दक्षिण कोरिया का एक बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया था. अब यह सेना उत्तर कोरिया में चीन की सीमा के नजदीक बढ़ रही थी. चीन की कम्युनिस्ट सरकार के लिए ये परिस्थितियां स्वीकार्य नहीं थी. उस समय तक वहां की सरकार ने भी यह मान लिया था कि इस युद्ध में भारत और नेहरू महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. चीन के शीर्ष नेता चाऊ एन लाई ने बीजिंग में भारतीय राजदूत के जरिए नेहरू को संदेश भिजवाया कि यदि अमेरिका ने उत्तर कोरिया पर कब्जा करने की कोशिश की तो वह शांत नहीं बैठेगा और भारतीय प्रधानमंत्री को यह बात वाशिंगटन तक पहुंचानी चाहिए.
नेहरू को चीन के इरादों पर कोई शक नहीं था. उन्होंने यह चेतावनी अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन तक पहुंचा दी. हालांकि इसका कोई असर नहीं हुआ. अमेरिका के सैनिक जब उत्तर कोरिया की तरफ और आगे बढ़े तो नवंबर में अचानक चीन ने अमेरिका के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और पहली बार इस युद्ध में अमेरिकी सेना को पीछे हटना पड़ा.
अब इस क्षेत्र में लड़ाई लंबी खिंचने के आसार बन गए थे. इस समय भारत फिर सक्रिय हुआ और ब्रिटेन के सहयोग से चीन को युद्ध विराम के लिए तैयार कर लिया. लेकिन अमेरिका इसके लिए तैयार नहीं था. भारत ने संयुक्त राष्ट्र में एक शांति प्रस्ताव भी पेश किया लेकिन यहां ब्रिटेन ने उसका साथ नहीं दिया और प्रस्ताव खारिज हो गया. लड़ाई शुरू हुए एक साल से ज्यादा बीत गया था. चीन-उत्तर कोरिया और अमेरिका-सहयोगी देशों की सेनाएं अपने मोर्चों पर जमी हुई थीं. हालांकि अब तक दोनों पक्षों को यह समझ आ गया था कि इस युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकलना है.
दोनों पक्ष समझौते की कोशिश कर रहे थे लेकिन आखिरी सहमति नहीं बन पा रही थी. दोनों के बीच सबसे बड़ा मुद्दा युद्ध बंदियों की अदला-बदली का था. युद्ध विराम की पूरी बात इसी पर अटकी थी. अमेरिका के कब्जे में विरोधी पक्ष के तकरीबन 1,70,000 सैनिक बंदी थे. चीन इन सब की रिहाई चाहता था. लेकिन अमेरिका का तर्क था कि सभी युद्ध बंदी चीन या उत्तर कोरिया जाना नहीं चाहते इसलिए वह इन्हें कम्युनिस्ट सरकार को नहीं सौंप सकता. अमेरिका ने इस परिस्थिति में मध्यस्थता के लिए भारत को आमंत्रित किया. नेहरू सरकार ने चीन को अपने रुख में परिवर्तन के तैयार कर लिया लेकिन इस बार अंतिम समझौते के पहले अमेरिका एक बार फिर बातचीत से पीछे हट गया.
संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध बंदियों की अदला बदली के लिए भारत की अध्यक्षता में एक आयोग के गठन को सहमति दी थी. इसमें पांच और देश भी शामिल थे
भारत की मध्यस्थता का प्रस्ताव एक साल तक अटका रहा. इस बीच अमेरिका ने चीन को परमाणु बम से हमले की भी धमकी दी लेकिन चीन ने उसके आगे झुकने से इनकार कर दिया. यह सब और आगे चलता लेकिन मार्च, 1953 में स्टालिन की मौत ने हालात बदल दिए. रूस की नई सरकार अब इस मसले को और लंबा नहीं खींचना चाहती थी. इसके बाद चीन ने भी अपने रुख में कुछ नरमी दिखाई और 27 जुलाई, को युद्ध विराम समझौते पर दस्तखत हो गए. इस युद्ध विराम का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा युद्ध बंदियों की अदला-बदली का ही था. संयुक्त राष्ट्र ने इसके लिए भारत की अध्यक्षता में एक आयोग (न्यूट्रल नेशंस सुपरवाइजरी कमीशन या एनएनएससी) के गठन को सहमति दी थी. इसमें पांच देश शामिल थे. पश्चिमी देशों ने इसमें स्वीडन और स्विटजरलैंड को शामिल करवाया था तो चीन ने पौलेंड और चेकोस्लोवाकिया को. भारतीय सेना के प्रमुख जनरल केएस थिमैया इस आयोग के अध्यक्ष थे. शुरुआत में कोरिया और चीन इस प्रस्ताव पर सहमत नहीं थे लेकिन आखिरकार कोई विकल्प न देखकर उन्हें इसके लिए तैयार होना पड़ा.
भारत ने युद्ध बंदियों की अदला बदली के लिए 6000 सैनिकों की अपनी ‘ इंडियन कस्टोडियल फोर्स (आईसीएफ) ’ भी कोरिया में तैनात कर दी. एनएनएससी को सैनिकों से बातचीत करके तय करना था कि उनमें से कौन अपने देश वापस जाना चाहता है और कौन किसी तीसरे देश में शरण चाहता है. आयोग ने पहले चरण में सैकड़ों बीमार और जख्मी सैनिकों की अदला-बदली की व्यवस्था की थी. यह काम 1954 तक चला लेकिन इसके बाद चीन के बढ़ते विरोध के बाद भारत ने एनएनएससी का अध्यक्ष पद छोड़ दिया और शेष युद्ध बंदियों को संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में सौंप दिया. इसी के साथ भारतीय सेना की मेडिकल कोर और आईसीएफ की भी वापसी हो गई.
कोरिया युद्ध विराम के साथ ही इस क्षेत्र में अस्थायी शांति हो गई थी. भारत इस पूरे घटनाक्रम में किसी पक्ष की तरफ नहीं था. लेकिन अपनी शांति की कोशिशों की वजह से तटस्थ देशों के बीच उसकी अच्छी-खासी साख बन गई. माना जाता है कि कोरिया युद्ध में अपनी भूमिका की वजह से ही नेहरू आनेवाले सालों में विश्व नेता के तौर पर उभरे थे

Sunday, 26 July 2015

इतिहास को खास चश्मे से नहीं देखा जा सकता @पत्रलेखा चटर्जी

किसी भी देश में ज्यादातर छात्र इतिहास को एक तयशुदा वृत्तांत के जरिये जानते हैं-इस प्रक्रिया के तहत इस भ्रामक विचार पर आगे बढ़ा जाता है कि अतीत को एक ही ढर्रे में विश्लेषित किया जा सकता है। पर इतिहास में कई इतिहास होते हैं। अगर अतीत के विश्लेषण के लिए हमने खुद को एक ही धारा के व्यक्तित्व और उनसे जुड़ी घटनाओं की व्याख्या तक सीमित कर दिया, भले ही वे ज्यादा प्रभावी क्यों न हों, तो हम ठीक से न इतिहास को समझ पाएंगे, न वर्तमान को। यह मुद्दा एक नए विवाद के कारण अब ज्यादा प्रासंगिक है-औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटेन हमारे यहां से जो कुछ लूटकर ले गया, क्या उसके एवज में उसे हर्जाना देना चाहिए? जाहिर है, जो कुछ वह ले गया था, वह सारा वह चुका नहीं सकता, लेकिन सांकेतिक रूप में भी उसे कुछ चुकाना चाहिए या नहीं?

कांग्रेस सांसद शशि थरूर का कहना है कि ब्रिटेन को हर्जाना देना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शशि थरूर की प्रशंसा की है, जो जाहिर है, नीति के बजाय राजनीति केंद्रित है। शशि थरूर का वह भाषण इंटनरेट पर वायरल हो गया है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई उस बहस में शशि थरूर ने कहा था कि ब्रिटिश जब भारत आए थे, तब वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी हिस्सेदारी 23 प्रतिशत थी, लेकिन जब वे भारत छोड़कर गए, तब वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी हिस्सेदारी सिमटकर महज चार फीसदी रह गई। दरअसल ब्रिटेन ने अपने फायदे के लिए भारत पर शासन किया था। उसका अपना औद्योगिकीकरण भारत के औद्योगिकीकरण को तहस-नहस कर देने पर ही संभव हुआ। थरूर का वह भाषण पिछले सप्ताह यू-ट्यूब पर डाला गया, तब से 15 लाख बार उसे देखा-सुना जा चुका है। लंदन स्थित बीबीसी एशियन नेटवर्क से इसी सप्ताह मेरे पास एक कॉल आई, जिसमें मुझे एक परिचर्चा में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया, जिसका विषय यह था कि इस प्रस्ताव पर भारत में कैसी प्रतिक्रिया है, जिसमें भारत पर दो सदी तक के औपनिवेशिक शासन के लिए ब्रिटेन से हर्जाना चुकाने की मांग की गई है। मैंने उन्हें बताया कि थरूर ऑक्सफोर्ड में आयोजित एक बहस में बोल रहे थे, किसी संसद या राजनीतिक मंच से नहीं।

थरूर ने जो कुछ कहा है, भारत में खासकर इतिहास के छात्रों के लिए वह नई बात नहीं है। बिटिश उपनिवेशवाद से लेकर तमाम औपनिवेशिक शासनों में भारत का शोषण हुआ। लेकिन ब्रिटेन से आर्थिक क्षतिपूर्ति मांगना भारत के एजेंडे में नहीं है। न ही युवा भारतीयों की सोच, जो देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा हैं, ब्रिटेन के प्रति शत्रुतापूर्ण है। मैंने उन्हें यह भी बताया कि थरूर ने बहस में क्षतिपूर्ति की जो मांग की है, उसे आर्थिक के बजाय प्रतीकात्मक रूप में देखना चाहिए। वह दरअसल ब्रिटेन से यह कुबूलवाना चाह रहे हैं कि दो सौ वर्षों तक उसके उत्थान की कीमत भारत ने बर्बाद होते हुए चुकाई।

वस्तुतः यह एक ऐसा सर्वज्ञात तथ्य है, जिसे आज तक चुनौती नहीं दी जा सकी। सिर्फ भारतीय इतिहासकारों ने नहीं, ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी उपनिवेशवाद के आर्थिक प्रभाव-मसलन, संपत्ति के यहां से ब्रिटेन जाने, स्वामित्व हरण (मुख्यतः जमीन का), उत्पादन और व्यापार पर नियंत्रण, प्राकृतिक संसाधनों के शोषण और आधारभूत व्यवस्था में सुधार-पर विस्तार से लिखा है। ब्रिटिश इतिहासकार बी आर टॉमलिन्सन ने लिखा है कि उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी ढाई दशकों में भारत ब्रिटेन से निर्यात होने वाली चीजों का सबसे बड़ा खरीदार था। भारत इसके अलावा ऊंचे वेतन वाले ब्रिटिश सिविल सेवकों का बड़ा नियोक्ता और ब्रिटिश साम्राज्य को आधी सैन्य ताकत मुहैया कराने वाला देश था-इन सबका खर्च स्थानीय स्तर पर उगाहे गए राजस्व से चुकाया जाता था। एक दूसरे प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार एनगस मैडिसन ने भी भारत से भारी मात्रा में संसाधनों के ब्रिटेन पहुंचने का जिक्र किया है। उनका कहना था कि अगर इस विशाल राशि का भारत में निवेश किया जाता, तो उससे भारत में आय का स्तर ऊपर उठता। ब्रिटेन की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में भारत में उसके औपनिवेशिक शासन के काले पक्ष के बारे में कुछ नहीं बताया गया है, इसके बावजूद इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

इसी के साथ ब्रिटिशों ने हालांकि एक परंपरा छोड़ी, जिसके कुछ लाभ भी हुए, बावजूद इसके कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मुख्य उद्देश्य भारतीयों का कल्याण नहीं था। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को स्याह-सफेद या प्रेम-घृणा के खांचे में बांटकर नहीं देखा जा सकता। वह एक जटिल और विविधतापूर्ण दौर था। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब, गांधी बिफोर इंडिया में लिखा है कि ब्रिटिश साम्राज्य को शैतानी कहने वाले गांधी जी तब रोए थे, जब दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लंदन पर बमबारी हुई थी। यह वह शहर था, जिसे वह जानते और प्यार करते थे। अहिंसा के इस सर्वमान्य पुजारी ने प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों को भेजा था।

शशि थरूर के भाषण ने बताया है कि इतिहास जटिल है, जिसे एकरेखीय वृत्तांत के जरिये नहीं समझा जा सकता। जबकि कई तरह के वृत्तांत एक दूसरे से टकराते हैं। ऐसे में क्या किया जाए? पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन या इतिहास लेखन की एक पद्धति को दूसरी पद्धति से बदलना इसका हल नहीं है। हमें समझना होगा कि इंटरनेट के इस दौर में इतिहास की हर व्याख्या तक आदमी की पहुंच है। इसे रोकना न तो संभव है, न ही उचित। इसके बजाय हमें युवाओं के सामने इतिहास की हर व्याख्या रखनी चाहिए, ताकि उनमें विश्लेषण करने की क्षमता पैदा हो और वे अपने स्तर पर निष्कर्ष निकाल सकें

जिन्हें दुनिया अरबी अंक कहती है वे भारत की देन हैं |


पूरा विश्व जिन्हें अरबी अंक कहता है उनका मूल स्रोत गणित की प्राचीन हिंदुस्तानी पांडुलिपि बक्षाली है.
पिछले कुछ हफ्तों के दौरान ऊपर दी गई तस्वीर इंटरनेट पर खूब वायरल हुई है. लाखों लोगों ने इसे इस टिप्पणी के साथ शेयर किया है कि अंकों के अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक – अरबी अंक (अरेबिक न्यूमेरल्स) प्राचीन अरबी सभ्यता में विकसित हुई ज्यामितीय आकृतियों के आधार पर बने हैं. तस्वीर के साथ लिखी इबारत के मुताबिक, ‘हर प्रतीक में जितने कोने या कोण हैं वह उस संख्या को बताता है.’
इस तस्वीर पर ज्यादा सवाल नहीं उठाए गए, लेकिन ऐतिहासिक नजरिए से यह अरबी अंकों के विकास की गलत कहानी कहती है. वास्तविकता यह है कि जिन अंकों को पूरा विश्व अरबी अंक या अरेबिक न्यूमेरल्स कहता है वे ईसा से दो शताब्दी पूर्व से लेकर तीसरी शताब्दी के बीच भारतीय गणितज्ञों ने विकसित किए थे. इतिहासकार मानते हैं कि इनका स्रोत बक्षाली या बख्शाली पांडुलिपि है. बक्षाली पांडुलिपि को भारतीय गणित का सबसे पुराना लिखित दस्तावेज माना जाता है. यह 1881 में तक्षशिला से तकरीबन 70 किमी दूर बख्शाली गांव (पाकिस्तान में पेशावर के नजदीक) में मिली थी. बक्षाली पांडुलिपि कुल 70 भोजपत्रों की है जिनपर गाथा भाषा (संस्कृत और प्राकृत का मिलाजुला रूप) और शारदा लिपि में गणितीय क्रियाओं के कुछ प्रारंभिक सूत्र लिखे हैं. माना जाता है कि शून्य का बुनियादी सिद्धांत इसी पांडुलिपि में दर्ज है.
मध्यकालीन युग (पांचवीं से पंद्रहवीं शताब्दी के बीच) में ये अंक प्राचीन ईरानी सभ्यता तक पहुंचे. फिर अरबी सभ्यता का इनसे परिचय हुआ
बक्षाली पांडुलिपी
बक्षाली पांडुलिपि में लिखे गए अंक और आधुनिक अंकों में काफी समानता है
इस पांडुलिपि में गणितीय सूत्र जिन अंकों (इन्हें ब्राह्मी भाषा के अंक भी कहा जाता है) में दर्ज हैं उनको देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि अरबी अंक असल में कहां से आए हैं. प्रसिद्ध भाषाविद आगस्टस रुडोल्फ होइरेनल ने 1887 में सबसे पहले इन पांडुलिपियों का अध्ययन किया था और आधुनिक विश्व को उनके जरिए ही यह ऐतिहासिक जानकारी मिली.
इन अंकों का यह आकार सीधे ही पश्चिमी गणित का हिस्सा नहीं बना. इनके वर्तमान आकार को देखते हुए यह कहा जा सकता है यहां तक पहुंचने में भी इन्हें लंबा अरसा लगा होगा. इतिहास के मध्यकालीन युग (पांचवीं से पंद्रहवीं शताब्दी के बीच) में ये अंक प्राचीन ईरानी सभ्यता तक पहुंचे. फिर अरबी सभ्यता का इनसे परिचय हुआ और वहां से यूरोप की दुनिया तक इनका विस्तार हुआ.
यूरोप में पहली बार अरबी अंकों का इस्तेमाल स्पेन में हुआ था. उत्तरी स्पेन में तीन संतों द्वारा कोडेक्स विजिलेनस नाम से इतिहास का एक दस्तावेज तैयार किया गया था. इसी ने सबसे पहले अंकों के इस आकार का परिचय स्पेनवासियों को करवाया था. यह 900 ईसवी के आसपास की बात है.
यूरोप में अरबी अंको का विकास
फ्रांस के इतिहासकार जीन एटीने मोंटक्युला द्वारा 1757 में लिखी एक किताब में अंकों का विकास दिखाया गया है
हैरानी की बात है कि इन अंकों से यूरोप के बाकी देशों का पहला परिचय होने में तकरीबन 300 साल लग गए. इसका श्रेय इटली के गणितज्ञ लियोनार्दो इबोनाक्ची को जाता है. उन्होंने अपनी गणितीय सिद्धांतों की किताब लिबेर एबेकी (अंग्रेजी में इसका नाम बुक ऑफ कैलकुलेशन) में इन अंकों का प्रयोग किया और इसके बाद इनसे पूरा यूरोप परिचित हो गया. आने वाली शताब्दियों में अरबी अंक प्रणाली को यूरोपीय समाज की मुख्यधारा ने अपना लिया.
इनका नामकरण अरबी होने के पीछे बस यही संयोग है कि स्पेनवासियों ने इन्हें अरबी लोगों से सीखा था और इस तरह ये पूरे यूरोप में अरबी अंक बन गए.
15वीं और 16वीं शताब्दी में ब्रिटेन में बनने वाली घड़ियों में इन अंकों का इस्तेमाल होने लगा था. वहां संदेशों और लिखित सामग्री में भी इन्हें जगह मिल गई. इसके अलावा जर्मनी में इनका प्रयोग शैक्षिक कार्यों में होने लगा था. यूरोप में पुनर्जागरण काल (14वीं से 17वीं शताब्दी) के दौरान टाइपोग्राफी (छापे के अक्षर) का विकास हुआ और अंकों के आकार को इसने और स्थायित्व प्रदान किया.
1757 में फ्रांस के इतिहासकार जीन एटीने मोंटक्युला ने एक किताब लिखी थी – गणित का इतिहास. इसमें उन्होंने कुछ प्रतीकों के माध्यम से अरबी अंकों का तत्कालीन विकास दिखाया था. इस टेबल की सातवें नंबर की लाइन (ऊपर चित्र में) में जो अंक लिखे हैं उन्हें बड़ी आसानी से पहचाना जा सकता है. इस लाइन के आगे लिखा है शीफेर मॉडेर्न. फ्रैंच भाषा में इसका मतलब होता है आधुनिक अंक. वे अंक जो 18 शताब्दी में तकरीबन पूरे विश्व में प्रचलित थे. यही अंक आज भी प्रचलन में हैं. अंको के विकास की इस पूरी यात्रा में इनका नामकरण अरबी होने के पीछे बस यही संयोग है कि स्पेनवासियों ने इन्हें अरबी लोगों से सीखा था और इस तरह ये पूरे यूरोप में अरबी अंक बन गए. हालांकि लोकव्यवहार से अलग अकादमिक इस्तेमाल में आज भी यह इन्हें हिंदू-अरबी अंक ही कहा जाता है

'करगिल का नतीजा पाक के लिए शर्मनाक था' @विनीत खरे


जगह– गारकॉन गांव, करगिल का बटालिक सेक्टर. साल 1999, मई के शुरुआती दिन थे.
ताशि नामग्याल अपने घर से थोड़ी दूर गुम हो गई याक को ढूंढने निकले थे कि उनकी नज़र काले कपड़े पहने हुए छह बंदूकधारियों पर पड़ी जो पत्थरों को हटा कर रहने की जगह बना रहे थे.
उन्होंने ये बात स्थानीय भारतीय सैनिकों तक पहुंचाई. जल्द ही सेना की ओर से एक दल को जांच के लिए भेजा गया. और इस तरह करगिल में घुसपैठ का पता चला.
भारतीय सेना को घुसपैठियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और शुरुआत में भारत की ओर से कहा गया कि चरमपंथियों को जल्द ही निकाल दिया जाएगा.
लेकिन जल्द साफ़ हो गया कि भारतीय सेना का सामना पाकिस्तानी सैनिकों से था.



भारतीय टेलीविज़न के इतिहास में करगिल भारत-पाकिस्तान के संघर्ष की पहली लड़ाई थी जिसकी तस्वीरें देश के घर-घर में पहुंचीं.
इस बारे में पत्रकार बरखा दत्त ने कुछ साल पहले बीबीसी से बातचीत में याद दिलाया था कि उस ज़माने में ओबी वैंस नहीं हुआ करती थीं.
उन्होंने कहा था, “जो हेलीकॉप्टर सैनिकों के शव वापस ले जाते थे, उनसे हम कहते थे कि हमारे टेप्स ले जाइए.”
घुसपैठियों ने उन भारतीय चौकियों पर कब्ज़ा किया था जिन्हें भारतीय सेना सर्दियों में खाली कर देती थी.
पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ की ख़बर भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की फरवरी 1999 की लाहौर यात्रा के चंद महीनों के बाद ही आई थी.
पाकिस्तान आखिर क्या हासिल करना चाहता था?
पाकिस्तानी सेना के पूर्व चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टॉफ़ लेफ़्टिनेंट जनरल (रिटॉयर्ड) शाहिद अज़ीज़ ने अपनी किताब 'ये खामोशी कहां तक' में करगिल में पाकिस्तानी सेना की भूमिका के बारे में विस्तार से लिखा है.

'आईएसआई को पता था?'


लेफ़्टिनेंट जनरल (रिटॉयर्ड) शाहिद अज़ीज़ ने बीबीसी से बातचीत करने से मना कर दिया.
लेकिन पाकिस्तान के जियो टीवी से बातचीत में उन्होंने कहा था, “जनरल मुशर्रफ़ ने जो मक़सद ऐलान किया था, वो ये था कि करगिल की वजह से सियाचिन की सप्लाई लाइन कट जाएगी और हिंदुस्तान की फ़ौज को हम सियाचिन से निकलने पर मजबूर कर देंगे. फिर इसकी वजह से उस पर इतना अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ेगा कि इस किस्म की जंग दो परमाणु शक्ति देशों में फैल सकती है. उस दबाव की वजह से भारत कश्मीर पर बात करने के लिए राज़ी हो जाएगा.”
हमले के वक्त लेफ़्टिनेंट जनरल शाहिद अज़ीज़ पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई में ऊंचे पद पर थे. लेकिन उन्हें भी लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर चल रही घुसपैठ पर कोई जानकारी नहीं थी.
उनके मुताबिक़, भारतीय चौकियों पर कब्ज़ा करने की योजना में मुख्य रूप से चार लोग शामिल थे- तब के सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ़, चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टॉफ़ लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अज़ीज़, लेफ़्टिनेंट जनरल जावेद हसन और लेफ़्टिनेंट जनरल महमूद अहमद.
उनके अनुसार ज़्यादातर कोर कमांडरों को भी इसके बारे में कुछ पता नहीं था.

हवाई बमबारी


लेफ़्टिनेंट जनरल शाहिद अज़ीज़ कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि आईएसआई को इस बारे में पता नहीं था. मेरा अंदाज़ा है कि गिलगित में इतनी फौज की हरकत, इतने सिपाहियों को लाना, ले जाना, आईएसआई की नज़रों से छिपा नहीं रह सकता था. मैं खुद हैरान हूं कि भारतीय इंटेलिजेंस की ये इतना बड़ी विफलता थी कि उन्हें कैसे पता नहीं चला."
भारतीय जवानों के लिए स्थिति कठिन थी. घुसपैठिए ऊंची पहाड़ियों पर भारी हथियार, गोला बारूद लेकर बैठे थे और भारतीय जवानों के लिए गोलियों की बौछार के बीच में पहाड़ियों की चोटियों पर पहुंचना बेहद चुनौतीपूर्ण था.
उस वक्त के भारतीय सेना के डॉयरेक्टर जनरल ऑफ़ मिलिट्री इंटेलीजेंस लेफ़्टिनेंट जनरल आरके साहनी बताते हैं, “अगर आज भी आप किसी को वहां लेकर जाएं तो वो अचंभा करते हैं कि क्या इतनी ऊंची पहाड़ियों पर हमला करना मुमकिन था? इस ऑपरेशन में बहुत जवान मारे गए. आप सोचिए कि एक कंपनी चल रही है जिसके अंदर 70 या 80 आदमी हों, उनमें से 30 या 40 लोग या तो मारे जाएं या घायल हो जाएं, ये संख्या बहुत ज़्यादा है. घायलों और मृत जवानों की जगह नए लोगों ने ली. उनमें ऐसा जोश था कि उन्होंने दिमाग में ठान ली है कि ऊपर जाकर रहेंगे.”

लड़ाई का दायरा फैलना शुरू हो गया था. मृत भारतीय सैनिकों की बढ़ती संख्या ने सरकार को कोई ठोस निर्णय लेने पर विवश किया. 25 मई को दिल्ली में सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति में 30 साल में पहली बार पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों के खिलाफ़ हवाई हमले का निर्णय लिया.
लेफ़्टिनेंट जनरल साहनी याद करते हैं, “विमानों की बमबारी अचूक थी. जिस तरह उन्होंने पहाड़ों पर लॉजिस्टिक बेसों को बरबाद किया उससे भारतीय सेना को बहुत फ़ायदा पहुंचा. अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीति नेतृत्व अपने आप में बेमिसाल है. मैंने उनके चेहरे पर कभी कोई शिकन नहीं देखी. मैंने उनके साथ कई मीटिंगें अटेंड की थीं. मैंने ऐसा दृढ़ विचार का नेता नहीं देखा.”
पाकिस्तान ने भारतीय हवाई हमलों को बेहद गंभीर बताया. इस दौरान दो भारतीय सैन्य विमानों को गिराया गया. परमाणु हथियारों से लैस दो देशों के बीच चल रही गोलाबारी के कारण अंतरराष्ट्रीय चिंताएं बढ़ने लगीं.

मुशर्रफ़ की महत्वाकांक्षाएं


पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर इश्तियाक़ अहमद कहते हैं, “चिंता उस वक्त ये थी कि कहीं ये इलाका न्यूक्लियर फ़्लैशप्वाइंट न बन जाए. पाकिस्तान में लोकतंत्र को देखने वाले तबके में चिंता थी. उन्हें लगता था कि अगर पाकिस्तान की तरफ़ से इस लड़ाई की शुरुआत की गई है तो ये बहुत ग़ैर-ज़िम्मेदाराना क़दम है.”
प्रोफ़ेसर अहमद के अनुसार, “जनरल मुशर्ऱफ़ की अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं. उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा 1999 के तख़्तापलट में पूरी की. नौ साल उन्होंने पाकिस्तान में शासन किया. ऐसा व्यक्ति जो ऐसे वाकये को अंजाम देता है, जिसके कारण पाकिस्तान को सैनिकों, संसाधनों का और कूटनीतिक नुक़सान पहुंचा, वही व्यक्ति जब सत्ता में आता है तो शांति वार्ता के लिए आगरा पहुंच जाता है.”

आख़िरकार भारत और पाकिस्तान बिगड़ती स्थिति को संभालने के लिए बातचीत पर सहमत हुए.
भारतीय सेना के हमलों के कारण उसकी स्थिति मज़बूत होनी शुरू हुई. भारतीय सैनिकों ने ज़बरदस्त लड़ाई के बाद घुसपैठियों को भगाते हुए तोलोलिंग, टाइगर हिल जैसी महत्वपूर्ण चोटियों पर कब्ज़ा किया.
भारतीय सैनिकों के लौटते शवों ने करगिल की लड़ाई को देश के कोने-कोने में पहुंचा दिया. जुलाई में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने वापस जाना शुरू किया. इस दौरान भारत की ओर से चीन में मौजूद जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ और लेफ़्टिनेंट जनरल अज़ीज़ खान की बातचीत के क्लिप को सबूत के तौर पर पेश किया कि पाकिस्तानी सेना इस लड़ाई में शामिल थी.
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मदद की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा न हुआ.

युद्ध का अंत


आख़िरकार 26 जुलाई को करगिल युद्ध का अंत हुआ. करगिल युद्ध का पाकिस्तान की राजनीति पर क्या असर हुआ.
प्रोफ़ेसर इश्तियाक अहमद बताते हैं, “करगिल का नतीजा पाकिस्तान के लिए शर्मनाक था. नवाज़ शरीफ़ सरकार ने भारत के साथ बेहद महत्वपूर्ण बातचीत शुरू की थी. विदेश सचिवों की बात हो रही थी. अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर आए. मीनार-ए-पाकिस्तान पर खड़े होकर उन्होंने पाकिस्तान के साथ दोस्ती की बात की. अब हम चाहते हैं कि जो उस वक्त हुआ, अब भी वही हो. अगर जनरल मुशर्रफ़ की कोई भूमिका बनती है तो कोई जवाबदेही होनी चाहिए.”
भारत में भी करगिल रिव्यू कमेटी बनी और कई सुझाव दिए गए.
लेफ़्टिनेंट जनरल साहनी कहते हैं, “समिति में सीडीएस (चीफ़ आफ़ डिफ़ेंस स्टॉफ़) की बात बोली गई थी. उसके ऊपर किसी किस्म का काम नहीं किया गया. सीडीएस की कमी का ख़ामियाज़ा भारत को भुगतना पड़ेगा.”
करगिल में मारे गए जवानों की प्रतिमाएं, उनके नाम पर पार्क आपको भारत के कोने-कोने में मिलेंगे. जब करगिल युद्ध चरम पर था तो हज़ारों गोले रोज़ दागे जाते थे.
रेड क्रॉस के मुताबिक़, इस युद्ध के कारण पाकिस्तान प्रशासित इलाकों में करीब 30,000 लोगों को अपने घर छोड़कर भागना पड़ा और भारत प्रशासित इलाकों में करीब 20,000 लोगों पर असर पड़ा.
उनमें से कई लोग आज भी करगिल युद्ध को भय और दहशत के साथ याद करते हैं.