Saturday, 13 June 2015

आधुनिक भारत के रहस्य : इसरो ‘जासूसी’ मामले में दोषी कौन है? @पवन वर्मा

इसरो में क्रायोजेनिक इंजन के विकास से जुड़े दो वरिष्ठ वैज्ञानिकों पर जासूसी के फर्जी आरोप ने इनका करियर तो तबाह किया ही, इस परियोजना को भी सालों पीछे ढकेल दिया. लेकिन इस सबके पीछे कौन था, यह आज तक पता नहीं चला.
आधुनिक भारत के रहस्यरॉकेट और सेटेलाइट की दुनिया में रहने वाले किसी वैज्ञानिक के लिए सेकंड का सौवां हिस्सा भी इतना महत्वपूर्ण होता है कि इसी से उसकी सफलता या असफलता निर्धारित हो जाती है. लेकिन इसरो के एक पूर्व वैज्ञानिक एस नम्बी नारायणन ने सिर्फ एक सफलता के इंतजार में 20 साल से ज्यादा का समय बिता दिया है. वे चार मार्च, 2015 को केरल हाई कोर्ट में उपस्थित थे. वह फैसला सुनने के लिए जो आंशिक ही सही लेकिन उनके लिए न्याय सुनिश्चित करता. उस दिन अदालत की कार्रवाई शुरू हुई और खंडपीठ के फैसले ने एक बार फिर इस 72 वर्षीय वैज्ञानिक से सफलता कुछ दूर कर दी. अदालत ने कहा कि ‘इसरो जासूसी’ मामले में नारायणन को हिरासत में लेने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार राज्य सरकार को है और अदालत इस बारे में निर्देश नहीं सकती. नारायणन इस फैसले से निराश नहीं हुए. एक अखबार से बात करते हुए उनका कहना था, ‘यह बस तात्कालिक झटका है. मुझे पूरा भरोसा है कि आखिर में सत्य ही जीतेगा.’ वे अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट ले जाने वाले हैं.
इसरो के नम्बी नारायणन और डी शशिकुमार को गिरफ्तार किया गया तो मरियम की गिरफ्तारी ऐसी लगने लगी जैसे केरल पुलिस और आईबी ने बहुत बड़ा कारनामा कर दिया हो
दो विदेशी महिलाएं, दो वैज्ञानिक और देश के सबसे महत्वपूर्ण विज्ञान संस्था में ‘जासूसी’, फिर जासूसी का आरोप फर्जी साबित होना. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) में कथित जासूसी का यह मामला बिल्कुल फिल्मी कहानी की तरह है. ऐसी कहानी जिसमें विलेन कौन है किसी को नहीं पता लेकिन पीड़ित कई हैं. सबसे पहले तो वे दो वैज्ञानिक (इनमें से एक नारायणन हैं) जिनपर जासूसी का आरोप लगा. फिर वे महिलाएं भी जिनके ऊपर कभी ये आरोप साबित नहीं हो पाए. इस पूरे प्रकरण का एक शिकार ऐसा भी है जिसका नुकसान शायद हर भारतीय के हिस्से में आता है. यह तीसरा पीड़ित खुद इसरो है.
इसरो में कथित जासूसी मामला बीस साल पुराना है. यह भी दिलचस्प है कि 20 अक्टूबर, 1994 को केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में जब मालदीव की नागरिक मरियम रशीदा को पुलिस ने हिरासत में लिया तब उनके ऊपर भारत में वीजा अवधि से ज्यादा रुकने का आरोप था. लेकिन अगले महीने जब पुलिस ने इसरो के दो वैज्ञानिकों – एस. नम्बी नारायणन और डी शशिकुमार को गिरफ्तार किया तो मरियम की गिरफ्तारी ऐसी लगने लगी जैसे केरल पुलिस और इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) ने बहुत बड़ा कारनामा कर दिया हो. पुलिस ने दावा किया कि इसरो में क्रायोजनिक इंजन विकास परियोजना के प्रमुख नारायणन व उनके सहयोगी शशिकुमार ने मरियम को परियोजना से जुड़े कुछ गोपनीय दस्तावेज सौंपे थे. पुलिस का यह भी कहना था कि ये दोनों इसरो में जासूसी करके इंजन विकास से जुड़ी पूरी जानकारी इकट्ठा कर रहे थे ताकि वह विदेशी एजेंटों को सौंपी जा सके.
यह ऐसी घटना थी जिससे वैज्ञानिक समुदाय और केंद्र सरकार सहित आम लोग भी सकते में थे. उस समय क्रायोजेनिक इंजन का विकास इसरो की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना थी. ये इंजन लिक्विड ऑक्सीजन-हाइड्रोजन के ईंधन से ऊर्जा प्राप्त करते हैं और इनसे भारी सेटेलाइटों को अंतरिक्ष में छोड़ना संभव है. इंजन के लिए बेहद कम तापमान पर लिक्विड ऑक्सीजन-हाइड्रोजन से ऊर्जा प्राप्त करना एक जटिल तकनीक है और सबसे पहले 1970 के दशक में अमेरिका ने इसमें विशेषज्ञता हासिल की थी. इसके बाद जापान, फ्रांस, रूस और चीन ने अपने यहां इस तकनीक का विकास किया.
अमेरिकी दबाव के आगे झुकते हुए रूस ने आखिरकार भारत को क्रायोजेनिक इंजन तकनीक देने का करार तोड़ दिया. इसी के बाद इसरो ने तय किया कि वह स्वदेशी इंजन का विकास करेगा
भारत 1990 के दशक से अपने रॉकेटों के लिए क्रायोजेनिक इंजन हासिल करना चाहता था. 1991 में दो क्रायोजेनिक इंजन और तकनीकी हस्तांतरण के लिए रूस के साथ भारत का करार हो गया. लेकिन अमेरिका ने यह कहते हुए इस पर आपत्ति जता दी कि यह मिसाइल तकनीक प्रसार के उसके कानून उल्लंघन है. आखिरकार अमेरिकी दबाव के आगे झुकते हुए रूस को यह करार खारिज करना पड़ा.
इसी समय इसरो ने स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के विकास का फैसला लिया और इसके लिए एक परियोजना शुरू की गई. नारायणन इस परियोजना के प्रोजेक्ट डायरेक्टर बनाए गए. नारायणन ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने पहली बार भारत में लिक्विड फ्यूल टेक्नॉलोजी का विकास किया था. इसरो के सफलतम रॉकेट पीएसएलवी (पोलर सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल) में इसी तकनीक पर आधारित इंजन इस्तेमाल किया जाता है. उस समय नारायणन सेकंड स्टेज पीएसएलवी और फोर्थ स्टेज पीएसएलवी के भी प्रोजेक्ट डायरेक्टर थे.
इसरो में कथित जासूसी का मामला परियोजना शुरू होने के बस कुछ ही महीनों के बाद की घटना है. इस मामले में मुख्य आरोपी तो तीन ही थे जिनका जिक्र हमने ऊपर किया है लेकिन पुलिस ने कुल छह गिरफ्तारियां की थीं. इनमें मरियम की एक सहेली फौजिया हसन, इसरो को सामान सप्लाई करने वाली कंपनी का एक एजेंट और क्रायोजेनिक इंजन के क्षेत्र में काम करने वाली रूस की एक कंपनी का भारतीय एजेंट शामिल थे.
उस समय तिरुवअनंतपुरुम में आईबी के संयुक्त निदेशक आरबी श्रीकुमार थे और उनके नेतृत्व में ही इसरो जासूसी मामला उजागर हुआ था. ये वही श्रीकुमार हैं जो बाद में गुजरात के पुलिस महानिदेशक भी बने और जिन्होंने आरोप लगाए थे कि 2002 के दंगों के समय राज्य सरकार व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुलिस को आवश्यक कार्रवाई करने से रोका था.
मई, 1996 में सीबीआई ने इस मामले में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी. इसमें आईबी की जांच और उसके अधिकारियों की मंशा पर कई सवाल खड़े किए गए थे
इसरो जासूसी मामले के तार चूंकि विदेशी महिलाओं से जुड़े थे इसलिए कुछ ही दिनों बाद सीबीआई को इसकी जांच सौंप दी गई. अब तक सभी आरोपित जेल में थे. सीबीआई जांच की शुरुआत में ही यह स्पष्ट हो गया कि इन लोगों को फर्जी मामले में फंसाया गया है. नारायणन को 50 दिन बाद जमानत मिल गई. बाकी आरोपित भी एक साल पूरा होते-होते जेल से बाहर आ गए. मई, 1996 में सीबीआई ने इस मामले में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी. इसमें आईबी की जांच और उसके अधिकारियों की मंशा पर कई सवाल खड़े करते हुए सभी आरोपितों को निर्दोष बताया गया था.
1994 में जब यह मामला प्रकाश में आया तब केरल में कांग्रेस की सरकार थी और के करुणाकरण मुख्यमंत्री थे. 1996 में वाम दलों का गठबंधन यहां सरकार बना चुका था. इस  सरकार ने सीबीआई की रिपोर्ट को नहीं माना और इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. यहां भी राज्य सरकार के दावे गलत साबित हुए और 1998 में इस मामले पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपितों को बरी करते हुए कहा कि यह बिल्कुल फर्जी मामला था.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद बाकी लोगों ने तो इस मामले से खुद को अलग कर लिया लेकिन नारायणन की लड़ाई अभी-भी जारी है. सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में केरल सरकार से सिफारिश की थी कि इस मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए. इस बीच केरल में चार राज्य सरकारें बदल चुकी हैं लेकिन इस दिशा में कुछ नहीं हुआ. नारायणन इन्हीं पुलिस अधिकारियों को न्याय के कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं. उन्होंने आरबी श्रीकुमार के खिलाफ भी याचिका दाखिल की है.
इसरो जासूसी कांड का एक दूसरा पक्ष भी है जो इस पूरे प्रकरण को रहस्यमय बनाता है. दरअसल इस पूरे कांड के बाद लगातार यह सवाल उठाया जाता रहा है कि यदि इन लोगों ने जासूसी नहीं की थी तो इन्हें फर्जी केस में क्यों फंसाया गया. क्या इसका मकसद इसरो की क्रायोजनिक परियोजना को असफल करना था?
नारायणन और शशि कुमार के सुप्रीम कोर्ट से बरी होने के बाद इसरो में दोबारा नियुक्ति तो मिल गई थी लेकिन उन्हें रिटायर्ड होने तक क्रायोजनिक इंजन परियोजना के साथ-साथ दूसरे संवेदनशील कार्यक्रमों से भी दूर रखा गया
इस सवाल के जवाब में जो सबसे प्रचलित धारणा है उसके मुताबिक इस कांड के पीछे अमेरिका की गुप्तचर संस्था सीआईए का हाथ था. कहा जाता है कि अमेरिका पहले ही इसके विरोध में था कि भारत क्रायोजेनिक इंजन का विकास करे. दरअसल ऐसा होते ही वह भारी सेटेलाइटों के प्रेक्षेपण के कारोबार में अमेरिका और फ्रांस का प्रतिद्वंदी बन जाता. नारायणन एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में सीआईए को इस पूरे कांड के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए बताते हैं, ‘यदि हमने क्रायोजनिक इंजन 2001 में लॉन्च कर दिया होता तो हम काफी समय पहले जियोसिक्रोनस लॉन्च व्हीकल के कारोबार में आ चुके होते. हमारी लागत अमेरिका की तुलना में आधी है. इसका हमें काफी फायदा मिलता और अब तक देश अरबों डॉलर का कारोबार कर चुका होता.’ नारायणन और शशि कुमार के सुप्रीम कोर्ट से बरी होने के बाद इसरो में दोबारा नियुक्ति तो मिल गई थी लेकिन उन्हें रिटायर्ड होने तक क्रायोजेनिक इंजन परियोजना के साथ-साथ दूसरे संवेदनशील कार्यक्रमों से भी दूर रखा गया. माना जाता है कि इसका खामियाजा आखिरकार इसरो को ही भुगतना पड़ा. संस्थान 2014 में जाकर अपने पहले क्रायोजनिक इंजन का परीक्षण कर पाया.
इसरो जासूसी मामले में सीआईए का हाथ होने की धारणा को इस बात से भी बल मिलता है कि जब यह मामला उजागर हुआ उस समय रतन सहगल आईबी की काउंटर इंटेलीजेंस यूनिट के प्रमुख थे. वे भी इसरो जासूसी मामले की जांच में काफी सक्रिय थे. लेकिन सहगल को कुछ ही महीनों बाद संदिग्ध परिस्थितियों में आईबी से त्यागपत्र देना पड़ा. उन पर आरोप था कि उनके सीआईए से संबंध हैं.
इसरो जासूसी मामले पर कई किताबें भी लिखी गई हैं. इनमें सबसे प्रमुख किताब बीबीसी के पत्रकार ब्रायन हार्वी की है. ‘रशिया इन स्पेस, ए फेल्ड फ्रंटियर’ नाम से प्रकाशित इस किताब में कई दस्तावेजों के आधार पर दावा किया गया है कि सीआईए ने इसरो के क्रायोजनिक इंजन विकास कार्यक्रम को नुकसान पहुंचाया था.
नारायणन कई बार सरकार से मांग कर चुके हैं वह इसरो जासूसी कांड में विदेशी एजेंसियों की भूमिका की जांच करे लेकिन अभी तक सरकार इससे इनकार करती रही है. हालांकि इस मामले में सीबीआई ने भी इसी साल केरल हाई कोर्ट में कहा है कि सीआईए इस मामले के पीछे नहीं थी. यदि ऐसा है तब भी वह सवाल तो अनुत्तरित ही रह जाता है कि इस साजिश के पीछे था कौन? और उसका मकसद क्या था? इन सवालों के जवाब उसी परिस्थिति में मिल सकते हैं जब इसरो जासूसी मामले की जांच करने वाले तमाम वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और आईबी के अधिकारियों पर नए सिरे से जांच बिठाई जाए. फिलहाल इस मामले पर केरल सरकार और केंद्र सरकार का जो रुख है उसे देखते हुए लगता नहीं यह कभी मुमकिन हो पाएगा.

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