यूँ तो सात दशकों तक चले उनके राजनैतिक करियर में ज्योति बसु को कई उपलब्धियों के लिए याद किया जाएगा, लेकिन शायद उनका सबसे बड़ा योगदान था- कम्युनिस्ट आंदोलन को 'ये आज़ादी झूठी है' के दिनों से निकालकर संसदीय व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका में विराजमान करा पाना.
कई मौक़ों पर ज्योति बसु ने किंग मेकर की भूमिका निभाई, लेकिन जब किंग बनने का मौक़ा आया, तो वे अपनी पार्टी के कहने पर पीछे हट गए.
वर्ष 1996 में वो उस जगह पर पहुँच सकते थे, जहाँ आज तक कोई भी भारतीय कम्युनिस्ट नहीं पहुँच पाया है.
लेकिन पार्टी ने युवा तुर्क प्रकाश कराट और सीताराम येचुरी के दबाव के चलते इसका ये कहते हुए विरोध किया कि पार्टी को उस दिन का इंतज़ार करना चाहिए, जब उनके पास सरकार चलाने के लिए अपना पूरा बहुमत हो.
भूल
ज्योति बसु ने पार्टी के इस फ़ैसले को सिर आँखों पर लिया और बाद में जब धूल थोड़ी छँटी तो उन्होंने ये ज़रूर कहा कि ये पार्टी की ऐतिहासिक भूल थी.
ज्योति बसु सोमनाथ लाहिरी, नंबूदरीपाद और बीटी रणदिवे के टक्कर के वक्ता नहीं थे लेकिन उनमें अपने अपूर्ण वाक्यों की बदौलत भी लोगों से संपर्क स्थापित करने की गज़ब की क्षमता थी.
कई मुद्दों पर पार्टी वालों ने उनका साथ नहीं दिया. वर्ष 1964 में जब कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ तो वो और नंबूदरीपाद इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ थे.
जब उनके नजदीकी प्रमोद दास गुप्ता विभाजन की पुरज़ोर वकालत कर रहे थे तो ज्योति बसु मध्यमार्गियों का साथ दे रहे थे.
उन्होंने फ़ौरन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता नहीं ली, लेकिन बाद में वे पोलित ब्यूरो के सदस्य बनकर पार्टी में आए.
ज्योति बसु ने एक बार अमरीकियों को चिढ़ाने के लिए कोलकाता में हैरिंगटन स्ट्रीट (जहाँ अमरीकी वाणिज्य दूतावास स्थित है) का नाम बदलकर हो ची मिन्ह सारणी रख दिया.
लेकिन यही ज्योति बसु भारत-अमरीका परमाणु समझौते के मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के पार्टी के फ़ैसले के ख़िलाफ़ थे.
ज्योति बसु मार्क्सवाद में पूरी तरह से विश्वास करने के बावजूद व्यावहारिक थे. अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में विदेशी निवेश और बाज़ारोन्मुख नीतियों से उन्हें कोई परहेज़ नहीं रह गया था.
भूलना मुश्किल
नाटे क़द के, कम और कभी-कभी रूखा बोलने वाले हमेशा सफ़ेद धोती-कुर्ता पहनने वाले ज्योति बसु ने बंदरगाह और रेलवे कर्मचारियों के नेता के रूप में अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की थी.
ज्योति बसु रिकॉर्ड 23 साल तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे.
अपने आख़िरी दिनों में उन्होंने अपने आपको पार्टी के कामों से अलग कर लिया था. लेकिन वे पार्टी के कम होते असर को भी महसूस कर पा रहे थे.
उनके जाने का पार्टी के रोज़मर्रा के कामों में शायद ही कोई असर पड़े, लेकिन वो पीढ़ी उनकी कमी को ज़रूर महसूस करेगी, जो ब्रिगेड परेड ग्राउंड पर उनके ट्रेड मार्क संबोधन के साथ बड़ी हुई है
No comments:
Post a Comment