वीके सिंह ने अपनी किताब में रॉ से जुड़े कई खुलासे किए हैं |
हाल ही में भारत की बाहरी खुफ़िया एजेंसी रॉ पर एक किताब छपी है जिसमें इस एजेंसी की कार्य प्रणाली, उपलब्धियों और असफलताओं का सिलसिलेवार ब्यौरा दिया गया है.
भारतीय खुफ़िया एजेंसियों का कामकाज और उससे जुड़े विवाद हमेशा से चर्चा का विषय रहे हैं.
पाकिस्तान एयरलाइंस का एक विमान 3 जून 1999 को दिल्ली से इस्लामाबाद के लिए उड़ा. उसमें विदेश मंत्रालय में उस समय के पाकिस्तानी डेस्क के प्रभारी विवेक काटजू और ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के आरके मिश्रा बैठे थे.
उनके पास एक टेप था जिसमें बीजिंग की यात्रा पर गए पाकिस्तान के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ और उनके चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अज़ीज के बीच बातचीत की रिकॉर्डिंग थी.
उस रिकॉर्डिंग से यह बात साफ़ होती थी कि करगिल की लड़ाई में पाकिस्तानी सैनिक हिस्सा ले रहे थे.
इस बातचीत को रॉ के तकनीक विंग ने गुप्त तरीके से रिकॉर्ड किया था. बाद में भारत के विदेश मंत्रालय ने इस टेप की प्रतियाँ संवाददाताओं के बीच बँटवाईं.
सफलता-असफलता
उस समय इस घटना को मनोवैज्ञानिक युद्ध की सफलता का सबसे बड़ा उदाहरण माना गया लेकिन रॉ के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी जनरल वीके सिंह ने अपनी किताब 'इंडियाज़ इंटरनल इंटेलीजेंस-सीक्रेट्स ऑफ़ रॉ' में भारत के इस कदम को बेवकूफ़ी भरा ग़लत फ़ैसला क़रार दिया.
वीके सिंह कहते हैं, “ये ग़लत इसलिए है कि इंटेलीजेंस में कभी भी स्त्रोत नहीं बताया जाता. हो सकता है कि इससे इंटेलीजेंस को जो नुकसान हो रहा हो, वह बहुत ज़्यादा हो. जिस लिंक पर यह बातचीत रिकॉर्ड हुई थी, जब अगले दिन से आपने उसको प्रसारित कर दिया तो अगले दिन से वह लिंक बंद हो गया.”
दूसरी तरफ अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' में सामरिक मामलों पर लिखने वाले प्रवीण स्वामी कहते हैं कि उस दौरान भारत सरकार पर इस बात का बहुत दवाब था कि वो पूरी दुनिया को बता पाए कि कारगिल में वास्तव में क्या हो रहा है.
प्रवीण कहते हैं, “इसमें दो ही राय ही सकती हैं और हमें निष्पक्षता से स्वीकार करना चाहिए कि दोनो ही राय वैध हैं. उस समय दुनिया में कोई मानने को तैयार नहीं था कि पाकिस्तान की फौज़ और सरकार का करगिल की लड़ाई में कोई हाथ था. ये भारत सरकार के लिए बहुत ज़रूरी था कि वो दुनिया के देशों पर कुछ दबाव डाले और बताए कि उनका नज़रिया सही नहीं है."
वो आगे कहते हैं, "इस निर्णय को उस समय के सियासी माहौल के नज़रिए से देखना चाहिए. मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि यह थोड़ी बेवकूफ़ी थी. ये शायद ग़लत निर्णय था. लेकिन मैं समझ सकता हूँ कि राजनेताओं पर उस समय कितना दबाव रहा होगा जो उन्होंने इसे ज़ाहिर करना ज़रूरी समझा."
एक और किताब
अगले कुछ दिनों में रॉ के एक और पूर्व अधिकारी बी रमन की 'द काऊ बॉयज़ ऑफ़ रॉ-डॉउन मेमोरी लेन' नाम की एक किताब आ रही है.
इस किताब में वो खुलासा करने जा रहे हैं कि अस्सी के दशक में फ़्रांसीसी खुफ़िया विभाग ने प्रधानमंत्री कार्यालय तक में अपने जासूस पहुँचा दिए थे.
बी रमन ने चेन्नई से फ़ोन पर इस खुलासे के बारे में बताया, "राजीव गाँधी जब 1985 में प्रधानमंत्री थे उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय में फ़्रांसीसी खुफ़िया तंत्र की सेंध का पता लगा था. यह सेंध तब लगाई गई थी जब इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं. लोकसभा में इस बात पर बहस हुई. मामला इतना गंभीर था कि राजीव गाँधी को संसद में बयान तक देना पड़ा."
उन्होंने बताया, "राजीव गाँधी ने प्रधान सचिव पीसी अलेक्ज़ेंडर को इस्तीफ़ा देने को कहा. रक्षा मंत्रालय, योजना आयोग के कई कर्मचारी इसमें गिरफ़्तार भी किए गए. मुंबई का एक व्यापारी जिसका इस्तेमाल फ़्रांसीसी गुप्तचर एजेंसी ने किया था वो भी पकड़ा गया."
भारतीय खुफ़िया एजेंसियों का ट्रैक रिकॉर्ड मिलाजुला रहा है. उसने 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, पंजाब में ख़ालिस्तान आंदोलन को तोड़ने और मालदीव में सैनिक विद्रोह को दबाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
रॉ के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी वीके सिंह कहते हैं, “बांग्लादेश के युद्ध के पहले रॉ ने काफ़ी काम किया. एक वर्ष पहले से उन्होंने ऑपरेशन शुरू किए थे पश्चिमी पाकिस्तान में मुक्तिवाहिनी को मदद देने के लिए. इसकी वजह से जब 1971 में ऑपरेशन हुआ तो एक तरह से सहूलियत हो गई."
उन्होंने आगे बताया, "पोखरण में जो परमाणु परीक्षण किए गए कहा जाता है उसकी इसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी रॉ को दी गई थी. जबकि सामान्य रूप से रॉ बाहरी एजेंसी के रूप में काम करती है. इस मामले में उनको कहा गया कि इसकी जानकारी किसी को नहीं लगनी चाहिए. और वह एक तरह से इसमें सफल रहा क्योंकि इसकी ख़बर किसी को नहीं लगी."
कई राजीव गांधी की हत्या की घटना को खुफिया एजेंसियों की गंभीर नाकामी मानते हैं |
एक और मामले बताते हुए वीके सिंह कहते हैं, "पाकिस्तान के कहूटा में परमाणु गतिविधियों के बारे में रॉ को ख़बर लग गई थी. कहते हैं कि बाल काटने वाले की दुकान पर जो लोग आते थे उनके कटे हुए बालों के विश्लेषण से रॉ ने जाना कि उनमें यूरेनियम है. और फिर उन्होंने उसका एक स्रोत ढूंढ लिया. एक आदमी ने कहा कि वो ब्लू प्रिंट लाकर देगा. लेकिन इसके लिए उसने उसने दस हज़ार डॉलर मांगे. कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने दस हज़ार डॉलर नहीं दिए और उल्टे पाकिस्तान को बता दिया कि आपका एक आदमी हमको ख़बर देने को तैयार है.”
वहीं शेख़ मुज़ीब की हत्या, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या और कश्मीर में अस्सी के दशक में चरमपंथ की शुरूआत की भविष्यवाणी न कर पाना उसकी नाकामयाबी रही.
'द हिंदू' अख़बार के संवाददाता प्रवीण स्वामी कहते हैं, “पहली असफलता यह थी कि जब कश्मीर में बच्चा-बच्चा जानता था कि सैकड़ों लड़के बाहर प्रशिक्षण के लिए जा रहे हैं तो इसकी भविष्यवाणी न कर पाना एक बहुत बड़ी असफलता थी. दूसरी असफलता यह थी कि जब करगिल युद्ध से पहले उनके पास यह चेतावनी थी फिर भी वे अनुमान नहीं लगा पाए.
प्रवीण स्वामी आगे कहते हैं, "पाकिस्तान से 1965 की लड़ाई, भिंडरवाला की ताकत का सही आकलन न कर पाना और राजीव गांधी की हत्या अंदाजा न लगा पाना भी रॉ की बड़ी असफलताएँ हैं."
वीके सिंह ने अपनी किताब में खुलासा किया है कि जर्मन खुफ़िया एजेंसी ने भारतीय इंटेलीजेंस को संकेत दे दिया था कि एलटीटीई भारत में एक बड़े निशाने की तलाश में है.
लेकिन फिर भी भारतीय एजेंसियों ने उसे गंभीरता से नहीं लिया.
ज़िम्मेदारी
इंटेलीजेंस ब्यूरो में संयुक्त महानिदेशक रहे मलय कृष्ण धर ने बीबीसी को बताया कि राजीव गाँधी की हत्या के लिए खुफ़िया एजेंसियों को किस हद तक ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, “राजीव गाँधी की जब हत्या हुई तो मैं उस समय गृह मंत्रालय में गृहमंत्री का विशेष सहायक था. उस समय तमिलनाडु का वेदारन क्षेत्र एलटीटीई का गढ़ बन चुका था. उनका वायरलेस संदेश तमिल में आता था जिसे आईबी और रॉ तोड़ नहीं पाया. ये हमारी बहुत बड़ी कमी रह गई. दूसरी बात यह कि राजीव गाँधी उस समय प्रधानमंत्री नहीं थे और उनकी सुरक्षा का स्तर ढीला हो गया था.”
भारत में खुफ़िया एजेंसियों का इस्तेमाल आंतरिक सुरक्षा की बजाए राजनीतिक खुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने में ज़्यादा किया जाता है.
संयुक्त जांच समिति के पूर्व प्रमुख आरके खंडेलवाल से इस बात की सच्चाई पर रोशनी डाली, "ये होता रहता है और इसका इस्तेमाल अलग-अलग पार्टियों पर निर्भर करता है. कोई पार्टी कम करती है कोई ज़्यादा करती है और इसको रोका भी नहीं जा सकता. ऐसा दुनिया में हर जगह होता है. परंतु इंटेलीजेंस के मामले में हमको एक चीज़ को ध्यान में रखना चाहिए कि देश का हित सर्वोपरि होना चाहिए."
ये सच है कि खुफ़िया एजेंसियों का इस्तेमाल राजनैतिक प्रतिद्वंदियों से हिसाब चुकता करने में किया गया है और रॉ में भी सब कुछ ठीक नहीं है.
रवींद्र सिंह को सीआए के जासूसी करते पकड़ा गया और भारत से भाग जाने दिया गया.
और हाल में जिस तरह ब्रिगेडियर उज्जवल दास गुप्ता की गिरफ़्तारी हुई वो बताता है कि भारतीय खुफ़िया एजेंसियों को एम-15 और एम-16 के पेशेवर अंदाज़ में आने में अभी और समय लगेगा और फिर ब्रिटिश खुफ़िया एजेंसियों को भी क्यों आदर्श माना जाए.
ये बात किसी से छुपी नहीं है कि शीत युद्ध के चरम पर कई अधिकारी केजीबी के लिए काम करते पाए गए थे
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