कारगिल यद्ध ने भारतीय और पाकिस्तानी सेना के अंतर को फिर सामने ला दिया था। भारत में दुश्मन देश की सेना और सैनिकों को भी प्रतिष्ठा देने की परंपरा है, जबकि पाकिस्तानी सेना में इसकी कमी है। यह उस वक्त भी दिखा जब भारतीय सेना ने पाकिस्तानी अधिकारी कैप्टन शेर खान के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया, जबकि इसके उलट पाकिस्तानी सेना ने कैप्टन सौरभ कालिया व उनके साथ पकड़े गए पांच सैनिकों अर्जुन राम बसवाना, नरेश सिंह सिनसिनवार, भीकराम मुध, मूलाराम बिदिआसर और भंवर लाल बगरिया के साथ बर्बर व्यवहार किया।
जब भारतीय सैनिकों ने टाइगर हिल पर दोबारा कब्जा कर लिया था, कैप्टन शेर खान ने खूंखार प्रत्याक्रमण किया। वह साहस के साथ लड़ा, लेकिन हमले को निष्फल कर दिया गया और शेर खान मारा गया। इस कार्रवाई में भाग लेने वाले भारतीय अफसरों और सैनिकों ने युद्ध में मारे गए एक सैनिक के लिए अपेक्षित आदर से उसके शव के साथ बर्ताव किया। शेर खान का शव पाकिस्तान को वापस कर दिया गया और चूंकि भारतीय अधिकारियों ने उसकी बहादुरी की बात स्वीकार की थी, इसलिए उसे पाकिस्तान के सर्वोच्च सैन्य पदक निशान-ए-हैदर से नवाजा गया। इस मामले में भारतीय सेना ने उस आचार संहिता का पालन किया, जो युद्ध की भारत की प्राचीन परंपरा में निहित है।
स्पष्ट रूप से पाकिस्तानी सेना इन परंपराओं का पालन नहीं करती। पाकिस्तान सेना एक ऐसी सेना है, जिसे आतंकवाद के उपयोग की विशेषज्ञता हासिल है और वह आतंकियों को अपने हथियार के तौर पर शामिल करती है। वह अपने ही लोगों पर हमले करती है, जैसा इसने पूर्वी पाकिस्तान में किया। वहां किए गए नरसंहार ने पाकिस्तान का बंटवारा कर दिया और बांग्लादेश का निर्माण हुआ।
अब पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान में आतंक का कहर ढाया हुआ है। कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना ने अपने सैनिकों के शवों को लेने से मना कर दिया, क्योंकि वह इस बात से इनकार करना चाहती थी कि उसकी सेना इसमें शामिल है। वस्तुत: मारे गए सैनिकों के परिवार पाकिस्तानी जनरलों के इस कदम से गुस्से में थे और उन्हें बहुत कठिनाई से शांत किया जा सका। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि उसने कैप्टन कालिया और पांच अन्य सैनिकों के साथ अत्याचार किया।
कैप्टन कालिया समेत अन्य शहीद भारतीय सैनिकों को यातना देने की खबरें आने पर 1999 में देश का गुस्सा पूरी तरह उचित था। यह गुस्सा अब भी सुलग रहा है। कैप्टन कालिया और सैनिकों के पार्थिव शरीर कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने वापस किए थे। उन पर यातना के निशान थे और भारतीय डॉक्टरों द्वारा किए गए पोस्टमार्टम ने उस यातना की पुष्टि की। यह 1949 की उस जेनेवा संधि का पूरी तरह उल्लंघन था, जो एक अंतरराष्ट्रीय संधि है और पाकिस्तान ने जिस पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके तहत अपेक्षित है कि युद्धबंदी को सम्मान दिया जाए और उन्हें प्रताड़ित न किया जाए। उसने यातना को युद्ध अपराध बताया है।
कैप्टन कालिया के परिवार ने मांग की है कि इस मामले में जेनेवा संधि के उल्लंघन के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाना चाहिए। बाद की सरकारें ऐसा करने की इच्छुक नहीं रही हैं। इससे दु:खी होकर परिवार ने इस संदर्भ में सरकार को निर्देश देने के लिए उच्चतम न्यायालय में 2012 में याचिका दायर की। संप्रग सरकार ने यह तर्क दिया कि ऐसा करने से कुछ कानूनी तकनीकियां उसे रोकती हैं। मामला अब भी न्यायालय में लंबित है और हाल में मीडिया के एक वर्ग के एक बार फिर भारी दबाव के कारण राजग सरकार ने निर्णय किया है कि वह न्यायालय से इस बात की जांच का अनुरोध करेगी कि देश को इस मामले में अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाना चाहिए या नहीं।
भारत को अंतरराष्ट्रीय अदालत में नहीं जाना चाहिए, यह रुख कानूनी और राजनयिक रूप से ठीक है। कानूनी तौर पर यह उस घोषणा के अनुरूप है जो भारत ने 1974 में तब की थी जब उसने अंतरराष्ट्रीय अदालत को सूचना दी कि उसका ऐसे किसी भी मामले में कोई क्षेत्राधिकार नहीं है जो राष्ट्रमंडल में शामिल या शामिल रहे किसी भी सदस्य से संबंधित है। भारत ने इस घोषणा का हवाला दिया जब पाकिस्तान ने अटलांटिक मामले में भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अदालत में शिकायत की। अटलांटिक पाकिस्तानी नौसेना का विमान था जो अगस्त, 1999 में भारतीय वायुसीमा में घुस आया था और उसने अपने मार्ग में आए भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों की चेतावनियों का कोई उत्तर नहीं दिया था। इसलिए उसे मार गिराया गया था। इस घटना में 16 पाकिस्तानी सैनिक मार गिराए गए थे।
अंतरराष्ट्रीय अदालत ने भारतीय विचार का अनुमोदन किया और फैसला दिया कि भारतीय घोषणा-पत्र के कारण उनका क्षेत्राधिकार नहीं है। अब अगर भारत वहां जाता है तो पाकिस्तान कहेगा कि भारत अपने उद्देश्य को पूरा होते देखकर अपने ही घोषणा-पत्र की अनदेखी नहीं कर सकता।
क्या भारत को इस घोषणा-पत्र की अनदेखी करनी चाहिए? यह राजनयिक तौर पर एक गलत कदम होगा, क्योंकि पाकिस्तान सभी द्विपक्षीय मामलों, खास तौर से कश्मीर से संबंधित मामलों का अंतरराष्ट्रीयकरण करना चाहता है। अब यह मामला उच्चतम न्यायालय देखेगा, लेकिन इस तरह के मुद्दे वस्तुत: सरकार को तय करने होते हैं और जब जन-दबाव हो, तब भी उसे इस तरह के मामलों में न्यायालयों की ओर नहीं देखना चाहिए।
सौरभ कालिया और पांच सैनिकों के साथ-साथ पाकिस्तानी सेना की नृशंसता के शिकार सभी सैनिकों को आखिरकार न्याय भी जरूर मिलना चाहिए। ऐसा तब होगा, जब पाकिस्तानी सेना के पापों को कूटनीतिक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने प्रभावी ढंग से और लगातार सामने लाया जाए। इस संदर्भ में सौरभ कालिया और इन सैनिकों का मामला खास तौर पर बताया जाना चाहिए।
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