Wednesday, 3 June 2015

प्रभाकरण के अंत से हल नहीं हुई तमिल समस्या @रेहान फ़ज़ल

प्रभाकरण
प्रभाकरन की मौत को एलटीटीई का अंत भी कहा जा रहा है

वेल्लुपिल्लई प्रभाकरण की 53वीं सालगिरह पर जब उनकी प्रशंसा और शुभकामनाओं भरा गीत गाया जा रहा था तो कम से कम उनके साथियों ने कल्पना नहीं की थी कि वो अपना 54वाँ जन्म दिन नहीं मना पाएँगे.
जिस हिंसा के पैरोकार प्रभाकरण थे, उसका अंदाज़ा श्रीलंका के बाहर की दुनिया के लिए लगा पाना शायद मुश्किल है. एक आज़ाद तमिल देश की इच्छा लिए प्रभाकरण ने 26 साल तक सरकार के साथ संघर्ष किया. इस लड़ाई में करीब 70 हज़ार लोग खेत रहे, जिसमें खुद प्रभाकरण भी शामिल हैं.
अंतिम दम तक वो कहते रहे कि तमिल ईलम के संघर्ष में युद्ध विराम एक सही विकल्प नहीं है. सालों तक भूमिगत जीवन बिताने के बावजूद भारत में अभी भी कई लोग हैं, जिन्हें प्रभाकरण को आमने-सामने देखने का मौका मिला.
उनमें से एक हैं एमआर नारायण स्वामी. नारायण स्वामी ने उनकी जीवनी भी लिखी इनसाइड एन इल्यूसिव माइंड. नारायण स्वामी को अभी भी याद है जब 2002 में वो प्रभाकरण द्वारा बुलाए गए संवाददाता सम्मेलन में भाग लेने किलोनोच्चि गए थे.
सुरक्षा और सतर्कता
नारायण स्वामी कहते हैं, “हम प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए वहाँ गए थे. लिट्टे के शिविर में हमने रात बिताई. नहाने के लिए कुआँ था, वहीं नहाए. वहाँ सुरक्षा व्यवस्था बहुत कड़ी थी. उन्होंने एक-एक पत्रकार को कमरे में बुलाया और बारीकी से तलाशी ली. सभी पत्रकारों की अलग-अलग तस्वीरें भी ली गईं.”
उसी सम्मेलन में एक और भारतीय पत्रकार ए गणेश नडार भी मौजूद थे, जो आजकल रैडिफ डॉट कॉम के लिए काम करते हैं.
 बालासिंहम ने प्रभाकरण का परिचय कुछ इस तरह से किया कि प्रभाकरण तमिल ईलम के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी हैं. राजीव गांधी की हत्या को लेकर सवालों पर प्रभाकरण कुछ विचलित भी नज़र आए
 
नारायणस्वामी, पत्रकार और लेखक
नडार कहते हैं, “हम कोलंबो गए. प्रभाकरण ने सफारी सूट पहना था. जिसे भी सवाल पूछना हो, पहले अपना हाथ उठाए. जब उनसे पूछा गया कि आप शांतिकाल का लुत्फ उठा रहे हैं, उनका जवाब था, नहीं.”
नारायणस्वामी कहते हैं कि इतने बड़े संवाददाता सम्मेलन में जहाँ करीब 350 पत्रकार मौजूद थे. प्रभाकरण खुद को सहज महसूस नहीं कर रहे थे. वो थोड़ा तनाव में थे और छोटे-छोटे जवाब दे रहे थे.
नारायणस्वामी कहते हैं, “प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रभाकरण के साथ बालासिंहम और करुणा भी थे. बालासिंहम ने प्रभाकरण का परिचय कुछ इस तरह से किया कि प्रभाकरण तमिल ईलम के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी हैं. राजीव गांधी की हत्या को लेकर सवालों पर प्रभाकरण कुछ विचलित भी नज़र आए.”
दूरदर्शी प्रभाकरण
एक और पत्रकार जिनको प्रभाकरण से कई बार मिलने का मौका मिला, वो थी सीएनएन की दिल्ली में पूर्व ब्यूरो प्रमुख और मशहूर किताब आइलैंड ऑफ़ ब्लड की लेखिका अनिता प्रताप. वो कहती हैं, “वो अपने लक्ष्य को लेकर एकदम स्पष्ट और प्रतिबद्ध थे. उनमें जबर्दस्त दूरदर्शिता भी थी.”
प्रभाकरण के पहले शिकार गिलहरियाँ और चिड़िया थीं और पहला हथियार एक मामूली गुलेल. फिर उन्होंने बंदूक उठाई और 34 साल पहले जाफ़ना के मेयर अल्फ्रेड दुरैयप्पा को खुद अपने हाथों से गोली मारी. इसके बाद जो भी उनकी राह में आया, चाहे वो अमृतलिंगम हो या त्रिरुचेलवम या राजीव गांधी या फिर श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदासा, उन्होंने किसी को नहीं बख्शा.
प्रभाकरण
प्रभाकरण ने 26 साल तक श्रीलंका सरकार के साथ संघर्ष किया
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कूटनीति पढ़ा रहे पुष्पेश पंत कहते हैं, “सारी दुनिया प्रभाकरण को याद करेगी एक अहंकारी दहशतगर्द और खूंखार वहशी के रूप में. लिट्टे ने ही आत्मघाती हमलों की शुरुआत की थी. मुझे हैरानी होती है कि आज भी कुछ लोग उन्हें अपना दोस्त बताते हुए नहीं हिचकिचाते.”
दूसरी तरफ, प्रभाकरण के प्रशंसकों की भी कमी नहीं. एशिया वीक पत्रिका ने एक बार उनकी तुलना जाने-माने क्रांतिकारी चे ग्वेरा से की थी. वहीं न्यूज़वीक ने कहा था कि वो जीते-जागते लीजैंड हैं.
तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एमजीआर के चहेते प्रभाकरण को अस्सी के दशक में भारतीय खुफ़िया एजेंसियों और सेना ने प्रशिक्षण दिया था.
वही प्रभाकरण आगे चलकर भारत के लिए मोस्ट वांटेड अतिवादी बन गए. एमआर नारायण स्वामी याद करते हैं. “मैं एक ऐसे तमिल चरमपंथी शंकर राजी को जानता हूँ जो अब जिंदा नहीं है. वो प्रभाकरण से मिले थे. शंकर राजी ने बताया कि प्रभाकरण का निशाना अचूक था.”
गलतियां
प्रभाकरण के जीवन की सबसे बड़ी गलती रही, जब उन्होंने 1987 में भारत-श्रीलंका समझौते को ठुकराया. फिर उन्होंने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को रास्ते से हटाने का फैसला लिया. इससे लिट्टे पर तो प्रतिबंध लगा ही, उन्होंने भारतीय तमिलों की सहानुभूति भी खो दी. 2005 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान अपने इलाके में लोगों को वोट डालने से रोकना भी उनके ख़िलाफ़ गया.
श्रीलंका में भारतीय शांति सेना के प्रमुख रह चुके जनरल अशोक मेहता कहते हैं, “प्रभाकरण की सबसे पहली गलती भारत-श्रीलंका समझौते को न मानना रहा. उनकी दूसरी गलती राजीव गांधी की हत्या कराना रही. तीसरी गलती उनका श्रीलंका सेना की ताक़त को कम आंकना रहा. उन्हें ये पता नहीं था कि ये श्रीलंका सेना वो नहीं है जो 1990 में थी.”
 प्रभाकरण की सबसे पहली गलती भारत-श्रीलंका समझौते को न मानना रहा. उनकी दूसरी गलती राजीव गांधी की हत्या कराना रही. तीसरी गलती उनका श्रीलंका सेना की ताक़त को कम आंकना रहा. उन्हें ये पता नहीं था कि ये श्रीलंका सेना वो नहीं है जो 1990 में थी
 
अशोक मेहता, सैन्य अधिकारी
लेकिन प्रभाकरण और एलटीटीई की हार का सबसे बड़ा कारण बना जब श्रीलंका की सरकार को ये साफ़ हो गया कि बातचीत से तमिल समस्या का कोई हल नहीं निकल सकता और सैनिक समाधान ही इसका एकमात्र विकल्प है.
तो क्या अब माना जाए कि श्रीलंका की तमिल समस्या का अंत हो गया है. क्या राष्ट्रपति राजपक्षे की इतनी व्यापक सोच है कि वो इस जीत के बावजूद अल्पसंख्यक तमिलों को साथ लेकर चलने के बारे में सोचेंगे. पुष्पेश पंत कहते हैं कि इस समय शायद ये सवाल उठाना उनके साथ ज़्यादती होगी.
बहरहाल, ये मानना भी गलती होगी कि प्रभाकरण की मौत के बाद तमिल समस्या का भी अंत हो गया.
श्रीलंका सरकार को तमिलों को बार-बार यकीन दिलाना होगा कि वो भी उस राष्ट्र का हिस्सा हैं और कम से कम दोयम दर्जे के नागरिक तो कतई नहीं हैं.
श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त रहे एनएन झा कहते हैं, “भारत को तमिलों के पुनर्वास में पूरी-पूरी मदद करनी चाहिए. राजनीतिक मुद्दों को सुलझाने के लिए भी भारत को श्रीलंका पर दबाव बनाना होगा.”
ज़ाहिर है श्रीलंका में अभी कुछ दिनों तक उहापोह की स्थिति रहेगी. अगर तमिलों को फिर उनके हाल पर छोड़ा जाता है तो कोई ताज्ज़ुब नहीं कि उनकी आकांक्षाएँ फिर सिर उठाएँ.
आज नहीं, कल नहीं—शायद कुछ सालों बाद. प्रभाकरण के जिंदा न रहने के बावजूद.

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