डॉ. नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर का जन्म एक नवंबर 1945 में महाराष्ट्र के सातारा ज़िले में हुआ. उनके बड़े भाई डॉ. देवदत्त दाभोलकर पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलगुरू थे जबकि दुसरे भाई डॉ. दत्तप्रसाद दाभोलकर वरिष्ठ वैज्ञानिक और विचारक हैं.
पत्नी शैला दाभोलकर भी सामाजिक कार्यों में उनके साथ थी. उनका बेटा हमीद दाभोलकर भी डॉक्टर है और उनकी एक पुस्तक 'प्रश्न मनाचे' का सह-लेखक भी. इन दोनों ने काला जादू, जादू-टोना जैसी चीज़ों को अंधविश्वास से परे मानसिक रोग के रूप में देखने की वकालत भी की. उनकी बेटी मुक्ता पेशे से वकील है.
एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर बनने की बजाए उन्होंने सामाजिक कार्यों में ख़ुद को झोंक दिया. सन् 1982 से वे अंधविश्वास निर्मूलन आंदोलन के पूर्णकालीन कार्यकर्ता थे. सन् 1989 में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिती की स्थापना की. तब से वे समिति के कार्याध्यक्ष थे. यह संस्था किसी भी तरह के सरकारी अथवा विदेशी सहायता के बिना काम करती है. इस संगठन की महाराष्ट्र में लगभग 200 शाखाएं हैं.
लेखन और संपादन
अपने तीन दशक से भी अधिक के कार्यकाल में डॉ. दाभोलकर ने पोंगा पंडितों और दंभियों का दंभस्फोट करनेवाली कई पुस्तकों का लेखन किया. ख़ासकर तथाकथित चमत्कारों के पीछे छिपी हुई वैज्ञानिक सच्चाइयों को उजागर करने पर उन्होंने अधिक ध्यान दिया. ऐसे कैसे झाले भोंदू (ऐसे कैसे बने पोंगा पंडित), अंधश्रद्धा विनाशाय, अंधश्रद्धा: प्रश्नचिन्ह आणि पूर्णविराम(अंधविश्वास: प्रश्नचिन्ह और पूर्णविराम), भ्रम आणि निरास, प्रश्न मनाचे (सवाल मन के) आदि पुस्तक उनमें सम्मिलित है.
जाने माने साहित्यकार और समाजवादी चिंतक साने गुरुजी द्वारा स्थापित ‘साधना’ साप्ताहिक का संपादन वे पिछले बारह वर्षों से कर रहे थे. इस साप्ताहिक को नई बुलंदियों और लोकप्रियता के पायदानों पर ले जाने का श्रेय उन्हें जाता है.
अपनी व्यक्तित्व क्षमता के लिए मशहूर डॉ. दाभोलकर अनेक संतों के उदाहरण देकर भोंदू बाबा और नकली संतो-महंतो पर प्रहार करते थे.
एक बार अपने एक भाषण में उन्होंने स्व.विजय तेंदुलकर के साथ हुए वार्तालाप का ज़िक्र किया था.
स्व. तेंदुलकर ने उनसे पूछा था, "क्या तुम्हें नहीं लगता कि श्रद्धा या आस्था रखना लोगों की मजबूरी है?" तब डॉ. दाभोलकर ने कहा था, "मुझे मजबूरीवश आस्था रखनेवालों से कोई आपत्ति नहीं है. मेरी आपत्ति है दूसरों की मजबुरियों का ग़लत फ़ायदा उठानेवालों से."
धर्म के महिमा मंडन का विरोध
उनकी यही भूमिका डॉ. श्रीराम लागू के साथ उनके जाहिर कार्यक्रमों द्वारा सामने आती है. इस कार्यक्रम में जहां डॉ. लागू ईश्वर को रिटायर करने की उनकी भूमिका रखते थे, वहीं. डॉ. दाभोलकर ईश्वर में आस्था रखनेवालों पर ताने कसने की बजाय उनके लिए सहानुभूति जताते. वे कहते, "मुझे कुछ नहीं कहना है उन लोगों के बारे में जिन्हें संकट के समय ईश्वर की ज़रूरत होती है. लेकिन हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए, जो काम-धाम छोड़कर धर्म का महिमा मंडन करें और मनुष्य को अकर्मण्य बनाएं."
उन्हीं के प्रयासों के कारण सात जुलाई 1995 को (जब शिव सेना-भाजपा सत्ताधारी थे) विधानसभा में जादूटोना विरोधी क़ानून बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया. लेकिन राजनीतिक स्वार्थ के खेल ने उसे आज तक वास्तविक्ता में नहीं उतरने दिया. विडंबना यह कि 2003 में महाराष्ट्र ने इस तरह का क़ानून बनानेवाला पहला राज्य होने का दावा भी कर दिया था.
डॉ. दाभोलकर ने 18 साल पहले ‘सामाजिक कृतज्ञता निधि’ की स्थापना की जिसके तहत परिवर्तनवादी आंदोलन के कार्यकर्ताओं को प्रतिमाह मानधन दिया जाता है. आज यह निधि एक करोड़ रुपयों तक पहुंच चुकी है. इस रक़म के ब्याज से पचास कार्यकर्ताओं को एक हज़ार रुपयों का मानधन दिया जाता है.
प्रदूषण के ख़िलाफ़ मुहिम
उनकी दूसरी मुहिम थी गणेश विसर्जन के बाद होनेवाले जल प्रदूषण और दिवाली में पटाख़ों से होनेवाले ध्वनि प्रदूषण के ख़िलाफ़. गणेश विसर्जन के लिए नदी के बजाए टंकियों का विकल्प उन्हीं के द्वारा सुझाया गया जिसे महाराष्ट्र के हर महानगर निगम ने अब स्वीकार किया है. वहीं दिवाली के दौरान वे और उनके कार्यकर्ता गावों-क़स्बों तथा शहरों के स्कूलों में जाते और छात्र-छात्राओं से प्रतिज्ञा करवाते कि वे पटाख़ों पर ख़र्च करने की बजाय वह पैसा बचाकर सामाजिक संस्थाओं को दान में दें. इस तरह उन्होंने अब तक लाखों रुपए धुंओं में उड़ने से बचाए. शिक्षा में प्राथमिक स्तर से लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए उन्होंने मुहिम शुरू की थी.
इसी तरह राज्य के सर्पमित्रों को इकठ्ठा कर सांप के विष के लिए एक सहकारी संस्था स्थापित करने का भी उनका प्रयास रहा. लेकिन वह इसमें सफल न हो सके.
पिछले एक-दो वर्षों से अंतरजातीय विवाह को लेकर भी डॉ. दाभोलकर अधिक सक्रिय हो चुके थे.
जाति प्रथा का विरोध
अंधविश्वास निर्मूलन आंदोलन के प्रधान सचिव माधव बावगे कहते हैं, "भारत के संविधान का किसी भी धर्मग्रंथ की तरह पठन होना चाहिए, यह उनका आग्रह था. जाति निर्मूलन के लिए उन्होंने अंतरजातीय और अंतरधर्मीय विवाह को प्रोत्साहन देने का काम किया. उनके मत में जाति ख़ुद एक अंधविश्वास है. उन्होंने पूजा, धर्म अथवा धार्मिक उत्सवों का कभी विरोध नहीं किया. उन्होंने विरोध किया उसमें निहित अमानवीयता और अवैज्ञानिकता को."
महाराष्ट्र में जाति पंचायत के आतंक के कारण दो लोगों की मौत के बाद उन्होंने यह मसला पूरी गंभीरता से उठाया था.
हालांकि उनके विरोधी उन्हें ख़ासतौर पर हिंदू विरोधी मानते आए हैं. बालयोगी विठ्ठललिंग महाराज(अक्कलकोट), 'पेटफाडू' अस्लमबाबा हो या अनुराधाताई अथवा गुलाबबाबा(अकोला) हो या नागपूर की निर्मला माता...जहां भी आडंबर दिखा वहां वे पहुंच जाते. डॉ. श्रीराम लागू, नीलू फूले, सदाशिव अमरापूरकर जैसे कलाकार, विजय तेंदुलकर और अच्युत गोडबोले जैसे लेखकों का साथ उन्हें मिला.
ये शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉ. दाभोलकर राष्ट्रीय स्तर के कबड्डी खिलाड़ी भी थे. बांगलादेश के ख़िलाफ़ कबड्डी मैच में उनका चुनाव किया गया था. राज्य सरकार द्वारा ‘शिवछत्रपति’ पुरस्कार साथ ही ‘शिवछत्रपति युवा पुरस्कार’ भी उन्हें मिला था, यह बात कल दोपहर तक कम ही लोग जानते थे
No comments:
Post a Comment