Wednesday, 10 June 2015

एक नायक का बेदखल होना @रामचंद्र गुहा

बात 1976 की है। भारत में आपातकाल लागू था, और अमेरिकी पत्रकार ए एम रॉसेनथल नई दिल्ली की यात्रा पर थे। हालांकि दिल्ली उनके लिए नई नहीं थी, क्योंकि पहले भी बतौर न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता वह यहां आ चुके थे। वह जवाहरलाल नेहरू के बड़े प्रशंसक थे। और इसकी वजह यह थी कि गहरे तक फैली सामाजिक असमानता और धार्मिक आधारों पर बंटे भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्‍थापना के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री ने जिस साहस के साथ संघर्ष किया, उसे खुद उन्होंने अपनी आंखों से देखा था।

मगर आपातकाल के दौरान जब वह दिल्ली आए तो उनका सामना इंदिरा गांधी के प्रशासन से उपजे डर और अविश्वास के माहौल से हुआ। वह इस नतीजे पर पहुंचे कि नेहरू की पुत्री ने अपने पिता की राजनीतिक विरासत को गहराई देने के बजाय, नुकसान ही ज्यादा पहुंचाया। उनके एक भारतीय मित्र तो यहां तक लिखते हैं कि अगर उस वक्त नेहरू जिंदा होते, तो उनका जेल में होना तय था, जहां से वह प्रधानमंत्री को लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्‍थानों के महत्व पर चिट्ठियां लिखते।

गौरतलब है कि इस हफ्ते उस शख्स की 50 वीं पुण्यतिथि है, जिन्हें जिंदा रहते तो काफी सम्मान मिला, मगर निधन के बाद से लगातार उनकी अनदेखी हो रही है। नेहरू की प्रतिष्ठा में कमी आने की दो प्रमुख वजहें हैं। पहली, कांग्रेस पार्टी की विचारधारा से इत्तफाक न रखने वाली पार्टियों की ताकत में इजाफा। और दूसरी, बतौर प्रधानमंत्री नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी और उनके नाती राजीव गांधी का विवादास्पद कार्यकाल। नेहरू के ठीक उलट बेटी इंदिरा ने राजनीति में बहस और संवाद को हमेशा संदेह की नजर से देखा। वहीं नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की सोच से अलग हटते हुए राजीव ने शाहबानो मामले में सर्वोच्च अदालत का फैसला पलटते हुए मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने, और अयोध्या में धर्मस्थल का ताला खोलकर हिंदू अतिवादियों के सामने झुकने की नीति अपनाई।

मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या हुई। और इसी वर्ष प्रकाशित अपने एक लेख में मैंने इस तथ्य पर जोर दिया कि प्रबुद्ध वर्ग के बीच हाल के वर्षों में जहां महात्मा गांधी के विचारों की स्वीकार्यता तेजी से बढ़ी है, वहीं नेहरू के प्रति बेरुखी। अखबार ने मेरे इस लेख का शीर्षक लगाया, 'नेहरू इज आउट, गांधी इज इन।' मैंने इस लेख में लिखा कि पूरी जिंदगी नेहरू को भरपूर सम्मान मिला, मगर आज चमचागीरी में करियर ढूंढते लोगों को छोड़कर शायद ही कोई उनके समर्थन में खड़ा दिखेगा। और उनके विचारों को समझने की इच्छा रखने वालों की तादाद तो और भी कम होगी। इसके बावजूद मुझे भरोसा है कि समय के साथ नेहरू की प्रतिष्ठा धीरे-धीरे बढ़ती जाएगी। हां, 1950 के दशक जैसी लोकप्रियता का शिखर वह छू पाएंगे, इसमें जरूर संदेह हो सकता है।

1991 में जब मैंने ये पंक्तियां लिखीं, तभी उनके वंश के प्रभाव के अंत के संकेत मिलने लगे थे। मुझे उम्मीद थी कि राजीव गांधी की मौत भारत के पहले प्रधानमंत्री के विचारों के बेहतर आकलन का मौका देगी। हालांकि इसमें संदेह नहीं कि नेहरू के कुछ विचार अपनी प्रासंगिकता खो चुके थे। मसलन, उनके केंद्रीय नियोजन के विचार की तुलना में राजनीतिक हस्तांतरण और बाजार आधारित अर्थव्यवस्‍था को भारत के लिए ज्यादा जरूरी माना जाने लगा था।

इसके बावजूद 1991 में मेरी सोच यह थी कि नेहरू की विरासत के कई दूसरे प्रासंगिक हिस्सों को मजबूत करने की जरूरत थी। मसलन, संसद और संसदीय प्रक्रियाओं को लेकर उनकी प्रतिबद्धता, सार्वजनिक संस्‍थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने की उनकी कोशिशें, धार्मिक बहुलता व लिंग समानता जैसे विचारों को लेकर उनकी चिंता और वैज्ञानिक अनुसंधान और शिक्षण को प्रोत्साहन देने वाले केंद्रों की स्‍थापना पर जोर, जिसकी बदौलत सॉफ्टवेयर क्षेत्र में भारत एक ताकत बनकर उभर सका। मुझे उम्मीद है कि युवा भारतीय उन भयावह चुनौतियों को जरूर समझेंगे जो कि स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में नेहरू और उनके सहयोगियों के सामने थीं।

हालांकि मेरी यह सोच गलत साबित हुई कि नेहरू कभी उस बोझ से मुक्त हो पाएंगे, जो खुद उनके वंश के ही लोगों की देन थी। 1998 में सोनिया गांधी से निवेदन किया गया कि वह कांग्रेस पार्टी की बागडोर संभालें। ये पंक्तियां लिखे जाने के समय तक वह लगातार सोलह वर्षों से पार्टी की अध्यक्ष बनी हुई हैं। इस दौरान उम्मीदों के मुताबिक उनके पुत्र राहुल को उनका उत्तराधिकारी बनाया गया। नेहरू-गांधी परिवार ने दूसरे जरियों से भी वंशवादी राजनीति को बढ़ावा दिया। मसलन, सैकड़ों सरकारी कार्यक्रम उनके परिवार के सदस्यों के नाम से शुरू किए गए।

समाजशास्‍त्री आंद्रे बेते कहते हैं, नेहरू का मरणोपरांत करियर बाइबिल की उस मशहूर उक्ति के ठीक उलट दिशा में जाता दिखा, जिसके मुताबिक पिता के पापों की सजा आगामी सात पीढ़ियों को भुगतनी होती है। दरअसल नेहरू के मामले में उनकी पुत्री, नातियों, नाती की पत्नी और परनाती के पापों ने उनके कंधों पर बोझ बढ़ाया है। हालांकि यह विडंबना ही है कि राजनीतिक विरासत बनाने की खुद नेहरू की कोई मंशा नहीं थी। मई, 1964 में उनके निधन के वक्त तक पुत्री इंदिरा की पहचान उनकी निजी जिंदगी तक ही सीमित थी। इंदिरा का प्रधानमंत्री बनना इत्तफाक था। अपने पिता के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्‍त्री की जनवरी, 1966 में हुई असमय मौत की वजह से ही उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला।

1948 से 1960 तक नेहरू को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो सम्मान मिला, उसकी तस्दीक गार्जियन अखबार की खबर से की जा सकती है, जो कि 1957 की गर्मियों में लंदन में भारतीय प्रधानमंत्री की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद प्रकाशित हुई। इसमें लिखा था, 'पश्चिम के सैकड़ों पुरुष और महिलाओं को उस धधकती हुई ताकत की झलक देखने को मिली, जिसे एशिया के करोड़ों लोगों का स्नेह और समर्थन मिला हुआ है। इसमें रहस्य जैसा कुछ नहीं है। नेहरू की ताकत विशुद्ध तौर पर उनके व्यक्तित्व से झलकती है। यह ऐसे आदमी की ताकत है, जो पिता, शिक्षक और बड़े भाई, तीनों का मिला-जुला रूप है। यह उस इंसान का समग्र प्रभाव है जो विनोदप्रिय, धैर्यवान, बुद्धिमान और सौ-फीसदी ईमानदार है।'

संभवतः अपने जीवनकाल में मिली अतिशय चापलूसी का ही नतीजा था कि मरणोपरांत नेहरू की उपलब्धियों को कम आंका जाने लगा। यह प्रवृत्ति सार्वजनिक जीवन, राजनीतिक विमर्शों और खासकर साइबर संसार में तेजी से फैली है। जब तक सोनिया और राहुल गांधी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहेंगे, हालत कमोबेश ऐसी ही बनी रहेगी। यही कहा जा सकता है कि उनके परिवार के अंतिम शख्स के राजनीति को अलविदा कहने के बाद ही जवाहरलाल नेहरू के जीवन और उनकी विरासत पर न्यायपूर्ण और भरोसेमंद धारणा बनाई जा सकेगी।

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