चंडीगढ़ का मशहूर रॉक गार्डन बनाने वाले नेक चंद सैनी को अपने इस गार्डन में सैकड़ों दर्शकों के बीच टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर बिना अपनी पहचान ज़ाहिर किए घूमना बहुत पसंद था.
जब दर्शकों को गांव की प्रतिकृति को निहारते या झरना मिलने पर चहकते हुए देखते या अनूठे किस्म की एक छोटी सी दुकान से निशानी के तौर पर कुछ चीजें खरीदते हुए देखते तो वो बहुत खुश होते.
इसके बाद वो अपने साथी की ओर शरारती नज़रों से देखते और कहते, ''इन्हें नहीं पता कि मैं कौन हूँ.''
लेकिन ये सब उनके लिए घमंड से ज़्यादा शरारत वाली खुशी की बात होती थी.
इसके बाद वो अपनी पहचान ज़ाहिर करते और खुशी से अपने प्रशंसकों के साथ फ़ोटो खिंचवाते और ऑटोग्राफ देते.
'प्रजा' पर नज़र
उनके अभिमान में भी कुछ बचपना सा दिखता है. इसी संवेदनशीलता से उन्होंने एक ऐसी रहस्यमयी दुनिया बनाई जहां, चूड़ियों, टाइल, चाय के कप से बने महिला और पुरुष, कहीं पौधे लिए, घुड़सवारी करते या आकार लिए खड़े दिखते हैं.
लेकिन इस गार्डन का एक हिस्सा ऐसा है जो लोगों से छिपा हुआ है, जहां लोगों की नज़र नहीं जाती. वो है झरने के ऊपर बने दो कमरों का घर. वे इसे 'राजा का महल' बताते थे. वो तर्क देते थे कि अगर ये एक साम्राज्य है तो एक राजा भी होना चाहिए और उसका महल भी.
और इस अदृश्य घर का एक जादुई दरवाज़ा है जो छिपा हुआ है और एक अनुभवी आंख ही उसे देख सकती है और उसे खोलने के लिए एक चाबी की ज़रूरत पड़ती है.
और जब वो इस 'महल' के अंदर होते तो उनकी आंखों में एक अजीब सी चमक आ जाती थी. झरने से गुज़रते, एम्फ़ीथिएटर के मंच पर खड़े लोगों की ओर इशारा करते हुए वो कहते, “उन लोगों को देखो, ये सभी लोग हमें नहीं देख सकते लेकिन हम इन्हें देख सकते हैं. एक राजा को अपनी प्रजा पर नज़र रखने में सक्षम होना चाहिए.''
रचनात्मकता पर चुप्पी
और फिर वे बहुत ही सीधे, भोलभाले अंदाज़ में अपने काम की प्रेरणा के बारे में बताते. वे कहते, “ज़्यादा कुछ नहीं, लोग टूटी फूटी पुरानी चीज़ें यहां लेकर आते हैं और बस मैं उन्हें एक साथ चिपका देता हूं.”
और अपनी रचनात्मकता को लेकर किसी गुप्त प्रक्रिया के सवाल को वो टाल जाते.
उनका दफ़्तर एक लंबी गुफ़ा में बना था जिसमें एक लंबी खिड़की थी. इस दफ़्तर में तमाम तरह की चीज़ें थीं जैसे थिएटर में इस्तेमाल होने वाली एक पुरानी पोशाक, एक ग़लत आकार वाली हैट, अख़बार की कतरन, एक डिनर सेट के बचे-खुचे टुकड़े, एक बिना धार वाली पैंसिल, बेकार हो चुकी इलेक्ट्रिकल फिटिंग, जो रॉक गार्डन में किसी चरित्र या उनकी सरंचना का सिर या गाल बनने का इंतज़ार कर रहे थे.
उनके पहले दो चरणों में आपको चीज़ों के दोबारा इस्तेमाल का तार्किक तरीक़ा नज़र आता है जहां झरने में बहने वाला पानी घुमकर दोबारा इस्तेमाल में आता है लेकिन तीसरे चरण में ज़मीन पर सीधे कतार में खड़ी ठोस संरचनाएं दिखती हैं.
आख़िर तक बच्चे जैसे
हालांकि रहस्यात्मकता और मज़े के भाव ने धीरे-धीरे अतिश्योक्ति को जगह दे दी थी लेकिन नेक चंद आख़िर तक बच्चे जैसे बने रहे.
वे चुटकले कहते थे और किसी पत्रकार दोस्त को न पहचानने का दिखावा करते थे.
पहले वो ख़ुद ख़ास पर्यटकों को गार्डन से लेकर जाते, उन्हें छिपे हुए रास्तों से परकोटों तक चढ़ाते. उन्हें बढ़िया जगहों से रॉक गार्डन दिखाते.
वो अपनी छोटी सी सल्तनत के राजा रहे, हालांकि वे कभी महल में नहीं रह पाए.
(नील कमल पुरी दि पटियाला क्वारटेट और ‘रीमेम्बर टू फॉर्गट’ नाम से दो उपन्यास लिख चुकी है जिन्हें पैंग्विन और रूपा ने प्रकाशित किया. वे तीसरा उपन्यास लिखने के क्रम में हैं. वे चंडीगढ़ में पोस्ट ग्रेजुएट गवर्मेंट कॉलेज फॉर गर्ल्स में लिटरेचर और मीडिया स्टडिज़ पढ़ाती हैं.
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