Wednesday, 3 June 2015

बांग्लादेश की आज़ादी का सफ़र @रेहान फ़ज़ल


नियाज़ी और जेजे अरोड़ा
पाकिस्तान की ओर से 90 हज़ार सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था
बांग्लादेश का 16 दिसंबर को स्वाधीनता दिवस है. इसी दिन 35 साल पहले पाकिस्तान की सेना के करीब 93 हज़ार जवानों ने भारतीय सेना और मुक्तिबाहिनी के सामने आत्मसमर्पण किया था और एक नया राष्ट्र अस्तित्व में आया था.
सात मार्च, 1971 को ढाका के मैदान में अवामी लीग के नेता और बाद में बांग्लादेश के राष्ट्रपिता कहे गए शेख़ मुजीबर रहमान जब पाकिस्तानी सरकार के ख़िलाफ़ ये गर्जना कर रहे थे तो उन्होंने स्वयं भी कल्पना नहीं की होगी कि तब से ठीक नौ महीने और नौ दिन बाद बांग्लादेश एक वास्तविकता होगा.
पाकिस्तान के उदय के बाद से ही पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को शिकायत थी कि उनके साथ वहाँ न्याय नहीं हो रहा.
1970 में पाकिस्तान में हुए आम चुनाव में क्षेत्रीय स्वायत्तता के मुद्दे पर चुनाव लड़ने वाली शेख़ मुजीब की अवामी लीग को पूर्वी पाकिस्तान की 162 सीटों में से 160 सीटें मिली थीं और पश्चिमी पाकिस्तान में एक भी सीट न लड़ने के बावजूद उसे पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली में पूर्ण बहुमत मिल गया था.
सत्ता हस्तांतरण तो दूर, पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल याहिया खाँ ने 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जनभावनाओं को सैनिक शक्ति से कुचलने का आदेश दे दिया था.
शेख़ मुजीब गिरफ़्तार कर लिए गए. सैनिक दमन से त्रस्त लगभग एक करोड़ लोगों ने भारत की धरती पर शरणार्थी के रूप में प्रवेश किया.
जैसे-जैसे पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों की ख़बरें फैलने लगी, भारत सरकार पर वहाँ सैनिक हस्तक्षेप के लिए दवाब पड़ने लगा.
प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इस बारे में तत्कालीन थलसेनाध्यक्ष फ़ील्ड मार्शल सैम मानिक शॉ का मन टटोला.
उस समय पूर्वी कमान के स्टाफ ऑफिसर और बाद में गोवा और पंजाब के राज्यपाल लेफ़्टिनेंट जनरल जेएफआर जैकब याद करते हैं, '' जनरल मानिक शॉ ने पहली अप्रैल को मुझे फ़ोन करके कहा कि पूर्वी कमान को बांग्लादेश की आज़ादी के लिए तुरंत कार्रवाई करनी है.''
मैने उनसे कहा कि ये तुरंत संभव नहीं है क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ पर्वतीय डिवीजन है. कोई भी पुल नहीं है. कुछ तो बहुत चौड़ी नदियाँ है जिन्हें पार करना है. दूसरे हमारे पास युद्ध के लिए साज़ो सामान की भी कमी है. यातायात के साधन नहीं है और साथ ही मानसून शुरू होने वाला है. अगर इस समय हम पूर्वी पाकिस्तान में घुसते हैं तो वहीं फँस कर रह जाएँगे.
फ़ील्ड मार्शल मानिक शॉ राजनीतिक दबाव में नहीं झुके और उन्होंने अपने मातहत अधिकारियों की भावनाओं से प्रधानमंत्री को अवगत करा दिया.
संघर्ष की शुरुआत
नवंबर आते-आते ये स्पष्ट हो गया कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध होकर रहेगा.
तीन दिसंबर,1971 को इंदिरा गाँधी कोलकाता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं.
शाम के धुँधलके में ठीक पांच बजकर 40 मिनट पर पाकिस्तानी वायुसेना के सेवर जेट्स और स्टार फाइटर विमानों ने भारतीय सीमा पार कर पठानकोट, अमृतसर, श्रीनगर, जोधपुर और आगरा के सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरू कर दिए.
ठीक छह बजकर 45 मिनट पर पूर्वी कमान के कमांडर इन चीफ़ जगजीत सिंह अरोड़ा ने कोलकाता के राजभवन में इंदिरा गाँधी के सुइट पर दस्तक दी. उन्हें सेल्यूट किया और पाकिस्तानी हमले की जानकारी दी.
श्रीमती गाँधी ने उसी समय दिल्ली लौटने का फै़सला किया. रात 10 बजे के आसपास जब श्रीमती गाँधी का विमान दिल्ली हवाई अड्डे पहुँचा तो वहाँ घुप्प अंधेरा छाया हुआ था.
मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद आधी रात को इंदिरा गाँधी ने लगभग काँपती हुई आवाज़ में अटक-अटक कर देश को संबोधित किया.
इंदिरा गाँधी के शब्द थे,'' अब तक जो बांग्लादेश यानि पश्चिमी पूर्व पाकिस्तान की लड़ाई थी, वो लड़ाई भारत पर भी आ गई है. मुझे संदेह नहीं है कि सारी भारत की जनता और सब राजनीतिक दल और सब नागरिक इस समय एक हैं.''
पूर्व में तेज़ी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेना ने जेसोर और खुलना पर कब्ज़ा करते हुए ढाका की ओर बढ़ना जारी रखा.
 13 दिसंबर को जब हमारे सैनिक ढाका के बाहर थे. हमारे पास कमान मुख्यालय का एक संदेश आया कि आप अमुक-अमुक समय तक पूर्वी पाकिस्तान के सभी नगरों पर कब्ज़ा करें और इसकी प्रतिलिपि सभी कोर को भेजी गई. लेकिन तब भी ढाका का कोई ज़िक्र नहीं था
 
लेफ़्टिनेंट जनरल जैकब
ये बहुत आश्चर्य की बात है कि पूरे युद्ध में फील्ड मार्शल चटगाँव और खुलना पर कब्ज़े के लिए जो़र देते रहे और ढाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना के सामने कभी रखा ही नहीं गया.
लेफ्टिनेंट जनरल जैकब इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं,'' 13 दिसंबर को जब हमारे सैनिक ढाका के बाहर थे. हमारे पास कमान मुख्यालय का एक संदेश आया कि आप अमुक-अमुक समय तक पूर्वी पाकिस्तान के सभी नगरों पर कब्ज़ा करें और इसकी प्रतिलिपि सभी कोर को भेजी गई. लेकिन तब भी ढाका का कोई ज़िक्र नहीं था बल्कि भारतीय सैनिकों से कहा गया कि वो उन सभी नगरों पर पहले कब्ज़ा करें जिन्हें वो बाईपास कर आए हैं और ये तब जब हमें ढाका की इमारतें साफ़ दिखाई दे रही थी.''
पूरे युद्ध के दौरान इंदिरा गाँधी को कभी भी विचलित नहीं देखा गया. वो पौ फटते तक काम करतीं और दूसरे दिन जब वो साउथ ब्लॉक पहुँचती तो उन्हें देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वो सिर्फ़ दो घंटे की नींद लेकर आ रही हैं.
जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने उन्हीं दिनों इंदिरा गाँधी से उनके निवास पर मुलाकात की थी.
उनका कहना था,'' आधी रात के वक़्त जो उन्होंने रेडियो पर प्रसारण किया, उसमें कुछ तनाव था, उससे लगता था कि वो थोड़ी सी परेशान भी थीं. लेकिन उससे अगली सुबह और उसके अगले रोज़ जब मैं उनसे मिलने गया तो ऐसा लगा कि उन्हें कोई तनाव है ही नहीं.''
और मैंने जंग के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वह बहुत अच्छी चल रही है, लेकिन तुम ये देखो कि मैं नॉर्थ ईस्ट से एक बेड कवर लाई थी जिसको मैंने सिटिंग रूम के सेटी पर बिछाया है और फिर उन्होंने मुझको दिखाया और फिर कहा कि कैसा है.
मैंने कहा कि बहुत ही खूबसूरत है और इस क़िस्म की उन्होंने बातें की और ऐसा लगा जैसे उनके दिमाग में कोई तनाव है ही नहीं.
आत्मसमर्पण
13 दिसंबर आते-आते भारतीय सैनिक ढाका के आसपास पहुँच गए थे. मीरपुर ब्रिज पर मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने अपनी जोंगा के बोनट पर अपने एडीसी के नोट पैड पर पूर्वी पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल नियाज़ी के लिए एक नोट लिखा- ''माई डियर अब्दुला आई एम हियर. द गेम इज ओवर.''
16 दिसंबर, 1971 को सुबह नौ बजे जनरल जैकब को फील्ड मार्शल मानिक शॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए वो तुरंत ढाका पहुँचे.
जनरल जैकब ने ढाका पहुँचकर जनरल नियाज़ी को आत्मसमर्पण की शर्तें समझाई. कमरे में उस समय गहरा सन्नाटा था. जनरल नियाज़ी की आँखों से आँसू टपकने लगे.
 आधी रात के वक़्त इंदिरा गांधी ने जो रेडियो पर प्रसारण किया, उसमें कुछ तनाव था, उससे लगता था कि वो थोड़ी सी परेशान भी थीं. लेकिन उससे अगली सुबह और उसके अगले रोज़ जब मैं उनसे मिलने गया तो ऐसा लगा कि उन्हें कोई तनाव है ही नहीं
 
वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा
उनकी मौत से कुछ समय पहले ही मैने लाहौर फ़ोन कर जनरल नियाज़ी से पूछा कि आपके आत्मसमर्पण के पीछे क्या कारण था.
उनका कहना था,'' याहिया और वेस्ट पाकिस्तानवालों ने जीती हुई बाजी हरवा दी. इस शिकस्त की लानत हम पर पड़ी. मैं जब लड़ रहा था मैंने 13 तारीख़ को हुक्म दिया कि आख़िरी गोली आख़िरी आदमी.''
आख़िरी आदमी आख़िरी गोली फ़ौज के लिए मौत का वारंट होता है. लेकिन मामला इस बात पर अटका कि जनरल नियाज़ी समर्पण किस चीज़ का करेंगे?
आत्मसमर्पण की व्यवस्था देख रहे जनरल नागरा ने बीबीसी को बताया,'' जैकब मेरे को कहने लगे कि भई कुछ इसको मनाओ कि ये कुछ तो सरेंडर करे. मैंने कहा कि क्या सरेंडर करोगे तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है तो फिर तुम्हारी पेटी उतारनी पड़ेगी या टोपी उतारनी पड़ेगी तो फिर वह ठीक नहीं लगता. इसलिए मैंने उन्हें सुझाव दिया कि एक पिस्टल लगाओ और फिर पिस्टल उतारके सरेंडर कर देना.''
आत्मसमर्पण के कागज़ात पर भारत की ओर से लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और पूर्वी पाकिस्तान सेना की ओर से लेफ़्टिनेंट जनरल नियाज़ी ने हस्ताक्षर किए.
खचाखच भरे रेसकोर्स स्टेडियम में ढाका की जनता इस ऐतिहासिक दृश्य को अपनी आँखों से देख रही थी.
ठीक उसी समय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी संसद भवन के अपने दफ़्तर में स्वीडिश टीवी को एक इंटरव्यू दे रही थीं.
तभी उनकी मेज़ पर रखा लाल टेलिफ़ोन बजा. रिसीवर पर उन्होंने सिर्फ़ चार शब्द कहे,'' एस एस थैंक यू.''
दूसरे छोर पर मानिक शॉ थे जो उन्हें ढाका में आत्मसमर्पण की ख़बर दे रहे थे. इंदिरा गाँधी ने टीवी प्रोड्यूसर से माफी माँगी और तेज़ कदमों से लोकसभा की तरफ़ बढ़ीं.
इंदिरा गाँधी ने वहाँ कहा,'' ढाका अब स्वतंत्र राजधानी और देश है. पाकिस्तान ईस्टर्न कमांड की ओर से एएके नियाज़ी ने आत्मसमर्पण पर दस्तख़त कर दिए हैं और जीओसी कमान के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने आत्मसमर्पण को स्वीकार कर लिया है.'

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