Saturday, 27 June 2015

जेल के भीतर और बाहर की लड़ाई @चंचल

आपातकाल लगा 25 जून, 1975 को और हम गिरफ्तार हो गए। ठीक उसी तरह, जैसे लोकनायक जय प्रकाश नारायण, चंद्रशेखर, मोहन धारिया, मधु लिमये समेत वे तमाम नेता, जो इंदिरा गांधी की सरकार का ‘तख्ता पलट’ रहे थे। इनमें समाजवादी, संघी, अकाली दल वगैरह सब शामिल थे। इन दलों और संगठनों में जितने भी बड़े-छोटे नाम थे, सब जेल में डाल दिए गए। इसके 19 महीने बाद 18 जनवरी,1977 को इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि छठी लोकसभा का चुनाव मार्च में होगा। और हमलोग मार्च में ही जेल से छूट गए। इतनी-सी बात है, इसे कहते हैं आपातकाल, यानी इमरजेंसी। क्यों लगा आपातकाल?

इसे एक सूत्र में कहा जाए, तो देश की आजादी के बाद यह पहली लड़ाई थी, जो सत्ता शक्ति और जन शक्ति के बीच हो रही थी। जनतंत्र की खूबी है कि वह इन दोनों, सत्ता शक्ति और जन शक्ति के तनाव पर जिंदा रहती है। अगर जन शक्ति जीतती है, तो अराजकता आती है और अगर सत्ता शक्ति जीतती है, तो फिर तानाशाही आती है। यहां दोनों जीते हैं। पहले जन जीता, फिर सत्ता जीती। इस जन शक्ति की शुरुआत की कहानी बहुत मजेदार है। इसके लिए थोड़ा विषयांतर कर रहा हूं।

आपातकाल के बाद जब मैं जेल से छूटकर आया, तब हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की एक पत्रिका छपती थी- साप्ताहिक हिन्दुस्तान। मनोहर श्याम जोशी इसके संपादक थे। एक दिन उनके कमरे में गया, तो वहां हमारे मित्र रमेश दीक्षित पहले से ही मौजूद थे। देखते ही जोशी जी ने सवाल पूछा- कैसी रही जेल यात्रा? हमने कहा- सुखद। दूसरा सवाल था- आपातकाल से लड़कर आए हो, क्या अनुभव रहा? हम आपातकाल से कहां लड़े? हम तो समोसा की लड़ाई में लगे रहे। जोशी जी कुछ चौंके- समोसा? हमने कहा- जी हां। आपातकाल तो 25 जून को ही लग गया था और सारे नेता उसी रात पकड़ लिए गए, तो लड़ा कौन? अकेले जॉर्ज फर्नांडिस और उनके साथी थे, जो आपातकाल से लड़े। बाकी सब तो समोसा वाले हैं। फिर पूरी बात हुई। उन्होंने कहा कि इसे लिख दो। हमने हामी भर ली और अक्सर जो हम जैसे कई अन्य उनके साथ करते आऐ थे, वही किया- पहले कुछ नगद दे दीजिए। (जोशी जी के साथ हम लोगों के ऐसे ही रिश्ते रहे। जब भी हम और हमारे जैसे उनके दफ्तर में पहुंचते, जोशी जी जान जाते कि क्यों आया है? कई बार तो बगैर कुछ बात हुए या बगैर मांगे ही जेब में हाथ डालकर नोट निकालते और बढ़ा देते - लो और जाओ अभी लिखना है।) जोशी जी मुस्कराए- जिंदगी भर समाजवादी ही बने रहोगे? बात वहीं खत्म नहीं हुई। यह बात हमने मधु लिमये को बता दी कि कल जेल पर लिखने जा रहा हूं। तब मधुजी से दो बातों के लिए डांट पड़ी। एक तो वह बोले- अभी पार्टी बनी नहीं और लगे उसे तोड़ने का उपक्रम करने? दरअसल, जेल में किसने कैसा बर्ताव किया, इसको छापने के खतरे वह अच्छी तरह से समझते थे। दूसरा- तुम किस कांग्रेसी के सामने क्रांतिकारी बनोगे? सब के सब जेल काटे हुए हैं, उसी में इनका परिवार तक बर्बाद हो गया। इस डांट के बाद तो लिखने का सवाल ही नहीं था। इसकी जगह पर हमने जोशी जी को एक दूसरा लेख दिया, जो छप भी गया। उस वक्त जो नहीं लिख पाया, आपातकाल के आज 40 साल पूरे होने पर उसी की याद आ रही है।

बात सन 1973 से शुरू हुई थी। अहमदाबाद के छात्रावासों में मिलने वाला समोसा महंगा हो गया था, क्योंकि मेस में मिलने वाला खाना अचानक महंगा हो गया। वजह यह थी कि मेस में इस्तेमाल होने वाला मूंगफली का तेल उन दिनों महंगा हो गया था। इसके खिलाफ छात्रों ने आंदोलन शुरू किया। मुख्यमंत्री थे चिमन भाई पटेल और छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे उमाकांत मांकड़ और मनीषी जानी। आंदोलन बढ़ता गया। छात्रों ने विधायकों से इस्तीफे लिए। उनके घरों को घेरकर इस्तीफे दिलवाए। नतीजा हुआ कि विधानसभा में कोरम के अभाव में स्पीकर ने विधानसभा भंग करके चुनाव कराने की मांग की, जिसे राज्यपाल ने स्वीकार भी कर लिया। और फिर जून में जब गुजरात विधानसभा का चुनाव हुआ, तो कांग्रेस पराजित हुई। बाबू भाई पटेल मुख्यमंत्री बने। 

कांग्रेस को दूसरा झटका लगा 12 जून को, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया और छह साल तक चुनाव लड़ने से उनको वंचित किए जाने का फैसला सुनाया। इसी बीच रेल हड़ताल हुई, जिसने कांग्रेस सरकार की चूलें हिला दीं। उस हड़ताल के नेता थे जॉर्ज फर्नांडिस। इन सबके बाद आंतरिक सुरक्षा का हवाला देते हुए इंदिरा सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी और आंदोलन से जुड़े तमाम नेताओं को रात में ही गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें कांग्रेस के वे लोग भी शामिल थे, जो समाजवादी भूमि से आए थे, यानी चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत, अर्जुन अरोड़ा और रामधन वगैरह। ये वही नेता थे, जिन्हें कांग्रेस का युवा तुर्क कहा जाता था और कभी वे इंदिरा गांधी की समाजवादी नीतियों के बड़े समर्थक थे।

आपातकाल की इस जेल यात्रा ने सभी को अलग-अलग तरह के अनुभव दिए। जेल को समाजवादियों और अकालियों ने हंसते-हंसते काटा, क्योंकि जेल उनके लिए कोई नई चीज नहीं थी और वे इसके आदी थे। संघ के बहुत से लोगों को दिक्कत हुई, क्योंकि उनका वर्ग चरित्र जेल काटने का नहीं था। लिहाजा कुछ लोगों ने तो बाकायदा माफीनामा लिखा कि उन्हें जेल के बाहर किया जाए और वे लोग अपने कार्यकर्ताओं के साथ इंदिरा गांधी के 20 सूत्री और संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके माफीनामे पर कोई प्रतिक्रया ही नहीं दी। सच कहा जाए, तो महज दो तरह के लोग आपातकाल से लड़े। एक जॉर्ज और उनके कुछ साथी, जिसे बड़ौदा डायनामाइट कांड के नाम से जाना जाता है। और दूसरे थे अकाली। वे जत्थे में निकलते और आपातकाल के विरोध में नारे लगाते हुए गिरफ्तारी देते थे

No comments:

Post a Comment