लगता है, जैसे 25 जून, 1975 की वह उत्तेजना भरी भागमभाग अभी की बात है। बीस साल की उम्र के मुझ जैसे नए पत्रकार के लिए देश में तेजी से घटने वाली घटनाएं स्तंभित कर देने वाली थीं। अविभाजित मध्य प्रदेश के रायपुर (अब छत्तीसगढ़ की राजधानी) के प्रमुख अखबार युगधर्म (अब प्रकाशन स्थगित) ने उस दिन के सभी कार्यक्रमों को प्रमुखता से कवर करना तय किया था। प्रख्यात समाजवादी नेता मधु लिमये उस दिन रायपुर में थे। वह भी लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की मशाल लिए घूम रहे थे। शाम को गांधी चौक पर उन्होंने देश की विकट स्थिति का विश्लेषण किया।
मधु जी ने 'आज रात (25 जून को) कोई बड़ी बात होने' का अंदेशा जाहिर किया, तो श्रोताओं को शायद ही अंदाज रहा होगा कि देश 21 महीने तक एक गहरे, अंधेरे कुएं में धंसने जा रहा है। शाम को सभा के बाद मधु जी संपादकीय कार्यालय आए, जहां हमने उनका इंटरव्यू लिया, जिसमें उन्होंने अपना अंदेशा दोहराया। उन्होंने कहा, 'अपनी सत्ता बचाने के लिए इंदिरा किसी भी सीमा तक जा सकती हैं और विपक्ष के साथ प्रेस का गला भी घोंटा जाएगा। हमें लगा कि ऐसा हुआ, तो युगधर्म सबसे पहले सरकार का निशाना बनेगा। एक तो वह विपक्ष का पत्र था और दूसरे, इंदिरा गांधी के सूचना-प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल रायपुर के थे और जेपी आंदोलन में युगधर्म की सक्रिय भूमिका से चिढ़े हुए थे। सो, 25 जून के कार्यक्रमों और मधु जी के इंटरव्यू को लेकर आनन-फानन में दो पृष्ठों का विशेष संस्करण छपा और छत्तीसगढ़ तथा विदर्भ के प्रमुख शहरों-कस्बों में भेजा गया। प्रेस का गला घोंटने का अंदेशा सही निकला। प्रेस की बिजली काट दी गई। और पुलिस संपादक को गिरफ्तार करने प्रेस आ धमकी। यह इमरजेंसी की घोषणा होने से दो-ढाई घंटे पहले की बात है। विपक्षी नेता-कार्यकर्ताओं समेत मधु जी गिरफ्तार कर लिए गए। इसी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आनंद मार्ग, जमायते-इस्लामी के लोग, नक्सल-समर्थक वामपंथी भी पकड़ लिए गए।
इमरजेंसी लगने के दो महीने तक गिरफ्तारी न होने से मुझे बेचैनी थी। खबरें करने के लिए कोई बीट नहीं थी, क्योंकि अखबार ताले में था, बाकी पत्रों में प्राण नहीं बचे थे। जेपी की अगुआई में बनी लोक संघर्ष समिति लोकतंत्र की वापसी, नागरिक तथा प्रेस की आजादी की बहाली के लिए बड़ा और संगठित आंदोलन चला रही थी। चौदह-पंद्रह वर्ष के विद्यार्थियों समेत संघ के कार्यकर्ता हर रोज जयस्तंभ पर पहुंचते, तानाशाही मुर्दाबाद, लोकतंत्र वापस लाओ और भारत माता की जय के नारे लगाते और साइक्लोस्टाइल पर्चे बांटते। खौफ इतना था कि भारत माता की जय कहने वाले उन किशोरों को जयस्तंभ या किसी प्रमुख चौराहे पर देखते ही कई लोग इधर-उधर होने लगते। पुलिस आती, सत्याग्रहियों को पीटती और थाने ले जाती। दसवीं और ग्यारहवीं में पढ़ने वाले मेरे दो भाई यही सब भुगतकर जेल जा चुके थे। देश भर में संघ के कार्यकर्ताओं और पंजाब में सिखों ने सत्याग्रह अनवरत जारी रखा।
भूमिगत साहित्य के पर्चे या प्रमुख भूमिगत कार्यकर्ताओं के संदेश पहुंचाने के लिए प्रवास के दौरान संजय गांधी के जबरिया नसबंदी कार्यक्रम से भी साबका पड़ा। दुर्ग से निकली जिस बस में मैं चला, वह सीधे थाने ले जाई गई, जहां एक शामियाना लगा था। कुछ बसें वहां खड़ी थीं। युवा पुरुषों और विवाहित जोड़ों को नसबंदी के लिए शमियाने में ले जाया जा रहा था। पत्रकार होने से मैं बच गया।
रायपुर जेल में मधु जी, मध्य प्रदेश जनसंघ के अध्यक्ष बृजलाल वर्मा और समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक के अलावा वे सब नेता भी थे, जिनके हम अब तक बयान छापते थे। मुझ जैसे युवा पत्रकार के लिए वह अद्भुत राजनीतिक पाठशाला थी। 1977 में जनता पार्टी सरकार बनने के कुछ महीने बाद ही जब मधु जी ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाकर जनता पार्टी में शामिल जनसंघ नेताओं के संघ से संबंधों पर प्रहार किया, तो मुझ जैसे कई लोगों को आश्चर्य हुआ, क्योंकि रायपुर जेल में उन्हें हमने अक्सर कहते सुना था कि 'अब लोकतंत्र की लड़ाई संघ वाले ही लड़ सकते हैं।'
रायपुर जेल में मजदूर नेता (तब नए) शंकर गुहा नियोगी से हुआ परिचय बाद में उनकी हत्या तक कायम रहा। शंकर का बिछौना कल्याण आश्रम के संस्थापक बालासाहेब देशपांडे की बगल में था। जेल में मीसाबंदियों पर लाठीचार्ज हुआ, तो उन्होंने बुजुर्ग बालासाहेब के सिर पर पड़ने वाली लाठियां अपने हाथों पर झेल लीं। शंकर के साथ अक्सर जेल की दीवार तोड़कर फरार होने के मंसूबे बांधे जाते, यह जानते हुए भी कि सारा देश ही एक विशाल जेल बन गया था! इमरजेंसी को 'अनुशासन पर्व' घोषित करने वाले विनोबा पर हम युवा बहुत क्रुद्ध थे। हम युवा बंदियों ने एक पत्र उन्हें पवनार आश्रम, वर्धा के पते पर भेजा। लिखा कि 'इंदिरा जी का मक्खन, दही, शहद खाकर आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।' उम्मीद थी, जेल के सेंसर अधिकारी पत्र रोक लेंगे। पर वह गया और कुछ दिनों बाद विनोबा का सिर्फ 'ओम हरि' लिखा पोस्टकार्ड आ गया, जिस पर डाक विभाग का छपवाया 'अनुशासन पर्व' अंकित था! महज छेड़ने के लिए एक पत्र संजय गांधी को लिखा गया, जिसमें बताया गया कि कांग्रेस के समर्थन से चुने गए रायपुर के कम्युनिस्ट विधायक आपका और आपके पांच सूत्री कार्यक्रम का कैसे मजाक उड़ाते हैं। संजय को लिखा, 'आपका आपातकाल पूरी तरह नाकाम है, इंदिरा जी का समर्थन करने वाली भाकपा आपकी पीठ में खंजर घोंप रही है और आपको भनक तक नहीं!' संजय गांधी के ऑफिस से आए लिफाफे में रखे झक सफेद लेटरहेड पर उनका नाम सुनहरे अक्षरों में था। लिखा था, 'आपके पत्र पर उचित कार्रवाई की जाएगी।' जिस तरह जेल सुपरिंटेंडेंट स्वयं वह पत्र लेकर, जिसे सेंसर अधिकारी को खोलकर पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई, बैरक में आए, उससे हम जान गए कि देश वास्तव में कौन चला रहा है
मधु जी ने 'आज रात (25 जून को) कोई बड़ी बात होने' का अंदेशा जाहिर किया, तो श्रोताओं को शायद ही अंदाज रहा होगा कि देश 21 महीने तक एक गहरे, अंधेरे कुएं में धंसने जा रहा है। शाम को सभा के बाद मधु जी संपादकीय कार्यालय आए, जहां हमने उनका इंटरव्यू लिया, जिसमें उन्होंने अपना अंदेशा दोहराया। उन्होंने कहा, 'अपनी सत्ता बचाने के लिए इंदिरा किसी भी सीमा तक जा सकती हैं और विपक्ष के साथ प्रेस का गला भी घोंटा जाएगा। हमें लगा कि ऐसा हुआ, तो युगधर्म सबसे पहले सरकार का निशाना बनेगा। एक तो वह विपक्ष का पत्र था और दूसरे, इंदिरा गांधी के सूचना-प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल रायपुर के थे और जेपी आंदोलन में युगधर्म की सक्रिय भूमिका से चिढ़े हुए थे। सो, 25 जून के कार्यक्रमों और मधु जी के इंटरव्यू को लेकर आनन-फानन में दो पृष्ठों का विशेष संस्करण छपा और छत्तीसगढ़ तथा विदर्भ के प्रमुख शहरों-कस्बों में भेजा गया। प्रेस का गला घोंटने का अंदेशा सही निकला। प्रेस की बिजली काट दी गई। और पुलिस संपादक को गिरफ्तार करने प्रेस आ धमकी। यह इमरजेंसी की घोषणा होने से दो-ढाई घंटे पहले की बात है। विपक्षी नेता-कार्यकर्ताओं समेत मधु जी गिरफ्तार कर लिए गए। इसी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आनंद मार्ग, जमायते-इस्लामी के लोग, नक्सल-समर्थक वामपंथी भी पकड़ लिए गए।
इमरजेंसी लगने के दो महीने तक गिरफ्तारी न होने से मुझे बेचैनी थी। खबरें करने के लिए कोई बीट नहीं थी, क्योंकि अखबार ताले में था, बाकी पत्रों में प्राण नहीं बचे थे। जेपी की अगुआई में बनी लोक संघर्ष समिति लोकतंत्र की वापसी, नागरिक तथा प्रेस की आजादी की बहाली के लिए बड़ा और संगठित आंदोलन चला रही थी। चौदह-पंद्रह वर्ष के विद्यार्थियों समेत संघ के कार्यकर्ता हर रोज जयस्तंभ पर पहुंचते, तानाशाही मुर्दाबाद, लोकतंत्र वापस लाओ और भारत माता की जय के नारे लगाते और साइक्लोस्टाइल पर्चे बांटते। खौफ इतना था कि भारत माता की जय कहने वाले उन किशोरों को जयस्तंभ या किसी प्रमुख चौराहे पर देखते ही कई लोग इधर-उधर होने लगते। पुलिस आती, सत्याग्रहियों को पीटती और थाने ले जाती। दसवीं और ग्यारहवीं में पढ़ने वाले मेरे दो भाई यही सब भुगतकर जेल जा चुके थे। देश भर में संघ के कार्यकर्ताओं और पंजाब में सिखों ने सत्याग्रह अनवरत जारी रखा।
भूमिगत साहित्य के पर्चे या प्रमुख भूमिगत कार्यकर्ताओं के संदेश पहुंचाने के लिए प्रवास के दौरान संजय गांधी के जबरिया नसबंदी कार्यक्रम से भी साबका पड़ा। दुर्ग से निकली जिस बस में मैं चला, वह सीधे थाने ले जाई गई, जहां एक शामियाना लगा था। कुछ बसें वहां खड़ी थीं। युवा पुरुषों और विवाहित जोड़ों को नसबंदी के लिए शमियाने में ले जाया जा रहा था। पत्रकार होने से मैं बच गया।
रायपुर जेल में मधु जी, मध्य प्रदेश जनसंघ के अध्यक्ष बृजलाल वर्मा और समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक के अलावा वे सब नेता भी थे, जिनके हम अब तक बयान छापते थे। मुझ जैसे युवा पत्रकार के लिए वह अद्भुत राजनीतिक पाठशाला थी। 1977 में जनता पार्टी सरकार बनने के कुछ महीने बाद ही जब मधु जी ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाकर जनता पार्टी में शामिल जनसंघ नेताओं के संघ से संबंधों पर प्रहार किया, तो मुझ जैसे कई लोगों को आश्चर्य हुआ, क्योंकि रायपुर जेल में उन्हें हमने अक्सर कहते सुना था कि 'अब लोकतंत्र की लड़ाई संघ वाले ही लड़ सकते हैं।'
रायपुर जेल में मजदूर नेता (तब नए) शंकर गुहा नियोगी से हुआ परिचय बाद में उनकी हत्या तक कायम रहा। शंकर का बिछौना कल्याण आश्रम के संस्थापक बालासाहेब देशपांडे की बगल में था। जेल में मीसाबंदियों पर लाठीचार्ज हुआ, तो उन्होंने बुजुर्ग बालासाहेब के सिर पर पड़ने वाली लाठियां अपने हाथों पर झेल लीं। शंकर के साथ अक्सर जेल की दीवार तोड़कर फरार होने के मंसूबे बांधे जाते, यह जानते हुए भी कि सारा देश ही एक विशाल जेल बन गया था! इमरजेंसी को 'अनुशासन पर्व' घोषित करने वाले विनोबा पर हम युवा बहुत क्रुद्ध थे। हम युवा बंदियों ने एक पत्र उन्हें पवनार आश्रम, वर्धा के पते पर भेजा। लिखा कि 'इंदिरा जी का मक्खन, दही, शहद खाकर आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।' उम्मीद थी, जेल के सेंसर अधिकारी पत्र रोक लेंगे। पर वह गया और कुछ दिनों बाद विनोबा का सिर्फ 'ओम हरि' लिखा पोस्टकार्ड आ गया, जिस पर डाक विभाग का छपवाया 'अनुशासन पर्व' अंकित था! महज छेड़ने के लिए एक पत्र संजय गांधी को लिखा गया, जिसमें बताया गया कि कांग्रेस के समर्थन से चुने गए रायपुर के कम्युनिस्ट विधायक आपका और आपके पांच सूत्री कार्यक्रम का कैसे मजाक उड़ाते हैं। संजय को लिखा, 'आपका आपातकाल पूरी तरह नाकाम है, इंदिरा जी का समर्थन करने वाली भाकपा आपकी पीठ में खंजर घोंप रही है और आपको भनक तक नहीं!' संजय गांधी के ऑफिस से आए लिफाफे में रखे झक सफेद लेटरहेड पर उनका नाम सुनहरे अक्षरों में था। लिखा था, 'आपके पत्र पर उचित कार्रवाई की जाएगी।' जिस तरह जेल सुपरिंटेंडेंट स्वयं वह पत्र लेकर, जिसे सेंसर अधिकारी को खोलकर पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई, बैरक में आए, उससे हम जान गए कि देश वास्तव में कौन चला रहा है
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