आपातकाल के बाद के 19 महीनों को छोड़ दें तो वे लंबे समय से प्रधानमंत्री थीं लेकिन 1984 तक आते-आते उन्होंने ज़िम्मेदारियाँ राजीव गांधी और अन्य युवा नेताओं को सौंपनी शुरु कर दी थीं.
मुझे लगता है कि यदि 1984 का हादसा न हुआ होता या वे इससे बच जातीं तो वे ख़ुद को धीरे-धीरे किनारे कर लेतीं. चूँकि ऑपरेशन ब्लू-स्टार हो चुका था इसलिए हो सकता था कि वे चुनाव हार जातीं, लेकिन अगर नहीं हारतीं तो वे सत्ता से चिपक कर नहीं रहतीं.
जहाँ तक अंतरराष्ट्रीय स्तर का सवाल है, मुझे लगता है कि उनके रहते भारत का प्रभाव बढ़ता ही. यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि जब सोवियत संघ का विघटन हो गया था तो इंदिरा गांधी की सोवियत संघ से प्रतिबद्धता की वजह से भारत अलग थलग पड़ जाता.
इंदिरा गांधी ने अपने पिता जवाहरलाल नेहरु की तरह खुले तौर पर यह तय कर रखा था कि भारत गुटनिरपेक्ष रहेगा. उनके दिमाग़ में कोई योजना रही ही होगी कि संतुलन किस तरह बनाया जाए.
ख़ूबी-कमज़ोरी
आप इंदिरा गांधी को किस तरह देखते हैं? इसके दो नज़रिए हो सकते हैं. एक तो प्रजातांत्रिक तरीक़ा हो सकता है और दूसरा वो नज़रिया है जो बुद्धिजीवियों का.
प्रजातांत्रिक तरीक़े की बात करें तो पिछले दिनों एक सर्वेक्षण कराया गया था जिसमें इंदिरा गांधी को नेहरु की तुलना में ज़्यादा लोकप्रिय बताया गया था.
इसका मतलब यह है कि इंदिरा गांधी आज भी लोगों में बेहद लोकप्रिय हैं. बुद्धिजीवियों की नज़र से देखें तो वे इंदिरा गांधी के बारे में बहुत ज़हरीले तरीक़े से लिखते हैं, उसमें बौद्धिक गहराई नहीं होती.
उन्हें लोग आपातकाल के कारण याद करते हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने आपातकाल किन परिस्थितियों में लगाया था.
यदि जयप्रकाश नारायण अपने आंदोलन को इतना आगे नहीं ले जाते तो वे शायद आपातकाल नहीं लगातीं. हाँ यह कहा जा सकता है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले ने भी उन्हें आपातकाल के लिए मजबूर किया होगा, क्योंकि वे मानती थीं कि हाईकोर्ट का फ़ैसला भी एक षडयंत्र का हिस्सा था.
उनकी तीन बड़ी ख़ूबियों को याद करुँ तो पहली मुझे लगती है कि वे राष्ट्रवादी थीं. वे भारत को अमरीका और पश्चिमी देशों की छाया से मुक्त करना चाहती थीं और उनकी इच्छा थी कि भारत एक दिन दुनिया के शीर्ष पर रहे.
दूसरी विशेषता थी हरित क्रांति की उनकी सोच. हरित क्रांति की बदौलत ही भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो पाया.
तीसरी ख़ूबी थी लोकतंत्र पर उनका विश्वास. जितनी बात मेरी उनसे हुई और जितना मैंने सुना उसके हिसाब से आपातकाल के दौरान वे ख़ुद बेहद परेशान थीं. एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, “देखो पाकिस्तान में भी चुनाव हो गए.”
बांग्लादेश में उनकी जीत भी एक बड़ी उपलब्धि थी जिसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी तुलना दुर्गा से की थी.
उनकी कमज़ोरियों के बारे में बात करुँ तो पहली दिक्क़त तो यह थी कि वे किसी की बात सुनने को तैयार नहीं होती थीं. आपातकाल के दौरान वे इस तरह के लोगों से से घिर गई थीं कि उन्हें सच्चाई का पता नहीं चलता था.
ये ठीक है कि उन्होंने संजय और राजीव को राजनीति में आगे बढ़ाया लेकिन इसके पीछे मक़सद ख़ानदान को आगे बढ़ाना नहीं था.
संजय गांधी को तो उन्होंने मारुति के मामले से बचाना शुरु किया था और वह विशुद्ध रुप से माँ-बेटे का मामला था. राजीव गांधी को वे इसलिए लेकर आईं क्योंकि उनको अपने सहयोगियों पर विश्वास नहीं रह गया था.
हालाँकि मैं मानती हूँ कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी को उन्होंने जिस तरह के राजनीतिक अधिकार दिए वह ठीक नहीं था. तब तो संजय गांधी की कोई जवाबदेही ही नहीं थी.
व्यक्ति के रुप में
एक व्यक्ति के रुप में तो वे अदभुत थीं. उनके भीतर ग़ज़ब का हास्यबोध था. जब वे राजनीति से अलग हट जाती थीं तो वे बेहद मानवीय होती थीं. उनसे एक दोस्त की तरह बात करने में कोई दिक्क़त नहीं होती थी.
वे हर विषय पर बात करती थीं
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तब उनसे सेक्स और राजनीति पर खुली बात की जा सकती थी. वे लोगों के बारे में पूछती रहती थीं, कहाँ क्या हो रहा है, इसमें उनकी बहुत रुचि होती थी. किसका किससे प्रेम-प्रसंग चल रहा है यह उनको पता होता था लेकिन इसके आधार पर किसी को ब्लैकमेल करते हुए मैंने कभी नहीं देखा.
एक बार मज़ेदार बात हुई जब मैंने उनसे पूछा कि वे ईश्वर के बारे में क्या सोचती हैं. पहले तो वे हाँ-ना कहती रहीं लेकिन आख़िर में कहा, “चलो ईश्वर को अकेला छोड़ देते हैं.”
उन्होंने एक बार एक क़िस्सा सुनाया कि एक बार रेल में तीसरे दर्जे में सफ़र करते हुए एक साध्वी मिल गईं. उन्होंने बताया कि रात हुई तो वे तो अपनी चादर बिछाकर सो गईं लेकिन वह साध्वी रात भर परेशान रहीं कि तीसरे दर्जे की सख़्त सीट पर नींद नहीं आ रही है. वे इसे याद करके हँसती रहीं.
मैं मानती हूँ कि वे जो पूजा पाठ या यज्ञ वग़ैरा आदि करवाती थीं वह सब राजनीति का मामला था.
(जैसा उमा वासुदेव ने रेहान फ़ज़ल को बताया
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