Wednesday, 3 June 2015

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद @रेहान फ़ज़ल

क्रिकेट में जो स्थान डॉन ब्रैडमैन, फ़ुटबाल में पेले और टेनिस में रॉड लेवर का है, हॉकी में वही स्थान ध्यानचंद का है.
सेंटर फ़ॉरवर्ड के रूप में उनकी तेज़ी और फ़ुर्ती इतनी ज़बरदस्त थी कि उनके जीवनकाल में ही उनको हॉकी का जादूगर कहा जाने लगा था.
हॉलैंड में तो एक बार उनकी स्टिक को तोड़कर देखा गया कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं लगा है.
जापान में उनकी हॉकी स्टिक का यह जानने के लिए परीक्षण किया गया कि कहीं उसमें गोंद तो नहीं लगा है.
1936 के ओलंपिक फ़ाइनल के तुरंत बाद, जिसमें भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया था, हिटलर ने स्वयं ध्यानचंद को जर्मन सेना में शामिल कर एक बड़ा पद देने की पेशकश की थी. लेकिन उन्होंने भारत में ही रहना पसंद किया.
वियना के एक स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है, जिसमें उनको चार हाथों में चार स्टिक पकड़े हुए दिखाया गया है.
हॉकी के इस जादूगर का जन्म आज से 100 वर्ष पहले 29 अगस्त, 1905 को इलाहाबाद में हुआ था लेकिन वो बड़े हुए झाँसी में जहाँ उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में हवलदार थे.
16 वर्ष की उम्र में ही ध्यानचंद भारतीय सेना में शामिल हो गए.
उनकी रेजीमेंट के कोच, बल्ले तिवारी ने उन्हें हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया और उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
शुरुआत
21 वर्ष की उम्र में उन्हें न्यूज़ीलैंड जानेवाली भारतीय टीम में चुन लिया गया. इस दौरे में भारतीय सेना की टीम ने 21 में से 18 मैच जीते.
23 वर्ष की उम्र में ध्यानचंद 1928 के एम्सटरडम ओलंपिक में पहली बार हिस्सा ले रही भारतीय हॉकी टीम के सदस्य थे. यहाँ चार मैचों में भारतीय टीम ने 23 गोल किए.
ध्यानचंद पाकिस्तान हॉकी के पितामह दारा के साथ
पाकिस्तान हॉकी के पितामह इक़्तिदार हुसैन दारा के साथ ध्यानचंद
गोलों की संख्या से ज़्यादा भारतीय हॉकी टीम की लय और कलाकारी ने लोगों का मन मोहा. ध्यानचंद के बारे में मशहूर है कि उन्होंने हॉकी के इतिहास में सबसे ज़्यादा गोल किए.
1932 में लॉस एंजिल्स ओलंपिक में भारत ने अमरीका को 24-1 के रिकॉर्ड अंतर से हराया. इस मैच में ध्यानचंद और उनके बड़े भाई रूप सिंह ने आठ-आठ गोल ठोंके.
1936 के बर्लिन ओलंपिक में ध्यानचंद भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे. 15 अगस्त, 1936 को हुए फ़ाइनल में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया.
उस वक्त उन्हें यह अंदाज़ा ही नहीं था कि 11 वर्षों के बाद यह दिन भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण बन जाएगा.
आठ वर्षों तक चले विश्वयुद्ध के कारण दो ओलंपिक खेल नहीं हो पाए और दूसरे महान खिलाड़ियों, डॉन ब्रैडमैन और लेन हटन की तरह ध्यानचंद को भी मैदान से बाहर रहना पड़ा.
1948 में 43 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय हॉकी को अलविदा कहा.
करिश्माई खिलाड़ी
1948 और 1952 में भारत के लिए खेलनेवाले नंदी सिंह का कहना है कि ध्यानचंद के खेल की ख़ासियत थी कि वो गेंद को अपने पास ज़्यादा देर तक नहीं रखते थे. उनके पास बहुत नपे-तुले होते थे और वो किसी भी कोण से गोल कर सकते थे.
1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान एक मैच में ध्यानचंद ने केडी सिंह बाबू को एक ज़बरदस्त पास दिया और उनकी तरफ़ पीठ कर अपने ही गोल की तरफ चलने लगे.
बाद में बाबू ने उनकी इस अजीब हरकत का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि अगर तुम उस पास पर भी गोल नहीं मार पाते तो तुम्हें भारतीय टीम में बने रहने का कोई हक़ नहीं है.
उनके पुत्र ओलंपियन अशोक कुमार भी बताते हैं कि 50 वर्ष की उम्र में भी प्रेक्टिस के दौरान वो डी के अंदर से दस में दस शॉट भारतीय गोलकीपर को छकाते हुए मार सकते थे.
एक और ओलंपियन केशवदत्त कहते हैं कि ध्यानचंद हॉकी के मैदान को इस तरह देखते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है.
अपने बेटे अशोक कुमार की शादी में ध्यानचंद
अपने पुत्र की अशोक की शादी में ओलंपियन असलम शेर ख़ा (बाएँ),ध्यान चंद और अशोक कुमार
उनको हमेशा मालूम रहता था कि उनकी टीम का हर खिलाड़ी कहाँ है और अगर उनकी आँख पर पट्टी भी बाँध दी जाए, तब भी उनका पास बिल्कुल सही जगह पर पहुँचता था.
1968 के मैक्सिको ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान रहे गुरुबक्श सिंह भी याद करते है कि 1959 में जब ध्यानचंद 54 वर्ष के थे, तब भी भारतीय टीम का कोई सदस्य बुली में उनसे गेंद नहीं छीन सकता था.
1979 में जब वो बीमार हुए तो उन्हें दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के जनरल वार्ड में भर्ती करवाया गया.
उनपर एक लेख छपने के बाद उन्हें एक कमरा मिल सका पर उन्हें बचाया नहीं जा सका.
झाँसी में उनका अंतिम संस्कार किसी घाट पर न होकर उस मैदान पर किया गया, जहाँ वो हॉकी खेला करते थे.
अपनी आत्मकथा 'गोल' में उन्होंने लिखा था, "आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूँ."
वो साधारण आदमी नहीं थे लेकिन वो इस दुनिया से गए बिल्कुल साधारण आदमी की तरह

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