Friday, 26 June 2015

आपातकाल पर मोदी की बात सही है तो आडवाणी की भी गलत नहीं है @प्रियदर्शन

लाल कृष्ण आडवाणी को आज आपातकाल का ख़तरा फिर से याद आ रहा है तो इसके पीछे भले उनकी राजनीतिक मायूसी हो, लेकिन यह इस समय का सच भी है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिल्कुल दुरुस्त याद किया कि 40 साल पहले कैसे एक व्यक्ति की इच्छा के लिए पूरे देश को जेलखाने में बदल दिया गया था. आपातकाल की 19 महीने चली लंबी वह रात बहुत सारे लोगों के लिए एक दु;स्वप्न में बदल गई थी. लोगों के मौलिक अधिकार स्थगित थे, उन्हें जेलों में ठूंसा जा रहा था, संविधानेतर शक्तियां देश चला रही थीं, लोगों की ज़बरदस्ती नसबंदी की जा रही थी, नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार सलाखों के पीछे भेजे जा रहे थे, प्रेस पर सेंसरशिप लगी हुई थी और डरा हुआ देश देख रहा था कि किस तरह गुलामी का दौर लौट आया है.
लेकिन उन 19 महीनों के आधार पर इंदिरा गांधी को खलनायक बताने वाले लोग कई तथ्य जान-बूझ कर भूल जा रहे हैं. पहली बात तो यह कि 15 साल प्रधानमंत्री रहने वाली इंदिरा गांधी ने बेशक भारतीय लोकतंत्र के सामने एक बड़ा ख़तरा पेश कर दिया, लेकिन अंततः रास्ता उन्होंने लोकतंत्र का ही चुना. उनको उनके द्वारा घोषित चुनावों से ही हटाया गया और उन्होंने बेझिझक जनमत को मंज़ूर किया. दूसरी बात यह कि महज तीन साल बाद वे लोकतंत्र के रास्ते से ही वापस भी लौटीं.
कांग्रेस की इमरजेंसी झेलने वाले लालू-नीतीश-शरद अब कांग्रेस के ही साथ खड़े हैं. उधर, इमरजेंसी के दौरान संविधानेतर सत्ता के सबसे बड़े सूत्रधारों में एक मेनका गांधी अपने बेटे के साथ बीजेपी में हैं.
दिलचस्प यह भी है कि आपातकाल के दौरान सरसंघचालक बाला साहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को माफ़ी की कई चिट्ठियां लिखीं और आपातकाल का समर्थन किया. इन दिनों बीजेपी के सांसद और बड़े नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने तो सन 2000 में लिखे एक लेख में दावा किया है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने भी माफ़ी मांग ली थी और इसके बदले ज़्यादातर समय वे पेरोल पर आज़ाद रहे थे.
मगर इन सबसे ज़्यादा अहम बात दूसरी है. इन चालीस वर्षों में भारतीय राजनीति की गंगा-जमना और नर्मदा में इतना पानी बह गया है कि सारे पुराने समीकरण बदल गए हैं. कांग्रेस का आपातकाल जिन लोगों ने झेला, वे अब कांग्रेस के ही साथ खड़े हैं. लालू-नीतीश-शरद तीनों एक ही पाले में दिखते हैं. दूसरी तरफ़ इमरजेंसी के दौरान संविधानेतर सत्ता के सबसे बड़े सूत्रधारों में एक मेनका गांधी अपने बेटे के साथ बीजेपी में शामिल हैं. लेकिन बेशक, इसी कारण से यह कहना अन्याय होगा कि किसी को इमरजेंसी की आलोचना का हक़ है या नहीं है. मूल बात यह है कि आपातकाल की बात करते हुए हम सबको इन चालीस वर्षों के बदलावों पर भी नज़र रखनी होगी और ठहरावों पर भी, कुछ प्रवृत्तियों के ख़ात्मे पर भी और कुछ की वापसी पर भी.
क्योंकि वे कोई और दिन थे जब न जीवन में आज जैसी रफ़्तार थी, न पत्रकारिता में. राजनीति और दुनिया की कुछ हलचलों के बीच सोया-सोया सा समाज चलता था, मंथर गति से ख़बरें चलती थीं. वे हिंदुस्तान के धीरे-धीरे चलने और बनने के दिन थे. लेकिन वह सोई-सोई सी दुनिया फिर भी आज के मुक़ाबले ज़्यादा जागी हुई थी. वह अपने नेताओं को पहचानती भी थी, पूजती भी थी, लेकिन नाराज़ होने पर बदल डालने का हौसला भी रखती थी. यह सच है कि आपातकाल की पहली चोट के साथ वह सहम कर चुप हो गई. लेकिन आपातकाल के पहले और बाद इसी सोई-सोई दुनिया ने ऐसी अंगड़ाई ली थी, जिससे सत्ताएं थरथरा गई थीं. जैसे 1975 के देश को यक़ीन नहीं था कि इंदिरा गांधी इमरजेंसी लगा देंगी वैसे ही 1971 की इंदिरा गांधी ने सोचा नहीं होगा कि ये देश एक दिन उनका ताज उछाल देगा उनका तख़्त गिरा देगा.
लाल कृष्ण आडवाणी को आज आपातकाल का वह ख़तरा फिर से अगर याद आ रहा है तो इसके पीछे भले उनकी अपनी राजनीतिक मायूसी हो, लेकिन यह ज़माने का भी सच है.
1977 की जो ख़ामोश क्रांति हुई, उससे दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास का एक बेहतरीन दृश्य बना. ये अलग बात है कि महज तीन साल के भीतर उस जनक्रांति के साथ उसके नेताओं ने धोखा किया. उन नेताओं में से एक लाल कृष्ण आडवाणी को आज आपातकाल का वह ख़तरा फिर से अगर याद आ रहा है तो इसके पीछे भले उनकी अपनी राजनीतिक मायूसी हो, लेकिन यह ज़माने का भी सच है.
इस बात के बावजूद कि इन चालीस बरसों में हिंदुस्तान कछुए से खरगोश बन चुका है और मीडिया अपनी दैनिक या साप्ताहिक लय को पीछे छोड़कर बिल्कुल चौबीस घंटे चलने वाली ऐसी चक्की बन चुका है, जिसमें दुनिया पिसती रहती है और ख़बरें निकलती रहती हैं, हम एक ज़्यादा बेख़बर और असुरक्षित मुल्क हैं. सबकी फिक्र करने वाला, पास-पड़ोस का ख़याल रखने वाला, और देश और दुनिया को अपना फ़र्ज़ समझने वाला मध्यवर्ग ख़त्म हो चुका है और उसकी जगह एक ऐसा आक्रामक उपभोक्ता वर्ग पैदा हो चुका है जो सिर्फ अपने खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने की सोचता है और किसी भी तरह की हिंसा, गैरबराबरी और नाइंसाफ़ी की धूल अपनी त्वचा पर पड़ने नहीं देता.
इसी दौर में मीडिया पर पूंजी का कब्ज़ा पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत है और समांतर आवाज़ें पहले से ज़्यादा दबी हुई हैं. ऐसे समय में देशभक्ति का मतलब दुनिया में ताकतवर होने की हसरत भर है, विकास का मतलब कुछ लोगों के लिए समृद्धि भर है और नेतृत्व का मतलब आक्रामक तेवर में की गई बयानबाज़ी भर है.
विचारहीनता के इस दौर में फिर ऐसी व्यक्तिपूजा शुरू हो रही है जिसमें न उचित आलोचना की जगह है और न असहमति की. लोकतांत्रिक संस्थाएं या तो ख़त्म की जा रही हैं या बेमानी बनाई जा रही हैं
विचारहीनता के इस दौर में फिर ऐसी व्यक्तिपूजा शुरू हो रही है जिसमें न उचित आलोचना की जगह है और न असहमति की. लोकतांत्रिक संस्थाएं या तो ख़त्म की जा रही हैं या बेमानी बनाई जा रही हैं. दलित-आदिवासी और अल्पसंख्यक लगातार किनारे किए जा रहे हैं और खुदकुशी और गरीबी के विकराल आंकड़े देखने को कोई भी तैयार नहीं है.
यही वे हालात होते हैं जिनमें कोई नेता ख़ुद को लोकतंत्र का पर्याय समझने लगता है. पहले वह उम्मीद जगाता है, फिर अपनी नाकामियां लोकतंत्र पर थोपता है और फिर अंत में आपातकाल लगाता है- ये अलग बात है कि अंत में वह भी मारा ही जाता है. लेकिन इतिहास की इस गलती को हम न दोहराएं इसके लिए ज़रूरी है कि अपने लोकतंत्र पर लगातार नज़र रखें, अपने नेताओं के हमेशा इम्तिहान लेते रहें.

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