Monday, 1 June 2015

'जिन्हें इमरजेंसी याद है वे वीसी शुक्ल को नहीं भूल सकते' @प्रमोद जोशी

जिस रोज़ माओवादी हमले में विद्या चरण शुक्ल के घायल होने की ख़बर मिली, काफी लोगों की पहली प्रतिक्रिया थी, कौन से वीसी शुक्ल इमरजेंसी वाले. वीसी शुक्ल पर इमरजेंसी का जो दाग लगा वह कभी मिट नहीं सका.
विद्याचरण शुक्ल मध्यप्रदेश के ताकतवर राजनेताओं में गिने जाते थे. उनके परिवार की ताकत और सम्मान का लाभ उन्हें मिला, पर उन्हें जिस बात के लिए याद रखा जाएगा वो ये कि वो ज्यादातर सत्ता के साथ रहे. ख़ासतौर से जीतने वाले के साथ.
इमरजेंसी के बाद शाह आयोग की सुनवाई के दौरान चार नाम सबसे ज्यादा ख़बरों में थे. इंदिरा गांधी, संजय गांधी, वीसी शुक्ल और बंसी लाल. इमरजेंसी के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा और सज़ा भी मिली, पर इमरजेंसी ने ही उन्हें बड़े कद का राजनेता बनाया.
वीसी शुक्ल का राजनीतिक जीवन शानदार रहा. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शानदार थी. वे देश के सबसे कम उम्र के सांसदों में से एक थे. 28 साल की उम्र में वे लोकसभा के सदस्य बने, राजसी ठाठ से जुड़े 'विलासों' के प्रेमी.

मौक़ापरस्त

नक्सलवादी
हाल ही में नक्सलवादियों ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला किया था
समय ने भी उनका हमेशा साथ दिया. साल 1962 के चुनाव में उन्होंने जनसंघ के खूबचंद बघेल को हराया. इसके ख़िलाफ सुप्रीम कोर्ट तक मुक़दमा गया. सुप्रीम कोर्ट ने उनका चुनाव अवैध घोषित किया. उनके छह साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई, पर चुनाव आयोग ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए उन पर लगी छह साल की पाबंदी हटा दी. 1964 में हुए चुनाव में पुरुषोत्तम कौशिक को हराकर वे फिर से लोकसभा में पहुँच गए.
इमरजेंसी की कथित धौंस-दपट और अखबारों की बिजली काटने, ताले डालने और संपादकों को कथित तौर पर जेल भेजने से ज्यादा वीसी शुक्ल को बेमिसाल मौकापरस्ती के लिए भी याद किया जाएगा. यह उनकी दूसरी पहचान थी.

प्री-सेंसरशिप के सूत्रधार

देश में इमरजेंसी लगने के ठीक पहले विद्याचरण शुक्ल रक्षा राज्यमंत्री थे. इंद्र कुमार गुजराल सूचना मंत्री थे. 20 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने दिल्ली के बोट क्लब पर रैली की. दूरदर्शन पर उसका लाइव कवरेज नहीं हो पाया. दिल्ली के अखबारों और मीडिया में रैली की फीकी कवरेज़ से इंदिराजी का ज़ायका बिगड़ गया.
पाँच दिन के भीतर गुजराल को राजदूत बनाकर मॉस्को भेज दिया गया. इमरजेंसी के साथ ही वीसी शुक्ल सूचना-प्रसारण मंत्री की कुर्सी पर बैठाए गए. मीडिया उनके नाम से घबराता था. बड़े-बड़े पत्रकारों को वे घास नहीं डालते थे.
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के गुडलिस्ट में थे विद्याचरण शुक्ल
राजेंद्र माथुर ने अपने लेख ‘उन्नीस महीनों के बाद रोशनी’ में लिखा है, "सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल ने आज़ादी का दीया बुझाने में उल्लेखनीय रोल अदा किया."

किशोर कुमार से बदला

फिल्मी गीतकारों और अभिनेताओं को उन्होंने सरकार की प्रशंसा के गीत गाने के लिए मज़बूर किया और उनके ही प्रदेश से जुड़े किशोर कुमार जैसे फक्कड़ गायक ने जब इंकार कर दिया, तो रेडियो से उनके गाने न बजाने के आदेश दे दिए गए. उनके घर पर आयकर छापे भी डाले गए. अंततः किशोर कुमार को झुकना पड़ा.
कई ख्याति प्राप्त अखबार बंद हो गए. जैसे रमेश थापर का 'सेमिनार', साने गुरुजी का साधना, राजमोहन गांधी का हिम्मत, अंग्रेज़ी त्रैमासिक क्वेस्ट, एडी गोरवाला का ओपीनियन....विद्याचरण शुक्ल ने बार-बार कहा कि पुरानी आज़ादी फिर कभी लौटने वाली नहीं है.
अखबारों पर प्री-सेंसरशिप के विरोध में कुछ संपादकों ने संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी. इसपर 28 जून को उन्होंने संपादकों की बैठक बुलाकर उन्हें चेतावनी दी कि जगह खाली छोड़ना भी अपराध माना जाएगा.

किस्सा कुर्सी का

मशहूर गायक किशोर कुमार को उनका आदेश न मानने का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा था.
उन्हीं दिनों अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ रिलीज होने से रोक दी गई. उसके सारे प्रिंट भी नष्ट कर दिए गए. जनता-सरकार आने के बाद यह फिल्म फिर से रिलीज हुई.
इमरजेंसी के दौरान 'किस्सा कुर्सी का' ही सरकारी नाराज़गी की शिकार नहीं हुई. गुलज़ार की फिल्म ‘आंधी’ पर भी पाबंदी लगाई गई. फिल्म 'धर्मवीर' पर सरकारी एतराज के कारण उसकी रिलीज़ में पाँच महीने लग गए. फिल्म के संवादों में जहाँ-जहाँ जनता शब्द आया वहाँ प्रजा कराया गया.
वीसी शुक्ल की दूसरी पहचान मौका परस्ती की है. हालांकि वे शुरू से इंदिरा गांधी के करीबी थे, पर पहला मौका लगते ही उनका साथ छोड़ दिया. सन 1977 में पार्टी हारी, इंदिरा गांधी हारीं, वे खुद हारे. कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के कारण या शायद वक्त की नज़ाकत को देखते हुए वे किनारे हो गए.
1984 में राजीव गांधी ने उनका पुनरुद्धार किया, पर उन्होंने राजीव गांधी के खिलाफ बगावत का साथ दिया. विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ वे जनमोर्चा में चले गए.

जीतने वाले के साथ

वीपी सिंह के साथ मिलकर शुक्ल ने जनता दल बनाया और 1989-90 में उनकी नेशनल फ्रंट की सरकार में वे मंत्री बने
वीपी सिंह के साथ मिलकर उन्होंने जनता दल बनाया और 1989-90 में उनकी नेशनल फ्रंट की सरकार में वे मंत्री बने. जैसे ही 1990 में यह सरकार गिरी वे समाजवादी जनता पार्टी में चले गए और चन्द्रशेखर की कुछ महीनों की सरकार में मंत्री बने.
जब पीवी नरसिंह राव की सरकार बनी तो वे वापस कांग्रेस में आ गए. लेकिन 2000 में जब छत्तीसगढ़में सरकार बन रही थी तब मुख्यमंत्री की दावेदारी उनकी भी थी. कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई. इसपर वीसी शुक्ल कांग्रेस छोड़कर एनसीपी में चले गए.
2004 के चुनाव के ठीक पहले वे भाजपा में चले गए. महासमुंद सीट से वे फिर चुनावी मैदान में उतरे, पर अजीत जोगी ने उन्हें हरा दिया. बहरहाल उस चुनाव में एनडीए की पराजय हुई. शुक्ल साल 2007 में भाजपा छोड़कर फिर कांग्रेस में वापस आ गए.
इस महीने इमरजेंसी के 38 साल हो रहे हैं. जिन्हें वह दौर याद हैं, उन्हें वीसी शुक्ल भी याद रहेंगे.

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