Friday, 12 June 2015

नेहरूवादी आम सहमति का मिथक @रामचन्द्र गुहा

पिछले कुछ हफ्तों में ‘नेहरूवादी आम सहमति’ को मिलती चुनौतियों की बड़ी चर्चा हो रही है। इस चर्चा से प्रभावित होकर एक भारतीय और विदेशी पत्रकार ने मुझसे जानना चाहा कि क्या नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का मतलब इस आम सहमति का अंत है? मैंने इसलिए जवाब देने से इनकार कर दिया, क्योंकि एक छोटी-सी साउंड बाइट में इस मुद्दे को नहीं समेटा जा सकता। इस सवाल पर गंभीरता से विचार करना जरूरी है, क्योंकि अगर कोई नेहरूवादी आम सहमति थी, तो वह बहुत पहले टूट चुकी थी। भारत के प्रति नेहरू का नजरिया चार स्तंभों पर टिका हुआ था। वेस्टमिंस्टर मॉडल पर आधारित बहुदलीय लोकतंत्र, लिंग, वर्ग और धर्म से अलग हर नागरिक की राज्य की नजरों में बराबरी, सरकार के नेतृत्व में औद्योगिक विकास के लिए मिली-जुली अर्थव्यवस्था, एशियाई एकता और दोनों महाशक्तियों से बराबर दूरी के आधार पर विदेश नीति, ये उनके नजरिये चार स्तम्भ थे। नेहरू शानदार लेखक और वक्ता थे और उन्होंने अपने विचार बहुत अच्छे ढंग से व्यक्त किए हैं। लगातार 17 साल प्रधानमंत्री रहने की वजह से वह अपने विचारों को काफी हद तक कार्यान्वित होते भी देख पाए। 1950-1960 के दशकों में नेहरू और नेहरूवाद का भारतीय राजनीतिक विमर्श में वर्चस्व रहा। लेकिन इस दौर में भी उसे चुनौतियां मिलती रहीं। दक्षिणपंथ की ओर से नेहरू का विरोध जनसंघ कर रहा था, जिसका मानना था कि भारतीय राष्ट्र का आधार हिन्दुत्व है, इसलिए हिन्दू धर्म और भावनाओं को देश की योजनाओं और नीतियों में महत्व मिलना चाहिए। वाम की ओर से नेहरू और उनकी कांग्रेस पार्टी को साम्यवादियों ने चुनौती दी, जिनका मानना था कि निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए, सोवियत संघ के साथ ज्यादा गहरे रिश्ते होने चाहिए और अमेरिका की नीतियों का हर ओर विरोध होना चाहिए।

दिलचस्प बात यह है कि नेहरू के सबसे प्रभावशाली आलोचकों में वह पूर्व कांग्रेसी थे, जो उनसे अलग हो गए थे। सी. राजगोपालचारी (राजाजी) ने सन 1959 में 80 साल की उम्र में स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की, जो मुक्त व्यापार और अमेरिका से बेहतर रिश्तों की समर्थक थी। जयप्रकाश नारायण ने नेहरू के केंद्रीयकृत मॉडल का विरोध किया और राजनीतिक विकेंद्रीकरण के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने की वकालत की। राममनोहर लोहिया का कहना था कि नेहरू अंग्रेजीदां, उच्च वर्णीय मानसिकता के व्यक्ति थे, जो आम जनता से दूर थे। वह मानते थे कि असली लोकतंत्र तभी स्थापित होगा, जब निचली जातियां, आदिवासी और अन्य शोषित वर्ग सत्ता पाएंगे। इन आलोचकों का बुद्धिजीवियों पर काफी असर था। डीडी कौशांबी और इरफान हबीब जैसे श्रेष्ठ इतिहासकार मार्क्सबवादी थे। आरके नारायण और मस्ती वेंकटेश अयंगार जैसे लेखक राजाजी के प्रशंसक थे। ग्रामीण स्वशासन के जेपी के विचारों ने कई राजनीति शास्त्रियों और समाज शास्त्रियों को आकर्षित किया। अपनी चमकदार वाणी और जुझारू शैली की वजह से उत्तर, दक्षिण और पश्चिमी भारत में लोहिया का प्रभाव बुद्धिजीवियों में फैला। कई लेखक और विद्वान खुद को लोहियावादी कहते थे।

एक बौद्धिक अनुशासन जो नेहरूवादी विचारों की गिरफ्त में बना रहा, वह अर्थशास्त्र का था। जब पांचवीं पंचवर्षीय योजना का मसौदा 24 अर्थशास्त्रियों के बीच वितरित किया गया, तो बीआर शेनाय को छोड़कर बाकी 23 ने उसे स्वीकृति दी। अर्थशास्त्र के अलावा, अन्य क्षेत्रों में नेहरूवादी विचारों का एकाधिकार नहीं था। 1950-1960 के दौर के बारे में मैं एक इतिहासकार की तरह लिख रहा हूं, जबकि 1970 और 80 के दशकों के बारे में व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर लिख सकता हूं। इन दशकों में नेहरू और उनकी विरासत को राजनीति और बौद्धिक हलकों में जबरदस्त चुनौती मिली। सन 1977 में जनता पार्टी सत्ता में आई। जनता पार्टी नेहरू विरोधियों का संयुक्त मोर्चा था। लोहियावादी स्वतंत्र पार्टी के लोग और जनसंघी सब इसमें शामिल थे। उसी साल साम्यवादियों ने केरल और पश्चिम बंगाल में चुनाव जीत लिए। राजनीतिक और बौद्धिक माहौल नेहरू से दूर छिटकने लगा था। मैंने कोलकाता में अपनी पीएचडी सन 1980 में शुरू की। उस शहर की संस्कृति में तब जवाहरलाल नेहरू के प्रति गहरी नापसंदगी थी। वहां बौद्धिक अड्डा सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ सोशल साइंसेज था, जहां मुझे पहली नौकरी मिली। सेंटर के सबसे चमकदार सितारे राजनीति शास्त्री पार्थ चटर्जी थे, जिन्होंने अभी-अभी एक किताब लिखी थी, जिसमें नेहरू को एक कमजोर दिल सुधारवादी कहा था, जो सिर्फ एक निष्क्रिय क्रांति कर सकता है।

उसी दशक में मैं दिल्ली चला गया। यहां समाजशास्त्री अध्ययन का सबसे बड़ा केंद्र सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) था, जिसके कर्ताधर्ता रजनी कोठारी जेपी के प्रशंसक थे और जनता प्रयोग के प्रति बहुत उत्साहित थे। कोठारी कई मुद्दों पर नेहरू के आलोचक थे, सिविल सोसायटी की उपेक्षा करने के लिए, आर्थिक ताकत के राज्य में केंद्रीयकरण के लिए और सोवियत संघ के ज्यादा करीब जाने के लिए। सीएसडीएस में समाजशास्त्री आशीष नंदी भी थे, जिनकी नेहरू की आलोचना ज्यादा बुनियादी थी। नंदी नेहरू को एक अहंकारी अभिजातवादी मानते थे, जिनकी आम आदमी की परंपराओं और संस्कृति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। नंदी के मुताबिक वैज्ञानिक सोच में नेहरू का विश्वास देसी ज्ञान की समृद्ध परंपराओं की उपेक्षा करता था, जिसने खेती, परंपरागत चिकित्सा और हुनर को बनाए रखा था। इस बीच नृवंशशास्त्री टीएन मदान नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता की बजाय गांधीवादी धर्मनिरपेक्षता की वकालत कर रहे थे, जिसमें लोक परंपराओं और धर्मों के बीच संवाद को महत्व दिया गया था।

नेहरूवाद का पिछड़ना दो और समूहों की वजह से शुरू हुआ। गांधी की तरह नेहरू ने जाति पर कभी ध्यान नहीं दिया। वह सोचते थे आर्थिक विकास के साथ जाति अपने आप खत्म हो जाएगी। दलित बुद्धिजीवियों ने नेहरू की इस कमजोरी पर हमला किया। इस बीच मेधा पाटकर और माधव गाडगिल जैसे पर्यावरणवादियों ने यह तर्क दिया कि नेहरू के भारी पूंजी और ऊर्जा आधारित आर्थिक विकास की वजह से किसानों और आदिवासियों का विस्थापन हुआ है और बड़े पैमाने पर पर्यावरण का नुकसान हुआ है। नेहरू जिन्हें आधुनिक मंदिर कहते थे, वे विशाल बांध इन लोगों की आलोचना के खास केंद्र थे। पर आज, नेहरूवादी सहमति की बात उठाने की वजह क्या है? एक वजह तो यह है कि हमारे दौर में इतिहास के प्रति निरक्षरता है। दूसरा, हिन्दुत्व के विचारकों का स्वार्थ है। वे यह मानते हैं कि उनके सारे विरोधी नेहरूवादी हैं। अब उनके पास सत्ता है, तो वे इस छद्म द्वैत का इस्तेमाल संस्कृति और शोध के केंद्रों पर कब्जे के लिए कर रहे हैं। जो नेहरूवादी आम सहमति की बात कर रहे हैं, उनमें से कुछ अज्ञानी हैं और कुछ शरारत कर रहे हैं। यह मुहावरा अपने आप में गलत और अपमानजनक है। यह लोहिया, अंबेडकर, राजाजी, डीडी कोशांबी, जेपी, आशीष नंदी, पार्थ चटर्जी और माधव गाडगिल जैसे नेहरू से असहमत मौलिक चिंतकों के योगदान को कम करके आंकता है।

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