अपने चुनावी अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने कई बार यह दोहराया था कि काश, सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते। इतना ही नहीं, उन्होंने पटेल की याद में एक 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटी' बनाने का वायदा भी किया है, जो खुद 'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी' से भी विशाल होगी। मगर पटेल का इतना आदर वह क्यों करते हैं, इसका जिक्र उन्होंने कभी नहीं किया। मुझे लगता है कि इसकी वजह शायद यह है कि पटेल एक कुशल प्रशासक थे, उनकी सोच व्यापार के अनुकूल थी, चीन पर उनका रुख कड़ा था, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि अगर पटेल प्रधानमंत्री बन जाते, तो शायद नेहरू-गांधी खानदान का मुद्दा ही नहीं रह जाता।
अपने भाषणों में मोदी ने तमाम दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों का भी जिक्र किया, मगर जहां तक मुझे याद आता है, जिस एक नाम का उन्होंने कभी जिक्र नहीं किया, वह था, मोरारजी देसाई का। गौरतलब है कि पटेल की तरह मोरारजी भी गुजराती थे। मगर पटेल के उलट वह भारत के प्रधानमंत्री बने। 29 फरवरी, 1896 को जन्मे मोरारजी ने अपने कैरियर की शुरुआत औपनिवेशिक सिविल सेवक के तौर पर की। हालांकि बाद में महात्मा गांधी से प्रभावित होकर, उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया, और लंबा समय जेल में काटा। आजादी के बाद वह तत्कालीन अविभाजित बॉम्बे राज्य के मुख्यमंत्री बने। बाद में, उन्होंने केंद्र में वित्त मंत्री समेत कैबिनेट में कई महत्वपूर्ण पद संभाले।
गौरतलब है कि अप्रैल 1956 में जवाहरलाल नेहरू ने सी डी देशमुख को लिखा था, 'मोरारजी देसाई जैसे बहुत कम लोग हैं जिनके खरेपन, योग्यता, कुशलता और निष्पक्षता का मैं कायल हूं। ' उसी वर्ष के अंत में अहमदाबाद में हिंदू और मुसलमानों के बीच टकराव की खबरें आईं। जब यह टकराव दंगे की शक्ल आख्तियार करने लगा, तब मोरारजी अनिश्चितकालीन उपवास पर बैठ गए, जिसे दंगों के पूरी तरह रुक जाने के बाद ही उन्होंने तोड़ा। ऐसा ही एक रोचक वाकया 1960 के अप्रैल महीने का है, जब चीन के प्रधानमंत्री झाऊ एनलाई ने सीमा विवाद के मद्देनजर समझौते की आस में भारत की यात्रा की। यहां उन्होंने मोरारजी समेत तमाम वरिष्ठ राजनेताओं से मुलाकात की। इस दौरान झाऊ की इस शिकायत पर, कि भारत ने दलाई लामा को शरण दे रखी है, मोरारजी ने उन्हें याद दिलाया कि कभी खुद कार्ल मार्क्स को ब्रिटेन ने शरण दी थी। इसके बाद जब झाऊ के यह पूछने पर कि आखिर भारत सरकार ने चीन के दूतावास के बाहर प्रदर्शन करने की अनुमति क्यों दी, मोरारजी ने एक बार फिर तानाशाही और लोकतंत्र के बीच बुनियादी फर्क का हवाला दिया। उन्होंने खुद लिखा है कि हर बार बजट पेश किए जाने के बाद सड़कों पर उनके पुतले फूंके गए।�नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। मगर 1966 में शास्त्री की असमय मृत्यु के बाद मोरारजी और इंदिरा गांधी के बीच नेतृत्व संभालने के लिए जंग हुई। देसाई को बेशक हार मिली, मगर वह इंदिरा गांधी की कैबिनेट का हिस्सा बनने को राजी हो गए। हालांकि यह भी सच है कि निजी या विचारधारा के मोर्चे पर इन दोनों शख्सियतों में कहीं कोई तालमेल नहीं दिखा। वर्ष 1969 में इंदिरा गांधी ने वाम विचारधारा के प्रति अपना झुकाव दिखाना शुरू किया। वही वह समय था, जब मोरारजी से वित्त मंत्रालय का कार्यभार वापस लिया गया। और उसके बाद उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा देने में ज्यादा देर नहीं लगाई। जल्द ही कांग्रेस पार्टी टूट का शिकार हुई। इस बार मोरारजी विपक्ष में बैठे, और 1975 के आपातकाल के दौर में श्रीमती गांधी ने अपने दूसरे विरोधियों की तरह उन्हें भी जेल की हवा खिलवाई।
जनवरी, 1977 में इंदिरा गांधी के आलोचकों को रिहाई मिली। 19 जनवरी को जनसंघ, भारतीय लोक दल, कांग्रेस (ओ) और समाजवादियों ने मोरारजी के आवास पर एक बैठक की। सबने एक होकर 'जनता पार्टी' के गठन का फैसला लिया। नई पार्टी ने मार्च के चुनाव में कांग्रेस को जबर्दस्त पटखनी दी, और मोरारजी प्रधानमंत्री बन गए। ढाई वर्ष तक उन्होंने यह पद संभाला। हालांकि उनके कार्यकाल की यादें कुछ खट्टी रहीं, तो इसकी एक वजह पार्टी और सरकार की अंदरूनी कलह थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण था, क्योंकि प्रधानमंत्री के तौर पर अपने संक्षिप्त कार्यकाल में मोरारजी ने भारतीय लोकतंत्र की उस विश्वसनीयता को फिर से संजोने की कोशिश की, जो आपातकाल के दौरान छिन्न-भिन्न हो गई थी। 1977 के चुनाव से पहले मोरारजी ने कहा था कि जीतने पर उनकी पार्टी लोगों के मन में समाए डर को खत्म करने के साथ संविधान के दोषों को भी दूर करेगी, ताकि फिर से आपातकाल जैसे हालात कभी न पैदा हो सकें। वह अपने शब्दों पर कायम रहे, और उनके कानून मंत्री शांति भूषण के मार्गदर्शन में लाए गए 44वें संविधान संशोधन के जरिये आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री की शक्तियों को बढ़ाने वाले और उसे न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखने वाले प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया।
यह उल्लेखनीय है कि मोरारजी ने पुराने मतभेदों को भुलाकर संविधान की पुनर्स्थापना के मुद्दे पर इंदिरा गांधी की रजामंदी पाने में कामयाबी पाई। यह मोरारजी का ही कार्यकाल था, जिसमें जम्मू-कश्मीर में पहली बार स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए गए। उन्होंने अपनी सरकार में पेशेवरों को जगह दी। ऐसे वक्त में, जब सचिव स्तर की नियुक्तियों में आईएएस अफसरों का बोलबाला था, तब मोरारजी ने वित्त सचिव के तौर पर एक अर्थशास्त्री (मनमोहन सिंह) को, कृषि सचिव के तौर पर एक वनस्पति वैज्ञानिक (एम एस स्वामीनाथन) को, पेट्रोलियम सचिव के तौर पर एक रसायनज्ञ (लोवराज कुमार) को, और बतौर रक्षा उत्पादन सचिव एक इंजीनियर (मैनुएल मेंजेस) को नियुक्ति दी। हालांकि अफसोसनाक यह रहा कि मोरारजी के पद छोड़ने के बाद उनके इस प्रयोग को भी विराम लग गया, जबकि इसे जारी रखे जाने की जरूरत थी।वैसे निजी तौर पर मोरारजी देसाई कुछ हद तक एक रूखे और आकर्षणविहीन इन्सान थे। और तिस पर प्राकृतिक चिकित्सा और निषेधों के प्रति उनकी दीवानगी की वजह से मीडिया और मध्यवर्ग उनके प्रति आकर्षण महसूस नहीं करता था।
हालांकि यह भी सच है कि अपनी सार्वजनिक छवि के उलट उनमें मानवीयता कूट-कूटकर भरी थी। वह क्रिकेट प्रेमी थे, और बचपन में सी के नायडू को अपना आदर्श मानते थे। उन्हें शास्त्रीय संगीत की भी खासी समझ थी। इससे जुड़ा एक दिलचस्प वाकया है। दरअसल देश के विभाजन के बाद महान गायक बड़े गुलाम अली खान को पाकिस्तान में बसने के लिए राजी कर लिया गया था। मगर जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि उस देश में उनके संगीत की कोई कद्र नहीं। ऐसे में जब उन्होंने भारत वापसी का फैसला किया, तब वह तत्कालीन बॉम्बे राज्य के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ही थे, जिन्होंने न केवल उनकी भारत वापसी का बंदोबस्त किया, बल्कि उन्हें रहने के लिए एक सरकारी आवास भी मुहैया कराया।
इसमें संदेह नहीं कि मोरारजी में कमियां थीं। उदाहरण के लिए, अमूमन हर भारतीय की तरह उनमें भी अपने बच्चों की कमियों को नजरंदाज करने की आदत थी। मगर यह भी मानना होगा कि उनके गुण उनकी कमियों पर हावी थे। हमारे पहले गुजराती प्रधानमंत्री एक देशभक्त, लोकतांत्रिक, आधुनिक सोच रखने वाले प्रशासक, निष्पक्ष सांसद, शास्त्रीय संगीत के प्रेमी और अंत में एक ऐसे शख्स थे जो सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए अपनी जिंदगी को भी दांव पर लगा सकते थे।
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