Saturday, 13 June 2015

शक्तियों का केंद्रीयकरण @मोहन गुरुस्वामी

हमारी राजनीति बिल्कुल विरोधात्मक हो गई है। लगता है, हम चुनाव के मोड में हर वक्त हैं। कांग्रेस पार्टी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ जैसा सलूक है, उससे तो ऐसा ही लग रहा है। अपने नए अवतार में राहुल के बयान का यह हिस्सा विचार का विषय है: ‘जहां भी प्रधानमंत्री ऐसी कोई संस्था देखते हैं जो संवैधानिक है और जिस पर लोगों का विश्वास है, वे उसे समाप्त कर देना चाहते हैं क्योंकि वे सारे अधिकार खुद अपने और कॉरपोरेट्स के पास रखना चाहते हैं।’ यह ऐसा आरोप है जो न सिर्फ कांग्रेस पार्टी के वंशवादी नेतृत्व ने लगाया है बल्कि यह नौकरशाही और यहां तक कि भाजपा के अंदर से भी क्रमश: सुनाई दे रहा है। यह मोदी के अपने व्यक्तित्व के संबंध में है। एक तो पिछला चुनाव उनके व्यक्तित्व के इर्दगिर्द लड़ा गया और दूसरा कि मनमोहन सिंह के शासन काल में प्रधानमंत्री पद की संस्था का जो हाल था, यह टिप्पणी उस संदर्भ में है।

नेहरू के जमाने में प्रधानमंत्री कार्यालय में सिर्फ एक पीए और कुछ क्लर्क हुआ करते थे। लेकिन जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो सरकार में फैसले लेने वाले शक्तिशाली और प्रभावकारी पीएमओ की सीमा रेखा दिखना शुरू हो गई। शास्त्री जी के वक्त एलके झा पीएम के सचिव थे जिन्हें खासी प्रतिष्ठा प्राप्त थी और जल्द ही महत्वपूर्ण फैसले उनके कार्यालय से होने लगे। जब इंदिरा गांधी पद पर आईं तो प्रधानमंत्री कार्यालय की शक्ति ने गति पकड़ी और उसका आकार भी बढ़ा। यह पहली मर्तबा था कि सबसे शक्तिशाली पीएमओ दिख रहा था। इसने कार्मिक विभाग, आईबी और रॉ का काम भी संभाल लिया। पीएमओ का प्रभामंडल जनता पार्टी सरकार में थोड़ा कम हुआ क्योंकि शक्तिशाली राजनीतिक व्यक्तित्व वाले कई लोग मंत्री हुआ करते थे। लेकिन राजीव गांधी के सत्ता संभालते ही पुरानी स्थिति आ गई। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने तक यही स्थिति थी। उनके पद संभालने के बाद अचानक सत्ता के दो केंद्र बन गए। 10, जनपथ का सरकार में काफी दखल हो गया- मुख्यतया मनमोहन सिंह की स्वाभाविक चापलूसी के कारण। आखिर, उन्हें पद भी तो इसी लचीलेपन की वजह से मिला था।
यहां हमारे पास ऐसे प्रधानमंत्री थे जो अपने पीछे देखते रहते थे, कदाचित ऐसा न हो कि राजनीतिक नेतृत्व से उनका कदमताल गड़बड़ा जाए। हाल यह था कि मंत्री प्रधानमंत्री के निर्देशों की अवहेलना-उल्लंघन कर रहे थे। यही नहीं, जरा याद करें, राहुल गांधी ने सजायाफ्ता सांसदों और विधायकों पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बेअसर करने वाले प्रस्तावित अध्यादेश की प्रतियों को किस तरह सार्वजनिक तौर पर फाड़ डाला था।

यही सब अब नहीं दिख रहा। मोदी का प्रधानमंत्री कार्यालय बहुत भिन्न किस्म का है। प्रधानमंत्री नंबर एक हैं और उसके बाद सभी लोग समानांतर। नृपेंद्र मिश्र को छोड़ दें तो अन्य सभी लोग मोदी के साथ उनके गुजरात में शासन काल से उनके साथ के हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार काफी दिखते हैं लेकिन व्यापारियों और अन्य नौकरशाहों का उनके कामकाज से कोई वास्ता नहीं है। इसलिए लगता है कि चारो ओर सिर्फ मोदी ही हैं। यह बात और है कि पीएमओ तक पहुंच का मार्ग बहुत सीमित कर रखा है। इससे सभी शक्तियों के केंद्रीकरण को कसा जा सका है।
इंदिरा गांधी की तरह नरेंद्र मोदी भी सीधे चुने गए प्रधानमंत्री हैं। एक तरह से उनसे ज्यादा ही। वे फैसले लेते हैं और ये उनके निर्णय होते हैं। वे हमें यकीन दिलाना चाहते हैं कि उन पर कोई बंधन नहीं है। लेकिन यह हम सिर्फ आने वाले दिनों में ही जानेंगे और तब जब चुनाव सिर पर मंडरा रहे होंगे।
-मोहन गुरुस्वामी (चेयरमैन, सेंटर फॉर पॉलिसी आल्टरनेटिव्स

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