आपातकाल के बारे में आगाह करने के पीछे लालकृष्ण आडवाणी की जो भी मंशा रही हो, उसका एक फायदा हुआ है। इस साल आपातकाल की बरसी चुपचाप नहीं गुजरेगी। हो सकता है, इस विवाद के बहाने नई पीढ़ी को आपातकाल के बारे में पता लग जाए। शायद इस बहाने हम अपने गिरेबान में झांक लें। हो सकता है कि हम अपने आप से एक कड़ा सवाल पूछ लें : अगर आज कोई नेता आपातकाल लगाने की कोशिश करता है, तो क्या हम उसका मुकाबला करने को तैयार है? क्या हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है?
हम आपातकाल का पूरा सच न तो खुद याद रखने की हिम्मत करते हैं, न ही नई पीढ़ी को बताने की परवाह करते है। हमने अपना दिल बहलाने के लिए इमरजेंसी के बारे में एक मिथक बना रखा है। मिथक यह है कि इमरजेंसी इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत सनक थी, लेकिन पूरे देश ने उसे खारिज कर दिया। यह मिथक हमें दिलासा देता है कि हम हिंदुस्तानियों में कुछ खास बात है, कि हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है। सच यह है कि आपातकाल के पीछे देश का पूरा सत्ता प्रतिष्ठान था, सिर्फ इंदिरा गांधी नहीं। सच यह भी है कि आपातकाल के दौरान देश की स्वतंत्र संस्थाओं ने एक-एक करके घुटने टेक दिए थे। सच यह है कि अगर चंद समर्पित और बेखौफ हिंदुस्तानी आपातकाल के खिलाफ न लड़ते, तो हमारे पास याद करने के लिए बहुत कुछ नहीं रहता। सच यह है कि अगर इंदिरा गांधी 1977 का चुनाव करवाने की 'गलती' न करतीं, तो हमारे लोकतंत्र का इतिहास बहुत अलग हो सकता था। अपने लोकतंत्र पर गर्व करना और पड़ोसियों को नसीहत देना हम हिंदुस्तानियों की आदत बन गया है।
लेकिन सच यह है कि हमें लोकतंत्र को हासिल करने और उसे बचाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। देश की आजादी के साथ-साथ हमें लोकतंत्र भी मिल गया। जबकि नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान की जनता को लोकतंत्र पाने या बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा, कुर्बानी देनी पड़ी। उसकी तुलना में इमरजेंसी के खिलाफ हमारा संघर्ष बहुत कमजोर था। आजादी की लड़ाई से निकली कांग्रेस पार्टी इंदिरा गांधी के सामने बिछ गई थी। विरोधी दलों का संघर्ष भी आधा-अधूरा था। माकपा ने आपातकाल का विरोध किया, पर उसका कारण पश्चिम बंगाल की राजनीति था, लोकतंत्र में आस्था नहीं। भाकपा और देश के अधिकांश कम्युनिस्ट इंदिरा गांधी के साथ खड़े थे। जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जेल गए, पर संघ के प्रमुख बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखकर उस पर पानी फेर दिया। अकाली दल के कार्यकर्ताओं ने बड़ी हिम्मत दिखाई, पर यह कहना मुश्किल है कि उनकी लड़ाई इंदिरा गांधी के खिलाफ थी या आपातकाल के खिलाफ। सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं का संघर्ष लोकतंत्र का संघर्ष था, लेकिन उनकी ताकत बहुत कम थी। राजनीतिक तंत्र आपातकाल का प्रभावी विरोध करने में विफल रहा।
इमरजेंसी के इक्कीस महीनों के दौरान लोकतंत्र की स्वायत्त संस्थाओं का इतिहास तो और भी शर्मनाक रहा था। कुछेक अपवादों को छोड़कर सारी अफसरशाही अधिनायकवाद की सेवा में जुट गई थी। जिसे झुकने को कहा गया, उसने रेंगना शुरू कर दिया। आज हम सब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज जगमोहन सिन्हा को श्रद्धा से याद करते हैं, जिन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देने की हिम्मत दिखाई। लेकिन सच यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया था। एक अनजान से जज हंस राज खन्ना को छोड़कर पूरा सुप्रीम कोर्ट आपातकाल के असांविधानिक आदेश पर मुहर लगा रहा था। इसमें भगवती और चंद्रचूड़ जैसे दिग्गज जज भी शामिल थे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आपातकाल के महिमामंडन में शामिल था। समझदार लोग भी हमेशा की तरह बीच का रास्ता निकालते हुए आपातकाल की आलोचना के साथ-साथ उसके गुण गिना रहे थे।
और जनता? यह सच है कि आखिर जनता के वोट ने अधिनायकवाद के खतरे को रोका। बेशक, 1977 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र का स्वर्णिम अध्याय था। लेकिन याद रहे कि जनता का वोट आपातकाल की ज्यादतियों और सत्ताधारियों के अहंकार के खिलाफ था, लोकतांत्रिक नियम-कायदे के उल्लंघन के खिलाफ नहीं। दक्षिण भारत में आपातकाल की ज्यादती नहीं हुई, वहां जनता ने 1977 में भी कांग्रेस को जमकर जिताया। दरअसल हमारे जनमानस में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और नियम-कायदे को लेकर कोई गहरी समझदारी न उस वक्त थी, न आज है।
लालकृष्ण आडवाणी के बयान से उठने वाला असली सवाल यह नहीं है कि आज इमरजेंसी जैसी स्थिति बन सकती है या नहीं। जाहिर है, अगर दोबारा आपातकाल आएगा, तो उसी रूप में संविधान के अनुच्छेद 356 के सहारे तो नहीं आएगा। वह राष्ट्रवाद, संस्कृति या विकास का कोई नया लबादा ओढ़कर आएगा। असली सवाल यह है कि अगर आज इमरजेंसी जैसी स्थिति बनती है, तो क्या हम उसे पहचानने और उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हैं? क्या हम 'मजबूत' नेता की जगह सामूहिक नेतृत्व पसंद करेंगे? क्या हम स्वायत्त संस्थाओं की आजादी की रक्षा करेंगे? क्या हमारा मीडिया लोकतंत्र पर हमले को पहचानेगा? क्या हमारे बुद्धिजीवी ऐसे किसी हमले के खिलाफ बीच का रास्ता छोड़कर ठोस आवाज उठाएंगे?
सवाल यह है कि क्या हमें आपातकाल के सबक याद हैं? इसका जवाब लालकृष्ण आडवाणी को नहीं, हमें और आपको देना है।
हम आपातकाल का पूरा सच न तो खुद याद रखने की हिम्मत करते हैं, न ही नई पीढ़ी को बताने की परवाह करते है। हमने अपना दिल बहलाने के लिए इमरजेंसी के बारे में एक मिथक बना रखा है। मिथक यह है कि इमरजेंसी इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत सनक थी, लेकिन पूरे देश ने उसे खारिज कर दिया। यह मिथक हमें दिलासा देता है कि हम हिंदुस्तानियों में कुछ खास बात है, कि हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है। सच यह है कि आपातकाल के पीछे देश का पूरा सत्ता प्रतिष्ठान था, सिर्फ इंदिरा गांधी नहीं। सच यह भी है कि आपातकाल के दौरान देश की स्वतंत्र संस्थाओं ने एक-एक करके घुटने टेक दिए थे। सच यह है कि अगर चंद समर्पित और बेखौफ हिंदुस्तानी आपातकाल के खिलाफ न लड़ते, तो हमारे पास याद करने के लिए बहुत कुछ नहीं रहता। सच यह है कि अगर इंदिरा गांधी 1977 का चुनाव करवाने की 'गलती' न करतीं, तो हमारे लोकतंत्र का इतिहास बहुत अलग हो सकता था। अपने लोकतंत्र पर गर्व करना और पड़ोसियों को नसीहत देना हम हिंदुस्तानियों की आदत बन गया है।
लेकिन सच यह है कि हमें लोकतंत्र को हासिल करने और उसे बचाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। देश की आजादी के साथ-साथ हमें लोकतंत्र भी मिल गया। जबकि नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान की जनता को लोकतंत्र पाने या बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा, कुर्बानी देनी पड़ी। उसकी तुलना में इमरजेंसी के खिलाफ हमारा संघर्ष बहुत कमजोर था। आजादी की लड़ाई से निकली कांग्रेस पार्टी इंदिरा गांधी के सामने बिछ गई थी। विरोधी दलों का संघर्ष भी आधा-अधूरा था। माकपा ने आपातकाल का विरोध किया, पर उसका कारण पश्चिम बंगाल की राजनीति था, लोकतंत्र में आस्था नहीं। भाकपा और देश के अधिकांश कम्युनिस्ट इंदिरा गांधी के साथ खड़े थे। जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जेल गए, पर संघ के प्रमुख बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखकर उस पर पानी फेर दिया। अकाली दल के कार्यकर्ताओं ने बड़ी हिम्मत दिखाई, पर यह कहना मुश्किल है कि उनकी लड़ाई इंदिरा गांधी के खिलाफ थी या आपातकाल के खिलाफ। सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं का संघर्ष लोकतंत्र का संघर्ष था, लेकिन उनकी ताकत बहुत कम थी। राजनीतिक तंत्र आपातकाल का प्रभावी विरोध करने में विफल रहा।
इमरजेंसी के इक्कीस महीनों के दौरान लोकतंत्र की स्वायत्त संस्थाओं का इतिहास तो और भी शर्मनाक रहा था। कुछेक अपवादों को छोड़कर सारी अफसरशाही अधिनायकवाद की सेवा में जुट गई थी। जिसे झुकने को कहा गया, उसने रेंगना शुरू कर दिया। आज हम सब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज जगमोहन सिन्हा को श्रद्धा से याद करते हैं, जिन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देने की हिम्मत दिखाई। लेकिन सच यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया था। एक अनजान से जज हंस राज खन्ना को छोड़कर पूरा सुप्रीम कोर्ट आपातकाल के असांविधानिक आदेश पर मुहर लगा रहा था। इसमें भगवती और चंद्रचूड़ जैसे दिग्गज जज भी शामिल थे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आपातकाल के महिमामंडन में शामिल था। समझदार लोग भी हमेशा की तरह बीच का रास्ता निकालते हुए आपातकाल की आलोचना के साथ-साथ उसके गुण गिना रहे थे।
और जनता? यह सच है कि आखिर जनता के वोट ने अधिनायकवाद के खतरे को रोका। बेशक, 1977 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र का स्वर्णिम अध्याय था। लेकिन याद रहे कि जनता का वोट आपातकाल की ज्यादतियों और सत्ताधारियों के अहंकार के खिलाफ था, लोकतांत्रिक नियम-कायदे के उल्लंघन के खिलाफ नहीं। दक्षिण भारत में आपातकाल की ज्यादती नहीं हुई, वहां जनता ने 1977 में भी कांग्रेस को जमकर जिताया। दरअसल हमारे जनमानस में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और नियम-कायदे को लेकर कोई गहरी समझदारी न उस वक्त थी, न आज है।
लालकृष्ण आडवाणी के बयान से उठने वाला असली सवाल यह नहीं है कि आज इमरजेंसी जैसी स्थिति बन सकती है या नहीं। जाहिर है, अगर दोबारा आपातकाल आएगा, तो उसी रूप में संविधान के अनुच्छेद 356 के सहारे तो नहीं आएगा। वह राष्ट्रवाद, संस्कृति या विकास का कोई नया लबादा ओढ़कर आएगा। असली सवाल यह है कि अगर आज इमरजेंसी जैसी स्थिति बनती है, तो क्या हम उसे पहचानने और उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हैं? क्या हम 'मजबूत' नेता की जगह सामूहिक नेतृत्व पसंद करेंगे? क्या हम स्वायत्त संस्थाओं की आजादी की रक्षा करेंगे? क्या हमारा मीडिया लोकतंत्र पर हमले को पहचानेगा? क्या हमारे बुद्धिजीवी ऐसे किसी हमले के खिलाफ बीच का रास्ता छोड़कर ठोस आवाज उठाएंगे?
सवाल यह है कि क्या हमें आपातकाल के सबक याद हैं? इसका जवाब लालकृष्ण आडवाणी को नहीं, हमें और आपको देना है।
No comments:
Post a Comment